गिरीश पंकज का मतलब एक बहुआयामी रचनाकार है । वे एक साथ व्यंग्यकार, उपन्यासकार, ग़ज़लकार एवं प्रख्यात पत्रकार हैं । सद्भावना दर्पण नामक वैश्विक स्तर पर चर्चित अनुवाद पत्रिका के संपादक हैं । देश एवं विदेश में सम्मानित । युवाओं के प्रेरणास्त्रोत । सद्भावना, राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सद्भाव के लिए संपूर्ण राज्य में एक विशिष्ट स्थान रखने वाले गिरीश पंकज को पढ़ना अपने आप में एक विशिष्ट अनुभव से गुजरना है ।इस अवसर पर प्रस्तुत है उनका एक व्यंग्य -
!! व्यंग्य:हम तो मूरख जनम के !!
()गिरीश पंकज
हम जैसे लोग अक्सर उल्लू बना दिए जाते है, कई बार तो यही लगता है, कि हम इस धरा पर केवल मूर्ख बनने के लिए ही अवतरित हुए हैं. जिसे देखो, टोपी पहना देता है, बोले तो.... मामू बना देता है. इसीलिये तो पहली अप्रैल क्या आती है और हम जैसे मूर्खों की बन आती है। निकल पड़ती है. भाई लोग बधाइयाँ देते हैं और हम खुश हो लेते हैं यह सोचकर कि अपने हिस्से भी एक अदद दिन है, जो ‘मनाया’ जाता है। हम तो अपने आपको मूरख ही मानते हैं। हे पाठक, बेशक आप नहीं होंगे, ऐसा सोचना मेरा अपना फर्ज़ है। कर्त्तव्य है. लेकिन का करें....हम तो हूँ न.
अब मैं मूर्ख क्यों हूँ, इसका खुलासा किस तरह करूँ ? एक तरीका तो यही हो सकता है कि आप इन पंक्तियों को पढ़ कर ही समझ सकते हैं कि ये शख्स मूर्खता भरी बातें कर रहा है तो जाहिर ही है कि मूर्ख होगा. आज तो हर कोई अपने आपको बुद्धिमान साबित करने की ‘मूर्खता’ में भिड़ा हुआ है और ये पट्ठा खुद को मूरख बताने में उतारू है, तो इससे बड़ा मूर्ख और कौन होगा भला।
एक दफे की बात है। वन्स अपॉन ए टाइम...चुनाव होने वाले थे और रंग-बिरंगे, चित·बरे, नेता इधर-उधर ‘वोटर’ रूपी शिकार की तलाश में भटक रहे थे, कि हमसे मुठभेड़ हो गई। एक नेता ने अपने सिर की टोपी उतारी और मेरे धूल-धूसरित पैरों पर धर दी। फिर रोनी सूरत बना कर कहने लगा- ‘‘ हे नर पुंगव, मनुष्यों में श्रेष्ठ, आज जो तू मुझे दर्शन देने की कृपा कर रहा है, उससे मेरा मन हर्ष से भरा जा रहा है। मैं तुम्हारे दर्शनार्थ ही भटक रहा था, प्रभो।’’
‘‘लेकिन मेरी ऐसी क्या ज़रूरत आन पड़ी आपको ?’ नेता के इस असाधारण मक्खनयुक्त वचन सुनकर मेरा मूरख मन गदगद हो गया था। मैंने कहा, ‘कृपा करके अपनी इन चिकनी-चुपड़ी बातों का प्रयोजन तो बताइए, तात ।’’
‘‘प्रयोजन स्पष्ट है। सामने चुनाव है, इसीलिए तो हमको कष्ट है।’ नेताजी बोले, ‘पिछली बार हम हड़बड़ी में थे। आपकी तरफ निहारने ·का समय ही नहीं मिल पाया था, लेकिन अब सड़क पर हैं, तो आप और आपका पूरा खानदान हमें याद आ रहा है। आपके घर में कुल छह वोट हैं न ?’’
‘‘हाँ। क्यों ?’’
‘‘वो सबके सब मुझे चाहिए, चुनाव जीतने के लिए।’’ नेताजी ने दोबारा अपने गंदे हाथों को मेरे पैरों की तरफ फैलाया।
‘‘लेकिन इससे कोई फायदा नहीं।’ मैंने अपना मतदातावाला गुस्सा दिखाते हुए कहा ‘आप लोग वादे करके राजधानी चले जाते हैं और फिर 'वाट' लगा देते है यानी कि अपने ही वादों की निर्ममतापूर्वक हत्या कर देते हैं। वादे तो पूरे करते नहीं और आ जाते हैं, हाथ पसारने, शर्म आनी चाहिए।’’
आश्चर्य...ससुरा नेता हँस पड़ा। नेता और शर्म ?
हँसने के बाद नेता बोला, ‘‘आप मजाक कर रहे हैं। आपसे वादा करता हूँ कि पिछले वादों को इस बार ज़रूर पूरा करूंगा...करके रहूँगा। हम सरकार बना रहे हैं। पिछली बार हमारी सरकार नहीं बनी थी न, इसलिए कुछ करने-कुराने का मौका ही नहीं मिला। इस बार देख लेना रामभरोसे जी, तुम्हारे सारे सपने पूरे हो जाएंगे।फिर से मेरा वादा ’’
‘‘सच ?’ मैं सपने पूरे होने के वादे मात्र से गद्गदायमान हो गया, ‘अगर ऐसी बात है तो फिर हमारे घर के सारे वोट आपके भिक्षा-पात्र में ही समझो।’’
हमारी ‘तथास्तु’ वाली मुद्रा से नेता का छुहारा जैसा चेहरा तन कर ·किसमिस नहीं.... नहीं अंगूर की तरह दीखने लगा।
नेता धन्यवाद बोल कर चला गया तो फिर दोबारा अपने इलाके में नज़र ही नहीं आया। दिन, महीने, साल बीतते गए। उसे नहीं आना था, वह नहीं आया।
एक दिन जब मैं आईने के सामने खड़ा होकर अपने चेहरे पर खिंची हुई दुख-दर्द की रेखाएं गिन रहा था, तभी मेरे चेहरे ने ताना मारते हुए कहा, ‘'आखिर बन गए न बच्चू अप्रैल फूल यानी फिर से मूर्ख? इन नेताओं के आंसुओं और वादों के चक्कर में पड़ कर पूरा देश घनचक्कर बन कर बर्बाद हो रहा है, तो तुम किस खेत की मूली हो, ऐं ?'’
मैंने फिल्मों के हास्य कलाकार की स्टाईल में सिर लटकाते हुए कहा, ‘'तुम ठीक कहते हो मित्र, पर क्या करें, हमें बनना था, हम बनते रहे और हम बन गए मूरख।'’ फिर खुद ‘टुईं...टुईं...टुईं’ की म्यूजिक निकालते हुए ऐसे ‘गिरे’ कि ‘लग’ गई।
बिस्तर पर गिरे और नींद लग गई और सपने देखने लगे।
सपने में वही नेता दीख पड़ा। अपने महल के तहखाने में घुसकर वह ‘नोट’ गिन रहा था। मैंने उसे लट्ठ लेकर दौड़ाया तो ‘दुम’ दबा कर भाग गया। उसके साथ ही उसकी सारी संपत्ति भी जाने किधर लापता हो गई। नींद टूटी, सो अलग। मैं सोचने लगा, हम मूर्खों की किस्मत भी कितनी बुरी है। एक ‘ठन’ सपना भी पूरी तरह से नहीं देख पाते।
हम तो रोज मूर्ख बनते हैं। जैसे, अपने देश के दूकानदार रोज हमको मूर्ख बनाते हैं और हम बन जाते हैं।
उस दिन दूकानदार से मैंने पूछा - ‘क्यों भाई साहब, इस चीज की कीमत कल तक पचीस रुपए थी, आज पैंतीस रुपए कैसे हो गई ?’ तो उसने बत्तीसी दिखते हुए कहा, ‘अभी आपने टीवी पर खबर नहीं सुनी? इसका दाम बढ़ गया है।’
‘लेकिन सुबह वाली न्यूज़ में तो ऐसा कुछ भी नहीं था।’ मैंने कहा।
‘एक बजे वाली में था।’ दूकानदार का 'तुरंतो' जवाब।
‘लेकिन एक बजे वाली न्यूज़ भी मैं सुन चुका हूँ। उसमें भी ऐसी कोई घोषणा नहीं हुई थी।’ मैंने उखड़ते हुए कहा।
‘तो फिर शायद दो बजे वाली न्यूज़ में हुई थी घोषणा।’ बेशर्म जवाब मिला
अब, हम खामोश। क्या कहें। हुई होगी घोषणा। ले भइया पैसे। अब ये दूकानदार भी गजब में शर्म-मुक्त होते हैं। रेडियो-टीवी की घोषणा होते साथ ही कीमत बढ़ा देंगे, लेकिन घटाने की घोषणा होगी, तो चिकने घड़े बन जाएंगे। पूछने पर कहते हैं, ‘हमारे पर इस तरह का कोई कागज नहीं आया।’ गजब की हिम्मत होती है ऐसे लोगों में। ये लोग ‘सप्रेम’ मूर्ख बना देते हैं और हम ‘सप्रेम’ बन भी जाते हैं।
तो आदरणीय, हमारी नियति है मूर्ख बनना। घर में बीवी, बच्चे मूर्ख बना कर पैसे ऐंठ लेते हैं। बाहर दूकानदार, भिखारी और उधारखाऊ यार-दोस्त। हम कदम-·कदम पर ठगे जाते हैं। ठगे यानी कि मूर्ख बनाए जाने के अनेक किस्से हैं। हरिकथा की तरह अनंत। अपनी मूर्खता को ज्यादा उजागर करने से बड़ी मूर्खता और क्या होगी ? इसलिए भलमनसाहत यही है कि चुप रहा जाए और ‘मूर्ख दिवस’ में यह सोच कर खुश रहने की आदत डाली जाए कि साल का एक दिन हमारे नाम कर दिया गया है। लोगबाग आते हैं और मूर्ख दिवस की हार्दिक बधाई दे कर चले जाते हैं।
नेताजी का भी मोबाइल आया था राजधानी से। उनकी ·कर्कश आवाज गूँजी, '‘क्या रामभरोसे जी बोल रहे हैं ?''
हाँ भाई, हाँ, हम राम जी के भरोसे रहने वाले ही बोल रहे है,. आप कौन...?
''पहचान कौन..? ''
आवाज फटी-फटी -सी, कुछ - कुछ शातिराना अंदाज़ भी. कौन हो सकता है...? हाँ, और कौन होगा. अपने पल्टू भैया होंगे यानी नेताजी. वे नेताजी ही थे. मैंने कहा, '' हाँ-हाँ, पहचान गया, फरमाइए, कैसे याद किया? चुनाव तो अभी बहुत दूर है...? ''
वे फटी हुई हंसी के साथ बोले- ''आपको मूर्ख दिवस पर लख-लख बधाइयाँ।’'
फिर उसके बाद तो बधाइयाँ।’देने वालों के फोन पर फोन आने लगे.
(हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में बहुचर्चित अट्टहास सम्मान(लखनऊ) प्राप्त कर चुके साहित्य अकादमी", नई दिल्ली के सदस्य चर्चित व्यंग्यकार गिरीश पंकज के आठ व्यंग्य संग्रह, तीन व्यंग्य उपन्यास समेत अनेक विधाओं में बत्तीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. इनके व्यंग्य साहित्य पर अब तक सात लोग लघु शोध-कार्य कर चुके हैं. अभी हाल ही में पंजाब की दीपिका ने एम्- फिल. की उपाधि के लिए श्री पंकज के व्यंग्य उपन्यास ''पालीवुड की अप्सरा'' पर शोध कार्य पूर्ण किया. कर्नाटक के नागराज पी-एच. डी. उपाधि के लिए श्री पंकज के समग्र व्यक्तित्व-कृतित्व पर शोध कार्य कर रहे है.)
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6 comments:
अद्भुत!!! श्री गिरीश पंकज जी का यह व्यंग प्रस्तुत करने के लिए आपको साधुवाद और बधाई. आपकी परिकल्पना की जितनी तारीफ़ की जाए, कम है. बधाई स्वीकार करें.
गिरीश पंकज से मुलाकात अच्छी लगी
इसे पढ़कर तो सभी कहेंगे हम तो मूर्ख ही भले हैं।
मुर्ख दिवस की लाख लाख बधाइयाँ ...हा हा ...बढ़िया रहा ये भी
शानदार लेखन का नमूना. गिरीश जी के व्यंग्य अद्भुत होते हैं. आभार.
aaj hi pravaas se lautaa to aapkaa blog dekha. meree rachanaa par 5 achchhe logon ki pratikriyaa dekh, aapkee tippanee bhi.aap sab logon ne mujhe itanaa sneh diya, iss hetuaabhari hu. ayr kya kahoon, bus, hausalaa dete rahen.
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