
!!माँ बूढी़ है !!
()डॉ॰ कविता वाचक्नवी
झुककर
अपनी ही छाया के
पाँव खोजती
माँ के
चरणों में
नतशिर होने का
दिन आने से पहले-पहले ;
कमरे से आँगन तक आकर
बूढ़ी काया
कितना ताक-ताक सोई थी,
सूने रस्ते
बाट जोहती
धुँधली आँख, इकहरी काया
कितना काँप-काँप रोई थी।
बच्चों के अपने बच्चे हैं
दूर ठिकाने
बहुओं को घर-बाहर ही से फुर्सत कैसे
भाग-दौड़ का उनका जीवन
आगे-आगे देख रहा है,
किसी तरह
तारे उगने तक
आपस ही में मिल पाते हैं
बैठ, बोल, बतियाने का
अवसर मिलने पर
आपस ही की बातें कम हैं?
और बहू के बच्चों को तो
हर वसंत में माँ की अपने आँगन के अमुवा की बातें
निपट जुगाली-सी लगती हैं
सुंदर चेहरों की तस्वीरें मन में टाँके
किसे भला ये गाल पोपले सोहा करते?
छुट्टी वाली सुबह हुई भी
दिनभर बंद निजी कमरों में
आपस में खोए रहते हैं।
दिनभर भागा करती
चिंतित
इसे खिलाती, उसे मनाती
दो पल का भी चैन नहीं था
तब इस माँ को,
अब फुर्सत में खाली बैठी
पल-पल काटे
पास नहीं पर अब कोई भी।
फुर्सत बेमानी लगती है
अपना होना भी बेमानी
अपने बच्चों में अनजानी
माँ बूढी़ है।
कान नहीं सुन पाते उतना
आँख देखती धुँधला-धुँधला
हाथ काँपते ही रहते हैं
पाँव लड़खडा़ कर चलते हैं
पलकों से नींदें गायब हैं
उभरा सीना पिचक गया है
गालों की रंगत ढुलकी है
होठों की काली सुरखी है
कमर धरा की ओर झुकी है
मिट्टी में अस्तित्व खोजती
बेकल माँ के
मन में
लेकिन
बेटे के मिलने आने की
अविचल आशा
चढी़ हिंडोले झूल रही है,
सूने रस्ते
बाट जोहती
धुँधली आँखों
अपनी ही छाया के
पाँव टोहती माँ के
चरणों में नतशिर होने का
दिन आने से पहले-पहले
!!कीकर!!
बीनती हूँ
कंकरी
औ’ बीनती हूँ
झाड़ियाँ बस
नाम ले तूफान का
तुम यह समझते।
थी कँटीली शाख
मेरे हाथ में जब,
एक तीखी
नोंक
उंगली में
गड़ी थी,
चुहचुहाती
बूँद कोई
फिसलती थी
पोर पर
तब
होंठ धर
तुम पी गए थे।
कोई आश्वासन
नहीं था
प्रेम भी
वह
क्या रहा होगा
नहीं मैं जानती हूँ,
था भला
मन को लगा
बस!
और कुछ भी
क्या कहूँ मैं।
फिर
न जाने कब
चुभन औ’ घाव खाईं
सुगबुगाती
हाथ की
वे दो हथेली
खोल मैंने
सामने कीं
"चूम लो
अच्छा लगेगा"
तुम चूम बैठे
घाव थे
सब अनदिखे वे
खोल कर
जो
सामने
मैंने किए थे
और तेरे
चुम्बनों से
तृप्त
सकुचातीं हथेली
भींच ली थीं।
क्या पता था
एक दिन
तुम भी कहोगे
अनदिखे सब घाव
झूठी गाथ हैं
औ’
कंटकों को बीनने की
वृत्ति लेकर
दोषती
तूफान को हूँ।
आज
आ-रोपित किया है
पेड़ कीकर का
मेरे
मन-मरुस्थल में
जब तुम्हीं ने,
क्या भला-
अब चूम
चुभती लाल बूँदें
हर सकोगे
पोर की
पीड़ा हमारी?
() () ()
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4 comments:
Maarmik Abhivyakti ..
परिकल्पना की मोहक धरती के ये रंग अनमोल हैं.........
निर्मम यथार्थ की इतनी सच्ची और इतनी काव्यमयी अभिव्यक्ति की सराहना के लिये मेरे पास शब्दों का अभाव हो गया है ! बस इतना ही कि आज सुबह सुबह आँखें नम हो गयीं ! बहुत खूब कविता जी ! बधाई !
कविता के अनगिन रंग बिखरे दिख रहे हैं इस परिकल्पना पर !
कविता का रचना-वैवध्य प्रभावित करता है ! हिन्दी चिटठाकारी का एक विशिष्ट नाम है कविता वाचक्नवी ! आभार इस प्रस्तुति के लिए !
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