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!!अपना बिम्ब निहारो, दर्पण मत तोड़ो !!
अपना बिम्ब निहारो, दर्पण मत तोड़ो.
कहता है प्रतिबिम्ब कि दर्पण मत तोड़ो.
स्वयं सराह न पाओ, मन को बुरा लगे-
तो निज रूप सँवारो, दर्पण मत तोड़ो....
*
शीश उठाकर चलो, झुकाओ शीश नहीं.
खुद से बढ़कर और दूसरा ईश नहीं.
तुम्हीं परीक्षार्थी हो, तुम्हीं परीक्षक हो.
खुद को खुदा बनाओ, दर्पण मत तोड़ो...
*
पथ पर पग रख दो तो मंजिल पग चूमे,
चलो झूम कर दिग्-दिगंत वसुधा झूमे.
आदम हो इंसान बनोगे, प्रण कर लो.
पंकिल चरण पखारो, दर्पण मत तोड़ो...
*
बाँटो औरों में जो भी अमृतमय हो.
गरल कंठ में धारण कर निर्भय हो.
वरन मौत का जो जीवन पाते हैं,
जीवन में 'सलिल' उतारो दर्पण मत तोड़ो...
******************************
!! हे समय के देवता! !
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
श्वास जब तक चल रही है,
आस जब तक पल रही है,
अमावस का चीरकर तम-
प्राण-बाती जल रही है.
तब तलक रवि-शशि सदृश हम
रौशनी दें तनिक जग को.
ठोकरों से पग न हारें-
करें ज्योतित नित्य मग को.
दे सको हारे मनुज को, विजय का अरमान दो तुम.
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
नयन में आँसू न आये,
हुलसकर हर कंठ गाये.
कंटकों से भरे पथ पर-
चरण पग धर भेंट आये.
समर्पण विश्वास निष्ठां
सिर उठाकर जी सके अब.
मनुज हँसकर गरल लेकर-
शम्भु-शिववत पी सकें अब.
दे सको हर अधर को मुस्कान दो, मधुगान दो तुम..
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
सत्य-शिव को पा सकें हम'
गीत सुन्दर गा सकें हम.
सत-चित-आनंद घन बन-
दर्द-दुःख पर छा सकें हम.
काल का कुछ भय न व्यापे,
अभय दो प्रभु!, सब वयों को.
प्रलय में भी जयी हों-
संकल्प दो हम मृण्मयों को.
दे सको पुरुषार्थ को परमार्थ की पहचान दो तुम.
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
!!ओ! मेरे प्यारे अरमानों !!
अपना बिम्ब निहारो, दर्पण मत तोड़ो.
कहता है प्रतिबिम्ब कि दर्पण मत तोड़ो.
स्वयं सराह न पाओ, मन को बुरा लगे-
तो निज रूप सँवारो, दर्पण मत तोड़ो....
*
शीश उठाकर चलो, झुकाओ शीश नहीं.
खुद से बढ़कर और दूसरा ईश नहीं.
तुम्हीं परीक्षार्थी हो, तुम्हीं परीक्षक हो.
खुद को खुदा बनाओ, दर्पण मत तोड़ो...
*
पथ पर पग रख दो तो मंजिल पग चूमे,
चलो झूम कर दिग्-दिगंत वसुधा झूमे.
आदम हो इंसान बनोगे, प्रण कर लो.
पंकिल चरण पखारो, दर्पण मत तोड़ो...
*
बाँटो औरों में जो भी अमृतमय हो.
गरल कंठ में धारण कर निर्भय हो.
वरन मौत का जो जीवन पाते हैं,
जीवन में 'सलिल' उतारो दर्पण मत तोड़ो...
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!! हे समय के देवता! !
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
श्वास जब तक चल रही है,
आस जब तक पल रही है,
अमावस का चीरकर तम-
प्राण-बाती जल रही है.
तब तलक रवि-शशि सदृश हम
रौशनी दें तनिक जग को.
ठोकरों से पग न हारें-
करें ज्योतित नित्य मग को.
दे सको हारे मनुज को, विजय का अरमान दो तुम.
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
*
नयन में आँसू न आये,
हुलसकर हर कंठ गाये.
कंटकों से भरे पथ पर-
चरण पग धर भेंट आये.
समर्पण विश्वास निष्ठां
सिर उठाकर जी सके अब.
मनुज हँसकर गरल लेकर-
शम्भु-शिववत पी सकें अब.
दे सको हर अधर को मुस्कान दो, मधुगान दो तुम..
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
सत्य-शिव को पा सकें हम'
गीत सुन्दर गा सकें हम.
सत-चित-आनंद घन बन-
दर्द-दुःख पर छा सकें हम.
काल का कुछ भय न व्यापे,
अभय दो प्रभु!, सब वयों को.
प्रलय में भी जयी हों-
संकल्प दो हम मृण्मयों को.
दे सको पुरुषार्थ को परमार्थ की पहचान दो तुम.
हे समय के देवता! गर दे सको वरदान दो तुम...
!!ओ! मेरे प्यारे अरमानों !!
ओ! मेरे प्यारे अरमानों,
आओ, तुम पर जान लुटाऊँ.
ओ! मेरे सपनों अनजानों-
तुमको मैं साकार बनाऊँ...
*
मैं हूँ पंख उड़ान तुम्हीं हो,
मैं हूँ खेत, मचान तुम्हीं हो.
मैं हूँ स्वर, सरगम हो तुम ही-
मैं अक्षर हूँ गान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी निश्छल मुस्कानों
आओ, लब पर तुम्हें सजाऊँ...
*
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.
ओ! मेरे निर्धन धनवानों
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ...
*
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन.
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी रचना संतानों
आओ, दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
() () ()
पुन: परिकल्पना पर वापस जाएँ
आओ, तुम पर जान लुटाऊँ.
ओ! मेरे सपनों अनजानों-
तुमको मैं साकार बनाऊँ...
*
मैं हूँ पंख उड़ान तुम्हीं हो,
मैं हूँ खेत, मचान तुम्हीं हो.
मैं हूँ स्वर, सरगम हो तुम ही-
मैं अक्षर हूँ गान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी निश्छल मुस्कानों
आओ, लब पर तुम्हें सजाऊँ...
*
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.
ओ! मेरे निर्धन धनवानों
आओ! श्रम का पाठ पढाऊँ...
*
मैं हूँ तुच्छ, महान तुम्हीं हो.
मैं हूँ धरा, वितान तुम्हीं हो.
मैं हूँ षडरसमधुमय व्यंजन.
'सलिल' मान का पान तुम्हीं हो.
ओ! मेरी रचना संतानों
आओ, दस दिश तुम्हें गुंजाऊँ...
() () ()
पुन: परिकल्पना पर वापस जाएँ
5 comments:
संजीव सलिल जी की रचनाओं का जबाब नहीं .. वे भावों को बहुत सहज ढंग से अभिव्यक्ति देते हैं .. सुंदर रचनाएं !!
मैं हूँ मधु, मधु गान तुम्हीं हो.
मैं हूँ शर संधान तुम्हीं हो.
जनम-जनम का अपना नाता-
मैं हूँ रस रसखान तुम्हीं हो.
....
नमन
sanjiv ji ke geeton ko parhanaa apne aap me ek anhbhav rahataa hai. is baar bhi unhone aannandit kiyaa hai.
गीत 'पुरी' में 'रश्मि', ने 'पंकज' को ले साथ.
शुभाशीष दे 'सलिल' के, सिर पर रक्खा हाथ.
मिलकर गले 'रवींद्र' ने, उज्जवल किया 'प्रभात'.
नव्य-भव्य 'परिकल्पना', बनी दिव्य अवदात..
स्वयं सराह न पाओ, मन को बुरा लगे-
तो निज रूप सँवारो, दर्पण मत तोड़ो....
सलिल जी के गीत मन मोह लेते है.
सभी रचनाए बेजोड़
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