श्री कृष्ण कुमार यादव डाक विभाग में निदेशक के पद पर कार्यरत है। आजकल अंडमान -निकोबार दीप समूह, पोर्टब्लेयर में रह रहे हैं यह हिंदी के प्रयोगधर्मी ब्लोगर हैं जो अपने अनुभवों को शब्द की गहराई देकर पाठकों के हृदय में गहरे उतरते नज़र आते हैं ब्लॉग हो अथवा साहित्य ये उन्ही अनुभवों को पकड़ने का प्रयास करते हैं जो कहीं वक़्त के साथ खो जाता है इनका प्रमुख ब्लॉग है -- डाकिया डाक लाया

आज इस ब्लॉग उत्सव में हमारे ये डाकिया बाबू रूबरू करा रहे हैं बदलते दौर के साहित्य से और बता रहे हैं कि कैसे साहित्य के पास हर समस्या का निदान है और किसप्रकार उसकी सोच नए तंत्र का उद्भव करती है ? आईये पढ़ें डाकिया बाबू के इस सारगर्भित सन्देश को ....!


आलेख
!! बदलते दौर में साहित्य !!
() के० के० यादव

साहित्य एक विस्तृत अवधारणा है। सभ्यता के आरम्भ से ही समाज की सभी भूमिकाओं को अपने में समेट कर उनका समाधान और उन पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए साहित्य का संजाल विस्तृत होता रहा है। कहा भी गया है कि साहित्य की यात्रा वहीं से आरम्भ होती है, जहाँ से संस्कृति की यात्रा। यही कारण है कि साहित्य और संस्कृति दोनों दीर्घकालीन हैं। किसी ने खूब कहा है कि कवि ईश्वर का रूप होता है-‘कविर्मनीशी परिभू: स्वयं भू।वस्तुत: साहित्य के पास हर समस्या का निदान है और उसकी सोच नये तंत्र का उद्भव करती है। साहित्य की सत्ता के समक्ष हर चुनौती विफल है।

साहित्य के सरोकारों को लेकर आज समाज में एक बहस छिड़ी हुई है। इस संक्रमण काल में कोई भी विधा मानवीय सरोकारों के बिना अधूरी है, सो साहित्य उससे अछूता कैसे रह सकता है। रीतिकालीन साहित्य से परे अब साहित्य में तमाम विचारधाराएं सर उठाने लगी हैं या दूसरेशब्दों में समाज का हर वर्ग साहित्य में अपना स्थान सुनिश्चित करना चाहता है। यही कारण है कि नव-लेखन से लेकर दलित विमर्श , नारी विमर्श , बाल विमर्श जैसे तमाम आयाम साहित्य को प्रभावित कर रहे हैं। कभी साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता था, पर अब साहित्य की इस भूमिका पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं। दर्पण का कार्य तो मात्र अपने सामने पड़ने वाली वस्तु का बिम्ब प्रदर्शित करना है, जबकि साहित्य इसी मायने में अलग है कि वह सिर्फ उन पहलुओं को नहीं देखता जो सामने से दिखती हैं बल्कि उनके पीछे छुपी सच्चाइयों और अन्तर्विरोधों को उजागर करना भी उसका कर्तव्य है। ऐसे में आज साहित्य सिर्फ समाज का दर्पण मात्र नहीं, बल्कि उससे भी काफी विस्तृत है।

आज दलित साहित्यकार एवं नारीवादी साहित्यकार इस सवाल को बेबाकी से उठाते हैं कि साहित्य यदि समाज का दस्तावेज है तो इसमें दलितों और नारी की भूमिका कहाँ है? क्या दलितों की भूमिकाशम्बूक बनकर गर्दन कटवाने, एकलव्य बनकर अंगूठा कटवाने, त्रिशंकु बनकर स्वर्ग नर्क के बीच झूलते रहने अथवा ताड़ना का अधिकारी बनने में है। आर्य-अनार्य संस्कृति के बहाने दलितों को हेय बताकर साहित्य की समभाव संस्कृति को प्रश्रय देता रहा है। राजाओं-महाराजाओं के हरम में सैकड़ों पटरानियों का उद्धरण देकर साहित्य नारी विमर्श को बढ़ावा देता रहा है अथवा देह विमर्श को। साहित्य की इतनी लम्बी कड़ी में ऐसे मानवीय सरोकारों के प्रति उसकी चुप्पी क्या साहित्य को कुछ लोगों की रखैल बनाकर रखने की नहीं दिखती। आखिर तुलसीदास ने क्यों लिखा कि- ढोर, गँवार, शूद्र पशु , नारी। ये सब ताड़ना के अधिकारी।। स्पष्ट है कि साहित्य कुछेक लोगों के हाथों का खिलौना बनकर रह गया और इन लोगों ने अपने हित में साहित्यिक सरोकारों की व्याख्या की और उन्हें परिभाषित किया। अन्यथा, यदि साहित्य ने इन मुद्दों को पहले उठाया होता, तो देश से जाति-प्रथा और छुआछूत कब की समाप्त हो गई होती।

दलित एवं नारी विमर्श किया जा सकता है। यथास्थितिवादी विमर्श सामाजिक धरातल, यथार्थ और उनके मन की गहरी संवेदना प्रस्फुटित होती हैं सवर्ण साहित्यकार दलित एवं नारी विमर्श को छोटे-छोटे विमर्श की आड़ में केन्द्रीय विमर्श से भटकाव की संज्ञा देते हैं एवं इसके लिए भोगे हुए यथार्थ को जरूरी नहीं मानते पर यथास्थितिवादी विमर्श के कायल ये सवर्ण साहित्यकार इस तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि मात्र दया और सहानुभूति दिखाकर दलितों के साथ न्याय नहीं किया जा सकता। ऐसा नहीं है कि पुरुष , नारी विमर्श पर एवं सवर्ण, दलित विमर्श दलित साहित्य हेतु जरूरी है कि दलितों की आन्तरिक छटपटाहट को भी उसी रूप में उजागर किया जाय। भोगे हुए अनुभवों की प्रमाणिकता दलित साहित्य को जीवन्त बनाती है। साहित्य में बाल्मीकि, व्यास, रैदास, कबीर, अछूतानन्द की कड़ी में तमाम दलित साहित्यकार, लेखक एवं चिन्तक यदि आज अपनी आवाज मुखर कर रहे हैं, तो इस साहित्य में वे दलितों की आवाज ढूंढ रहे हैं। स्त्री के मजबूरी बने अंतरंग क्षणों को पन्नों पर अपनी कल्पनाओं का रंग देकर उसमें कुछ आधुनिकता उत्तर आधुनिकता कादेह विमर्श का रंग भरकर नारीवादी लेखन का मुलम्मा भरने वाले पुरुषों के विरूद्धनारी विमर्शकी आड़ में महिला साहित्यकार इसलिए आगे रहीं हैं, ताकि नारी को एकवस्तुके रूप में पेश किया जाये। इसी तरह बच्चों के समग्र विकास में बाल साहित्य की सदैव से प्रमुख भूमिका रही है। बाल साहित्य एक तरफ जहाँ मनोरंजन के पल मुहैया कराता है वहीं बाल मनोविज्ञान बाल मनोभाव के समावेश द्वारा सामाजिक सृजन के दायरे भी खोलता है। बाल साहित्य बच्चों को उनके परिवेश , सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं, संस्कारों, जीवन मूल्य, आचार-विचार और व्यवहार के प्रति सतत् चेतन बनाने में अपनी भूमिका निभाता आया है। परन्तु आज बाल साहित्य के क्षेत्र में यह सवाल तेजी से उठने लगा है कि बच्चों की ग्राá क्षमता, मानसिकता और परिवेश में जिस तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं, उनके अनुरूप बाल साहित्य नहीं रचा जा रहा है। ज्यादातर पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों को बाल साहित्य की समझ ही नहीं, और वे जो कुछ छापते हैं, लोग उसे ही बाल साहित्य समझ कर उसका अनुसरण करने लग जाते हैं, जिससे बाल साहित्य की स्तरीयता प्रभावित होती है। इन पत्रिकाओं में बाल साहित्य आधारित दूरदृष्टि सोच का अभाव है। ऐसे में जरूरत है कि बाल साहित्यकार रचनाओं में मनोरंजकता के पुट के साथ सुनिश्चित करें कि उनसे किसी अंधविश्वास , कुसंस्कार, कुरीति अभद्रता को प्रश्रय मिले। यह नहीं भूलना चाहिए कि बच्चे आने वाले कल के कर्णधार हैं और बच्चों को प्राप्त शिक्षा , संस्कार और सामाजिक मूल्य ही कल के राष्ट्र का निर्माण करेंगे। इस क्षेत्र में बाल साहित्य की प्रमुख भूमिका है

साहित्य  पर आज तमाम तरह के संकट मँडरा रहे हैं। समाज की समस्यायें उठाने की बजाय साहित्य अपने ही रूपकों में ढल रहा है, जो कि समाज और साहित्य दोनों के लिए उचित नहीं ठहराये जा सकते। बढ़ती व्यवसायिकता के दौर में पुरस्कारों हेतु साहित्यकारों का राजनीतिकों के पीछे भागना, लिखने की अपेक्षा छपना ज्यादा महत्वपूर्ण होना, रचना किसी की-नाम किसी का, साहित्यिक संस्थाओं की आपसी गुटबन्दी, साहित्यकारों द्वारा एक दूसरे पर कीचड़ उछालना एवं वैयक्तिक और सामाजिक स्तर पर साहित्यकारों द्वारा दोहरा जीवन जीने जैसे तमाम तत्व साहित्य को अवमूल्यन की तरह ले जा रहे हैं। साहित्य सम्राट प्रेमचन्द ने समाज की विसंगतियों पर खूब कलम चलायी एवं तमाम ढपोरसंखियों को उनका असली चेहरा दिखाया। पर यह भी एक सच्चाई है कि प्रेमचन्द ने एक विधवा से शादी कर वाहवाही तो लूट ली पर उसे यह नहीं बताया कि उनकी पहले भी शादी हो चुकी है। यही नहीं जब उनकी दूसरी पत्नी के सामने असलियत उजागर हो गयी तो उनके बार-बार आग्रह के बावजूद भी उन्हें अपनी पहली पत्नी से नहीं मिलवाया। यही बात राहुल सांकृत्यायन के बारे में भी कही जा सकती है कि राहुल पूरी दुनिया घूम आए और तीन शादियाँ की पर अपनी पहली पत्नी को वे घर लौटने पर पहचान भी नहीं पाए...... क्या इन महान विद्वानों साहित्य के प्रतिष्ठित साधकों द्वारा एक तरफ अपने साहित्य में सामाजिक अन्तर्विरोधों और सच्चाइयों को बेनकाब करना और दूसरी तरफ स्वयं के सम्बन्ध में मौन रहना क्या स्वयं में अन्तर्विरोध नहीं है। ऐसे मेें कुछ लोगों के इस कथन से कि नए साहित्यकारों को अनुभव का विस्तृत क्षेत्र तो मिला है परन्तु संवेदनात्मक सहजता और अनुभव के साथ आत्मीयता बनाए रखने का वह गुण विरल हो गया है जो पिछली पीढ़ी के वरि रचनाकारों में था, से सहमति जताना थोड़ा मुिकल लगता है। वस्तुत: समाज में विविधता है और इसी के अनुसार सबकी जीने की परिस्थितियाँ है। जो व्यक्ति जिस माहौल में जीता है, उसके लिए वही यथार्थ है और अन्य घटनाएँ अर्थहीन। परन्तु साहित्य सभी परिस्थितियों को समान भाव से देखता है। ऐसे में जरूरी है कि आज के सामाजिक अन्तर्विरोधों सच्चाइयों के व्यापक परिपेक्ष्य में समकालीन साहित्य का मानवीय संवेदना से गहरा जुड़ाव हो। किसी वर्कशॉप में तैयार किये गए सुन्दर उत्पाद के रूप में गढ़े हुये साहित्य को आज के समाज के प्रतिनिधि साहित्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता।



नई पीढ़ी के साहित्यकार सूचना एवं संचार क्रांति के इस युग में समय का मूल्य भली-भांति समझते हैं और रात भर जागकर पन्ने खर्च करने में विशवास नहीं करते बल्कि अर्थव्यवस्था के नियमों की तरह वह माँग आधारित व्यवस्था में विशवास करते हैं। शायद यही कारण है कि आज लिखने की बजाय छपना ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। कोई यह नहीं पूछता कि आपने अभी तक लिखा कितना है बल्कि सीधा सा सवाल होता है कि आप किन पत्र-पत्रिकाओं में और किन लोगों के साथ छपे हैं। तमाम लेखकीय संगठनों एवं सम्पादकों की भी इस सम्बन्ध में अहम भूमिका है। यही कारण है कि एक साहित्यकार किसी पत्रिका में धड़ल्ले से छपता है पर दूसरी जगह उसकी पूछ ही नहीं होती। स्पष्ट शब्दों में कहें तो रचनाधर्मिता के ऊपर सम्पादक हावी हैं, जो यह निर्णय करते हैं कि पुरातन क्या है और आधुनिक या उत्तर आधुनिक क्या है? इसी फार्मूले पर चलते हुए साहित्यकार भी वही लिखता है जो लोगों को पसन्द आए। नतीजन अपनी संवेदनशीलता और अभिव्यक्ति को अधिक प्रमाणिक बनाने के लिए वह कहानी में अनेक प्रकार के ज्ञान-विमर्श , सामयिक समझदारी को भरकर एक अच्छा- खासा सैण्डविच तैयार करने की कोशिश करता है। एक समालोचक के शब्दों पर गौर करे-"किसी महत्वाकांक्षी चतुर लेखक के पास अनुभूतियाँ नहीं होतीं अथवा वाह्य दबावों या आंतरिक बचावों के कारण वह अपनी सच्ची अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने का साहस नहीं कर पाता, इसलिए अपनी प्रतिभा का सिक्का मनवाने या पाठकों को चौंकाने के लिए वह क्लि और दुरूह या फिर चतुराईपूर्ण और स्मार्ट भाषण का प्रयोग करता है। विदेशी साहित्यिक प्रवृत्तियों से आक्रांत उन्मुक्त लेखन करने वाले युवक लेखकों में भाषणों के इन स्मार्ट प्रयोगों की बहुलता है।" ऐसे में संवेदनात्मक सहजता अनुभवीय आत्मीयता कहाँ से आएगी? यही कारण है कि साहित्य लोकप्रिय होने की बजाय अभी भी जटिल उपमानों और रूपकों में उलझा हुआ है। साहित्य के अधिकतर प्रकाशक सामान्य जन के लिये पुस्तकें नहीं छापते बल्कि सरकारी पुस्तकालयों की खरीद के लिये छापते हैं। जो नामचीन साहित्यकार हैं, उनकी पुस्तकें इतनी मँहगी होती हैं कि सामान्य जन की हैसियत के बाहर हैं। अधिकतर समकालीन साहित्यकार सामान्य जन की बजाय वर्ग वि को ध्यान में रखकर लिख रहे हैं, जो कि स्वयं में एक अन्तर्विरोध है।



किसी भी साहित्यकार के लिए दो बातें महत्वपूर्ण होती है। प्रथमत:, उसका परिवेश और द्वितीयत:, पहचाने जाने की इच्छा। साहित्यकार इन दोनों के अंतर्द्वंदों से जूझता है, क्योंकि वह स्वत: सुखाय नहीं रचता। क्या वरिष्ठ साहित्यकार इससे असहमति जता सकेंगे कि जब वे निर्णयक मण्डल में होते हैं तो अधिकतर ऐसे ही लोगों को क्यों पुरस्कृत करने का फैसला लेते हैं, जो कहीं--कहीं किसी रूप में किसी पत्र-पत्रिका के सम्पादन से जुड़े हुए हैं। इनमें से अधिकतर उनसे किसी किसी रूप में रूबरू हुये रहते हैं। क्या यह माना जाय कि किसी पत्र-पत्रिका से जुड़े रहना एक अच्छा साहित्यकार होने की निाानी है? यही कारण है कि आज साहित्य में जिस तरह सम्मान या पुरस्कार दिये जाते हैं, ज्यादातर अविवसनीय एवं संदिग्ध होते हैं। यह स्वयं मेंाोध का विाय है कि आज पूरे भारतवर्ष में किस साहित्यकार के नाम पर कितने पुरस्कार दिये जा रहे हैं। हाल ही मेंइण्डियन आइडलचुने गए अभिजीत सावंत पर जब एक पुस्तक प्रकाशित की गई तो उसमें उनके जीवन के उन स्याह पक्षों को नहीं बताया गया जब वे इण्डियन आइडल नहीं बने थे, आखिर क्यों? क्या इसलिए कि नायक कभी कमजोर नहीं होता और उसके जीवन में सब कुछ अच्छा ही घटित होना चाहिए। हमारे साहित्यकार भी कहीं कहीं इस अन्तर्विरोध के शिल्पकार हैं और इसीलिए स्वयं की मानवीय संवेदनाओं की बजाय उधार की संवेदनायें उन्हें ज्यादा प्रभावित करती हैं। वस्तुत: आज साहित्य भी आकर्षक पैकिंग के साथ माल के रूप में बाजार में बेचा जा रहा है। अभी कुछ दिनों पहले एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ने युवा केन्द्रित विश्लेषण में एक कहानी प्रकाशित की थी जिसमें नायक जो कि एक छात्र है, को अपनी दूर के रिश्ते वाली बुआ से विशेष लगाव हो जाता है और अन्तत: यह लगाव दैहिक संसर्ग में बदल जाता है। युवा कहानीकार बार-बार अपनी साइकिल और बुआ के रितों को जोड़कर कहानी आगे बढ़ाता है और कहानी के अधिकतर भाग में यह दोहराव ही ज्यादा है। अब यह तो सम्पादकीय मण्डल के सदस्य ही बता पायेंगे कि साइकिल के काले डंडे की बुआ के शरीर के रंग से तुलना करती दैहिक संसर्ग पर खत्म इस कहानी का भावार्थ क्या है। देह विमर्श पर आधारित यह कहानी साहित्यिक संवेदना के किन उच्च स्तरों को जीवन्त रखने का प्रयास है। पत्रिका के पन्ने पलटकर देखा तो उस युवा कहानीकार को उसी पत्रिका के सम्पादन से जुड़ा हुआ पाया। ऐसे में वर्तमान साहित्य की दशा और दिशा का अन्दाजा स्वत: लगाया जा सकता है कि वह किस ओर उन्मुख है। वस्तुत: साहित्य को संवेदना के उच्च स्तर को जीवन्त रखते हुए समकालीन समाज के विभिन्न अंतर्विरोधों को अपने आप में समेटकर देखना चाहिए एवं साहित्यकार के सत्य और समाज के सत्य को मानवीय संवेदना की गहराई से भी जोड़ने का प्रयास करना चाहिये। संवेदना की अपनी परिभाषाएं है जब कोई प्रेमी किसी पर रीझता है तो उसकी अपनी संवेदनायें हैं पर इसके चलते प्रेमिका को परिवार समाज में जो सहना पड़ता है उसकी अपनी संवेदनायें हैं। ये संवेदनायें अन्तर्विरोधी भी हो सकती हैं, इसीलिए यहाँ परसंवेदना के उच्च स्तरवाक्य का इस्तेमाल किया है। जरूरत है कि समकालीन साहित्यकार इस भावना को समझें और बाजारवाद की अंधी दौड़ का अनुसरण करने की बजाय उसके पीछे व्याप्त सच्चाइयों अन्तर्विरोधों को सामने लायें तथा उसका शिल्पकार होने की बजाय एक अच्छे साहित्यकार की भांति स्वयं को उस मानवीय संवेदना से जोड़ने का प्रयास करें। साहित्य का उद्भव ही संवेदनाओं से होता है। यह एक अलग तथ्य है कि कोई संवेदना सुप्त होती है, कोई अर्धविकसित तो कोई पूर्णतया विकसित होती है। संवेदनाओं के इन स्तर के आधार पर ही वर्तमान साहित्य को विभिन्न श्रेणियों में रखा जाता है और संवेदनाओं का यही स्तर साहित्य की दशा और दिशा निर्धारित करता है। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कश्मीरी साहित्यकार डा० रहमान राही के शब्दों में-"साहित्य आदमी को आदमी बनाता है। यही गलत को बदलने का एहसास कराता है। नतीजा यह होता है कि उसका इन्सान के व्यक्तित्व पर पड़ता है। व्यवस्था बदलाव के लिए सियासी नारे की जरूरत नहीं होती, सियासी नारे तो हर साल बदल जाते हैं। जरूरत इन्सान की सोच बदलने की है और साहित्य यह सोच बदलने की काबिलियत रखता है।"  

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12 comments:

रश्मि प्रभा... ने कहा… 28 अप्रैल 2010 को 1:08 pm बजे

किसी भी साहित्यकार के लिए दो बातें महत्वपूर्ण होती है। प्रथमत:, उसका परिवेश और द्वितीयत:, पहचाने जाने की इच्छा। साहित्यकार इन दोनों के अंतर्द्वंदों से जूझता है, क्योंकि वह स्वत: सुखाय नहीं रचता।
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बिल्कुल सही

संगीता पुरी ने कहा… 28 अप्रैल 2010 को 4:43 pm बजे

व्यवस्था बदलाव के लिए सियासी नारे की जरूरत नहीं होती, सियासी नारे तो हर साल बदल जाते हैं। जरूरत इन्सान की सोच बदलने की है और साहित्य यह सोच बदलने की काबिलियत रखता है।
बहुत सारगर्भित बाते कही हैं कृष्‍ण कुमार यादव जी ने .. उनके विचारों को जानना अच्‍छा लगा !!

Amit Kumar Yadav ने कहा… 1 मई 2010 को 2:47 pm बजे

शानदार आलेख..समकालीन समाज में साहित्य की भूमिका को प्रभावी रूप में रेखांकित किया है..के. के. यादव जी को हार्दिक बधाई !!

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा… 1 मई 2010 को 2:53 pm बजे

प्रशासन के साथ-साथ साहित्य के अद्भुत चितेरे भाई कृष्ण कुमार यादव जी का आलेख कई सवाल उठाता है..जिन पर गंभीर मनन की जरुरत है.

Shyama ने कहा… 1 मई 2010 को 3:01 pm बजे

तमाम विमर्शों के मध्य वर्तमान दौर में साहित्य की दशा पर इक जीवंत आलेख..कृष्ण कुमार जी को शुभकामनायें.

बेनामी ने कहा… 1 मई 2010 को 3:06 pm बजे

बेहद प्रासंगिक रचना...बधाई.

Bhanwar Singh ने कहा… 1 मई 2010 को 3:10 pm बजे

समकालीन साहित्यकार इस भावना को समझें और बाजारवाद की अंधी दौड़ का अनुसरण करने की बजाय उसके पीछे व्याप्त सच्चाइयों व अन्तर्विरोधों को सामने लायें तथा उसका शिल्पकार होने की बजाय एक अच्छे साहित्यकार की भांति स्वयं को उस मानवीय संवेदना से जोड़ने का प्रयास करें...Bahut sahi kaha apne KK Ji.

Shahroz ने कहा… 1 मई 2010 को 3:20 pm बजे

समाज की समस्यायें उठाने की बजाय साहित्य अपने ही रूपकों में ढल रहा है, जो कि समाज और साहित्य दोनों के लिए उचित नहीं ठहराये जा सकते.
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आजकल साहित्य भी सुविधाभोगी हो गया है...बेहतरीन प्रस्तुति के लिए के.के. जी व रविन्द्र जी को मुबारकवाद.

Shahroz ने कहा… 1 मई 2010 को 3:22 pm बजे

समाज की समस्यायें उठाने की बजाय साहित्य अपने ही रूपकों में ढल रहा है, जो कि समाज और साहित्य दोनों के लिए उचित नहीं ठहराये जा सकते.
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आजकल साहित्य भी सुविधाभोगी हो गया है...बेहतरीन प्रस्तुति के लिए के.के. जी व रविन्द्र जी को मुबारकवाद.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा… 1 मई 2010 को 3:26 pm बजे

कृष्ण कुमार जी जब लिखते हैं तो खूब प्रखरता से लिखते हैं. यह लेख तो यही कह रहा है..हार्दिक शुभकामनायें.

S R Bharti ने कहा… 1 मई 2010 को 3:34 pm बजे

काफी ज्ञान बढ़ा इस लेख से ...एकदम नए रूप में प्रस्तुत अद्भुत लेख..के.के. यादव साहब का आभार.

editor : guftgu ने कहा… 14 मई 2010 को 12:58 pm बजे

सुन्दर उदाहरणों के साथ यह लेख बड़ा प्रासंगिक व महत्वपूर्ण है. कृष्ण कुमार जी को बधाई !!

 
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