आकांक्षा यादव हिंदी चिट्ठाकारी के अग्रणी महिला चिट्ठाकार हैं . कॉलेज में प्रवक्ता के साथ-साथ साहित्य की तरफ रुझान. पहली कविता कादम्बिनी में प्रकाशित, तत्पश्चात- साहित्य अमृत,इण्डिया टुडे स्त्री,आजकल, युगतेवर, दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, स्वतंत्र भारत, आज, राजस्थान पत्रिका, इण्डिया न्यूज, उत्तर प्रदेश, गोलकोण्डा दर्पण, युद्धरत आम आदमी, अरावली उद्घोष,प्रगतिशील आकल्प,राष्ट्रधर्म, गृहलक्ष्मी, गृहशोभा, मेरी संगिनी, समकालीन अभिव्यक्ति, सरस्वती सुमन, शब्द, लोक गंगा,आकंठ, सबके दावेदार इत्यादि सहित शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में कविता, लेख और लघुकथाओं का अनवरत प्रकाशन. अंतर्जाल पर अनुभूति, सृजनगाथा, साहित्यकुंज, हिंदीनेस्ट,साहित्यशिल्पी, कलायन, रचनाकार, सार्थक सृजन, इत्यादि पर रचनाओं का प्रकाशन. इनकी प्रखर सृजनशीलता इनकी कविता, लेख, बाल कविताएं व लघु कथा प्रतिविंबित होती है । देश की शताधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं- साहित्य अमृत, कादम्बिनी, इण्डिया टुडे स्त्री, युगतेवर, आजकल, उत्तर प्रदेश , इण्डिया न्यूज, रायसिना, दैनिक जागरण, रा’ट्रीय सहारा, अमर उजाला, स्वतंत्र भारत, राजस्थान पत्रिका, अमर उजाला आदि में इनकी रचनाएँ प्रकाशित है तथा एक दर्जन से अधिक स्तरीय काव्य संकलनों में कविताएं संकलितहै । अंतर्जाल पर सृजनगाथा, अनुभूति, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी , रचनाकार, हिन्दी नेस्ट, ह्रिन्द युग्म कलायन, स्वर्गविभा, कथाव्यथा इत्यादि वेब-पत्रिकाओं पर इनकी रचनाएँ प्रकाशित है . ये शब्द शिखर और उत्सव के रंग ब्लॉग का संचालन करती हैं . ये अनेक साहित्यिक सम्मान से सम्मानित हैं . आजकल ये हैडो, पोर्टब्लेयर, अंडमान व निकोबार द्वीप समूह में रहती हैं .प्रस्तुत है इनकी दो कवितायें -



!! एक लड़की !!


न जाने कितनी बार
टूटी है वो टुकड़ों-टुकड़ों में
हर किसी को देखती
याचना की निगाहों से
एक बार तो हाँ कहकर देखो
कोई कोर कसर नहीं रखूँगी
तुम्हारी जिन्दगी संवारने में
पर सब बेकार
कोई उसके रंग को निहारता
तो कोई लम्बाई मापता
कोई उसे चलकर दिखाने को कहता
कोई साड़ी और सूट पहनकर बुलाता
पर कोई नहीं देखता
उसकी आँखों में
जहाँ प्यार है, अनुराग है
लज्जा है,विश्वास है।





!! २१वीं सदी की बेटी !!
जवानी की दहलीज पर
कदम रख चुकी बेटी को
माँ ने सिखाये उसके कर्तव्य
ठीक वैसे ही
जैसे सिखाया था उनकी माँ ने
पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है
वह उतनी ही सचेत है
अपने अधिकारों को लेकर
जानती है
स्वयं अपनी राह बनाना
और उस पर चलने के
मानदण्ड निर्धारित करना।
() आकांक्षा यादव

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20 comments:

M VERMA ने कहा… 21 अप्रैल 2010 को 9:45 pm बजे

बहुत सुन्दर कविताएँ

रश्मि प्रभा... ने कहा… 22 अप्रैल 2010 को 12:23 am बजे

आकांक्षा जी , बड़ी बारीकी से कल और आज के परिवर्तन को लिखा है, बहुत ही बढ़िया

Sadhana Vaid ने कहा… 22 अप्रैल 2010 को 6:28 am बजे

कितना अच्छा और सच्चा विश्लेषण किया है आपने और कितनी सहजता से अभिव्यक्ति दी है ! अति सुन्दर !

Himanshu Pandey ने कहा… 22 अप्रैल 2010 को 7:47 am बजे

बेहद ूबसूरत कविताएं !आकांक्षा जी की कविताएं सदा ही व्यवस्थित ढंग से रची जाने वा्ली कविताएं होती हैं, समय को अिव्यक्त करती, समय से संवाद करतीं !
इन कविताओं की प्रस्तुति का आभार !

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 3:11 pm बजे

बहुत सुन्दर कविता रची आकांक्षा जी ने. बेबाकी भरी खरी बातें..बेहद पसंद आयीं.

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 3:12 pm बजे

आकांक्षा जी, आपका जीवन परिचय स्वयं में आपकी विलक्षण रचनाधर्मिता का परिचायक है...शुभकामनायें.

Shyama ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 3:17 pm बजे

दोनों कवितायेँ..शानदार. अंतर्मन की सुन्दर अभिव्यक्ति. आकांक्षा यादव जी को हार्दिक शुभकामनायें.

S R Bharti ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 3:28 pm बजे

इक लड़की-बेहद मार्मिक और सत्य के करीब लिखी हुयी है यह कविता, यह दर्पण है हमारे समाज का, हमारे चिंतन का, हमारी पुरूष सोच का, इतना अच्छी और यथार्थ लेखन के लिए आभार
बहुत-बहुत बधाई.

Unknown ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 3:35 pm बजे

आशा और विश्वास की प्रतीक '21वीं सदी की बेटी' कविता आधुनिक सुशिक्षित आत्मनिर्भर नारी के विचारों का सटीक एवं सशक्त प्रतिनिधित्व करती है.Observations सटीक हैं,दृश्यानुभूति एवं वातावरण की ग्राहृाता प्रशंसनीय। बदलते हुए समय में बदलते हुए हालात का अच्छा भाव बिम्ब देखने को मिलता है। इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए आकांक्षा जी को साधुवाद.

Unknown ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 3:36 pm बजे

आकांक्षा जी! ''इक लड़की'' कविता में आपने बहुत सही दास्ताँ पेश की है. दुर्भाग्य से हम अपनी प्रगतिशीलता का कितना भी दंभ ठोंक लें, पर जब विवाह-शादी की बात आती है तो प्रगतिशील समाज भी रुढिवादी हो जाता है.

मन-मयूर ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 3:40 pm बजे

इक्कीसवीं सदी की बेटी की आवाज बुलंद करती एक भावपूर्ण कविता. इस भावपूर्ण कविता हेतु आकांक्षा जी को बधाई.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 3:45 pm बजे

पर उन्हें क्या पता
ये इक्कीसवीं सदी की बेटी है
जो कर्तव्यों की गठरी ढोते-ढोते
अपने आँसुओं को
चुपचाप पीना नहीं जानती है
........Bade uttam bhav hain.21th century ki ladki badal rahi hai.Is kavita hetu badhai !!

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 3:49 pm बजे

बेहद संजीदगी लिए हुये है आकांक्षा जी को'एक लड़की' कविता. हर लड़की को इससे गुजरना पड़ता है या कहें की समाज गुजरने पर मजबूर करता है. इस समाज में पुरुष और नारी सामान रूप से शामिल हैं. जब तक समाज किसी लड़की को एक "उत्पाद" या "गुडिया" की नजर से देखने का ढकोसला बंद नहीं करेगा, तब तक यह कुरीति कायम है.कुछेक लड़कियों ने इसके विरुद्ध हिम्मत भी उठाई है, पर दुर्भाग्यवश उनमें से बहुत कम ही आपने परिवार और परिवेश से सपोर्ट पा सकीं.युवा पीढी को यह संकल्प उठाना होगा की सूरत की बजाय सीरत को महत्व दें.दोनों कवितायेँ उत्तम हैं..जितनी भी प्रशंसा करूँ कम है.

Ram Shiv Murti Yadav ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 3:54 pm बजे

ऐसी चेतना-संपन्न 21वीं सदी की बेटियां ही सामजिक परिवर्तन को दिशा और गति दे सकती हैं। बधाई।

Akanksha Yadav ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 3:57 pm बजे

रविन्द्र जी, ब्लाग उत्सव में मेरी कविताओं के प्रकाशन के लिए आभार !!

Shahroz ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 4:01 pm बजे

बहुत भावपूर्ण कवितायेँ हैं. अच्छा लगा पढ़कर. समाज को राह दिखने का जज्बा है.

KK Yadav ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 4:05 pm बजे

21वीं सदी में जब महिलायें, पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, ऐसे में वर्षों से रस्मो-रिवाज के दरवाजों के पीछे शर्मायी -सकुचायी सी खड़ी महिलाओं की छवि अब सजग और आत्मविश्वासी व्यक्तित्व में तब्दील हो चुकी है। अनचाहे और दहेज़-लोलुभ दूल्हों को लौटाए जाने से लेकर माता-पिता के अंतिम संस्कार से लेकर तर्पण और पितरों के श्राद्ध तक करने का साहस भी इन लड़कियों ने किया है, जिसे महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध माना जाता रहा है। वस्तुत: सामाजिक व धार्मिक रूढ़ियों की आड़ में उन्हें गौण स्थान देना जागरूक महिलाओं के गले नीचे नहीं उतर रहा है। यही कारण है कि ऐसी रूढ़िगत मान्यताओं और परम्पराओं के विरूद्ध बदलाव की बयार चली है. कम शब्दों में अच्छी और सार्थक-सहज अभिव्यक्ति है.दोनों कवितायेँ बेहतरीन हैं.

Bhanwar Singh ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 4:08 pm बजे

अति सुन्दर कविता. सच को आपने जिन शब्दों में उकेरा है, प्रशंशनीय है.

Amit Kumar Yadav ने कहा… 24 अप्रैल 2010 को 4:14 pm बजे

२१वीं सदी का दौर ...हर कुछ खिला-खिला, ताजगी लिए,उल्लास से भरपूर. इस परिवेश में यह कविता कर्तव्यों और अधिकारों के बीच एक दंद भी उत्पन्न करती है. अपने अधिकारों को लेकर आज की युवा नारी काफी सचेत है, तभी तो कभी सोशलाइट लोगों तक सीमित फेमिनिस्म आज नारी-सशक्तिकरण के रूप में धरातल पर उतर आया है.पर इस सशक्तिकरण की आड़ में नारी मोहरा भी बनी है और लोगों ने उसका दुरूपयोग भी किया है....जरुरत है इस दंद के बीच एक सामंजस्य भी कायम किया जाय, तभी २१वीं सदी की बेटी सामाजिक-आर्थिक-पारिवारिक-वैयक्तिक सभी स्तरों पर ज्यादा सशक्त होकर उभर सकेगी.

आकांक्षा जी आप अच्छा लिख रही हैं, सोच में धार है, बरकरार रखें.

editor : guftgu ने कहा… 14 मई 2010 को 12:55 pm बजे

वक़्त बदल रहा है और इसी के साथ कविताओं का रुख भी...ये कवितायेँ उसी की बानगी हैं...शानदार !!

 
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