हिंदी ब्लोगिंग की दिशा-दशा पर सद्भावना दर्पण के संपादक चर्चित व्यंग्यकार-कवि-चिट्ठाकार श्री गिरीश पंकज की दृष्टि -
चिट्ठाकारिता की दशा और दिशा पर एक विनम्र- विमर्श
() गिरीश पंकज ब्लागिंग अथवा चिट्ठाकारिता के समकालीन परिदृश्य पर दृष्टिपात करता हूँ तो यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है, इस नवाचारी माध्यम (म्रीडिया) ने रचनात्मकता के नए सोपान गढ़ दिए है, और अनुभवों के दरीचे खोल कर विश्व-नागरिक को नूतन सूचनाओं से संपृक्त कर दिया है। ब्लॉग से जुड़ने से पहले मै कुछ ही लेखको से परिचित था. कुछ नए लेखको को भी जनता था. लेकिन चिट्ठाकारिता कि अभिनव दुनिया में आने के बाद लगा कि यह तो रचनात्मक ऊर्जा का एक तरह से विस्फोट-द्वार है. सृजन की दुनिया में जुड़ने की ललक से भरे कितने ही चेहरे देख रहा हूँ. ये लोग नयी तकनीक से जुड़ कर अपने अंतस में बसे अपने शिल्पी को लोकव्यापी कर रहे है. यह और बात है कि अभी कुछ लोगों में कथ्य की सघनता-परिपक्वता की कमी है, लेकिन ये लोग सत्संग पा-कर अच्छे लेखक-सर्जक बन सकते है. यह बात समझ लेनी चाहिए कि केवल कलम हाथ में आने भर से कोई लेख नहीं बन सकता, या फिर हम गिटार खरीद कर उसे बजने की कला में पारंगत नहीं हो सकते. यह तभी संभव है जब हम सीखने की ललक से भर उठे. ब्लागिंग अथवा चिट्ठाकारिता का यह नव माध्यम एक बूम की तरह सामने आया है. इस लिए इसकी दिशा को लेकर मै बहुत आश्वस्त हूँ कि आने वाले कल का यह नया मीडिया हमारे विश्व समाज का नया कौटुम्बिक चेहरा पेश करने की ताकत रखता है. ज़रूरत इस बात की है कि हम इसकी दशा को और बेहतर बनाने का सामूहिक प्रयास करें. इधर मै अनेक ब्लागों को देखने की कोशिश करता रहता हूँ, लेकिन जो कुछ देखा, उसके आधार पर यही निष्कर्ष निकाला कि, इस नयी ज्ञान-विज्ञान की सदी में भी मानसिकता वही मध्ययुगीन है. कोई हिन्दू है, इसलिए उसके ब्लाग में हिन्दुव का प्रचार है, कोई मुसलमान है तो अपने धर्म प्रचार कर रहा है. कोई ब्रह्मण है,कोई वैश्य है, कोई किसीऔर जाति या समुदाय का है. सब के सब अपनी जातीय या धार्मिक अस्मिता को लेकर एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाते हैं, मै श्रेष्ठ, हमारी परम्परा ही सबसे बेहतर, इस तरह के हलकेपन से गुंथी मानसिकता के कारण इस नए माध्यम की दिशा विकृत हो रही है. वैसे ऐसे संकुचित मानसिकता वाले ब्लाग कम है,लेकिन एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है. जबकि ब्लागिंग अथवा चिट्ठाकारिता का मतलब है हम विश्व समाज से जुड़ें और नए चिंतन का आगाज करें. ग्लोबल विलेज़ के इस दौर में आत्मकेंद्रित समाज बनाने की मानसिकता नए विश्व में खुद को मध्ययुगीन मानसिकता वाला टुच्चा नागरिक तो बना सकती है, विशाल ह्रदय वाला विश्व-नागरिक नहीं. इसलिये यह ज़रूरी है कि नए ब्लोगर इस दुनिया में आने से पहले अपने बौद्धिक स्तर को ऊंचा उठायें और दुनिया को खूबसूरत बनाने में अपनी अहम् भूमिका निभाएं. हम किसी जाति-धर्मके प्रवाक्ता नहीं. मानवता के पुजारी बनें. यही युग सापेक्ष मांग है. कोई भी नयी तकनीक जब आती है तो उसके साथ विकृतियाँ भी आ जाती है. यह स्वाभाविक है. चाकू सब्जी काटने के काम आता है, लेकिन कोई पागल उसका उपयोग किसी की हत्याके लिए करे तो चाकू की क्या गलती. ब्लागिंग अथवा चिट्ठाकारिता भी एक ऐसा फार्म है जिसके सहारे हम अपना चेहरा बेहतर बनासकते है, तो बिगाड़ भी सकते है. हम अपने ब्लॉग के माध्यम से नायक भी बन सकते है, तो खलनायक भी.
बहुत से चिट्ठाकारों ने कुछ अद्भुत काम किये. कह सकते है कि परमार्थ का पुरुषार्थ किया. सब अपनेअपने स्तर पर महान काम करते रहे. इसी का सुपरिणाम है कि आज हमें अपनी मनचाही सामग्री मिल जाती है. अब मुझे कोई पुराना कर्णप्रिय फ़िल्मी गाना खोजना है, तो वह गूगल में सर्च करने पर तथा किसी न कसी ब्लॉग की पड़ताल करने पर मिल ही जाता है,- दुःख तब होता है जय सुमधुरता की तलाश करते हुए कभी-कभार कर्कशता भी हाथ लग जाती है. मान लीजिये कि मै एक गीत खोजता हूँ, '' कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी'' . वह गीत मिल जाता है. मै उसे डाऊनलोड करके सुनना शुरू करताहू तो पता चलता है, कि 'यू ट्यूब' कोई मोहतरमा महान गायिका होने का भ्रम पाल कर, उपलब्ध साउंड ट्रैक के सहारे अपनी कर्कश आवाज़ भर कर अपना मज़ाक उड़वाने के लिए तैयार बैठी है. इसी तरह कोई गायक महोदय भी अपने को रोक नहीं पाते और किशोर कुमार के गीत का सत्यानाश करते मिल जाते है. अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन तो होना ही चाहिए, लेकिन पहले उसका परिमार्जन तो कर लिया जाये. यही हाल कुछ ब्लागों का भी है. आप साहित्य में रूचि रखते है, यह अच्छी बात है लेकिन अपनी रचना पेश करने के लिए उसे कुछ तराश तो लीजिये. आपके आसपास कोई ठीकठाक लेखक होगा तो उसकी मदद ले लीजिये. मदद नहीं लेनी है. तो कम से कम उन ब्लॉगों को पहले सौ बार पढ़ तो ले जो श्रेष्ठ रचनाये दे रहे है. यह नहीं होना चाहिए कि हमें नयी तकनीक मिली और शुरू हो गए. इन्टरनेट लगा, और ब्लॉग बन गया. शुरू हो गए कुछ भी लिखना. यह कुछभी लिखने के कारण ब्लागर अपनी हंसी उड़वाता है और दूसरे अच्छे ब्लोगों का भी अवमूल्यन करवाता है.इसलिए मुझे लगता है ऐसे ब्लॉगों के कारण ब्लागिंग अथवा चिट्ठाकारिता की दशा कुछ गलत हो रही है. यह दशा सुधर सकती है बशर्ते नए ब्लागर ब्लॉग शुरू करने की हडबडी न करे, और तकनीक की जानकारी के साथ-साथ रचनात्मकता का सलीका भी सीख ले. जिन लोगों ने ऐसा किया है, वे सफल है. कुछ ब्लॉग तो अद्भुत परिकल्पना से संपृक्त है. मैंने पाया है कि कुछ एकदम नए ब्लोगर अच्छालिख रहे है. ब्लाग को मै बाग़ कहता आया हूँ. जैसे बाग में तरह-तरह के फूल खिले होते है, सबकी अलग-अलग खुशबू भी होती है, इसी तरह ब्लागों की भी मनोहारी दुनिया है. कोई कवितायें लिख रहा है, कोई चिंतन दे रहा है, कोई बच्चो के लिए समर्पित है तो कोई वंचितों के लिए रच रहाहै. कोई नयी-नयी तकनीक बता रहा है, तो कोई पुराने फ़िल्मी गीतों को परोस कर मन हर्षित कर रहाहै.कोई अच्छे ब्लॉगों की चर्चाएँ कर रहा है तो कोई हमें इतिहास की रोचक जानकारियाँ प्रदान करने की मेहनत कर रहा है. रवीन्द्र प्रभात जैसे सर्जक का मै यहाँ उल्लेख करना क्क्स्हाहूगा कि उन्होंने मेरे ब्लाग का जिक्र किया और मुझे दशावतार की उपाधि दे दी. इस बात का उल्लेख इसलिए ज़रूरी है कि आज के दौर में जब हर कहीं फिक्सिंग हो रही है. ''मै तेरी गाऊँ तू मेरी गा जैसा वाद चल रहा हो, तब केवल गुणवत्ता के आधार पर किसी ब्लाग का जिक्र करना बेहतर मनुष्य होने का भी परिचायक है. ऐसी सोच ही ब्लागिंग की दशा को दुरुस्त कर सकती है. ऐसे लोग ही चिट्ठाकारिता की दशा को बेहतर बना कर एक निश्चित दिशा प्रदान कर सकते है, लेकिन जो ब्लाग केवल कुंठित भावनाओं का वमन कर रहे है, अपनी बौद्धिक दरिद्रता का प्रदर्शन कर रहे है, जिनके पास न अच्छी भाषा है, न भाव है, वे लोग विकृति ही फैला रहे है. मज़े की बात यह है, कि उन्हें इसका आभाष ही नहीं. वे तो समझ रहे है कि हम बड़ा काम कर रहे है. अपनी ही पीठ ठोकने की आती करने वाल;ऐसे ब्लागरो को अब लोग पहचानने लगे है. हंसते भी है इन पर लेकिन यह बात ऐसे ब्लागरो को भी तो समझ में आये. ब्लाग क्या है, एक नया लोकतंत्र है.अपनी बात कहने का मंच है जैसे नाटक को 'पांचवां वेद' कहा गया, उसी तरह मै ब्लागिंग अथवा चिट्ठाकारिता को 'लोकतंत्र का पांचवां स्तम्भ' मानता हूँ. एक निश्चित औपचारिक परिभाषा देनी हो तो कहा जा सकता है, ब्लागिंग अथवा चिट्ठाकारिता उत्तर संरचनावाद की उपज है और वैयक्तिक अभिव्यक्ति का स्वतन्त्र तकनीकसमृद्ध साधन है. चिट्ठाकारिता मानवीय सर्जना का नवोन्मेष है और आत्माभिव्यक्ति का ऐसा फोरम है जहा, किसी किस्म का बैरियर नहीं है. इस के कारण वे तमाम चीज़े प्रकाश में आ सकी जो तथाकथित मीडिया में छप नहीं सकती थी. इस तरह यह नया मीडिया सूचना-जगत में नयी क्रान्ति का सूत्रपात कर रहा है. इसलिए इसके प्रति हमें ज्यादा सजग हो कर सोचना पड़ेगा. ब्लागिंग का सबसे बड़ा लाभ यही है कि यह हमारी भावनाओं का सहज ही मंच प्रदान करता है. अपने अनुभवों की बात करुँ तो मै दावे के साथ कह सकता हो,कि साहित्य की दुनिया में इतने सालों से जुड़े रहने के बावजूद मै उतनी तेज़ी के साथ अपने शुभचिंतकों से नहीं जुड़ सका था, जितनी तेज़ी के साथ पिछले आठ महीने की चिट्ठाकारिता के कारण जुड़ सका. जब मेरी रचनाये पढ़ कर कोई फोन करता है तो ख़ुशी होती है. नागपुर से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक पर दुनिया के प्रकाशक मेरे मित्र श्री कृष्ण नागपाल ने जब मेरा ब्लाग देखा और मेरी रचनाये पढ़ी तो उन्होंने अपने अखबार में प्रकाशित करना शुरू कर दिया. मेरा मोबाईल नंबर भी दे दिया तो रसिक पाठकों के फोन आने लगे. यह मेरे अपने ब्लॉग के कारण हुआ. इस दृष्टि से कह सकता हूँ, कि ब्लाग के कारण मै लोगो के दिलों तक पहुँच रहा हूँ. ठीक है, धन नहीं मिल रहा, लेकिन लोगो का मन तो मिल रहा है. धन चलाजाता है, लेकिन हम गर किसी के मन में बस जाये तो वह ज्यादा बड़ी कमाई है. इस लिहाज़ से मै कह कह सकता हूँ कि चिट्ठाकारिता ने हमें एक नया सामाजिक आस्वादन भी दिया. अगर यही रफ़्तार रही तो आने वाले समय में अच्छे लेखको को समाज में आदर भी मिलेगा और इनके कारण नए ब्लागरों में भी रचनात्मकता का नूतन भावोदय होगा. यह अच्छे संकेत है कि हमारे ही बीच के कुछ लोग चिट्ठाकारिता की दिशा और दशा पर विमर्श कर रहे है. इन चर्चाओं के माध्यम से ही ब्लागिंग की खराब-सी होती दशा को सुधारा जा सकता है. इन सारे प्रयासों से कुछ बेहतर दिशा मिल सकेगी.
-- गिरीश पंकज
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7 comments:
वाह गिरीश जी वाह। आपने तो बातों ही बातों में खूब उपयोगी सार दे दिय। ब्लॉग को बाग बतलाना - आपके ही बस का है। उसमें फूलों को सुगंध से भर देना - सही रास्ता बतला रहे हैं आप। आपके विचारों से मैं घायल, जी नहीं आपके विचारों का मैं कायल हो गया हूं और रवीन्द्र प्रभात जी के बारे में कुछ भी कहना तो सूर्य से तुलना करना है, वे इस बगिया के सूर्य हैं। ज्यादा तारीफ न हो जाये इसलिए यहीं पर रूकता हूं। पर सच्चाई को भला कौन रोक सका है ?
बहुत सुन्दर लिखा...
गिरीश जी ने कोई कसर नहीं छोड़ी है, एक विस्तृत महत्ता और संभावनाओं को बहुत ही सहजता से कहा है,
रवीन्द्र जी को तो जैसे जैसे हर क्षेत्र में पढ़ रही हूँ, जान रही हूँ, .... एक अलग अनुभव है
चिट्ठाकारिता मानवीय सर्जना का नवोन्मेष है और आत्माभिव्यक्ति का ऐसा फोरम है जहा, किसी किस्म का बैरियर नहीं है.
साथ ही विशेषता है कि यह तीव्र गति धारण करता है. प्रतिक्रियाओं (जिसकी मारामारी ब्लागजगत में सबसे ज्यादा है)की त्वरितता उत्प्रेरक/उर्वरक का काम करती है.
सुधी ब्लागरों एवं पाठको को ब्लोगिग पर मेरे विचार पसंद आये, यह जानकर संतोष हुआ. ब्लोगिंग को भले लोग ही मिल कर अच्छे मुकाम तक ले जा सकते है. अपना पूरा लेख पढ़ कर अब खेद व्यक्त कर रहा हूँ,कि कहीं-कहीं प्रूफ की कुछ गलतियाँ रह गयी है. प्रूफ के बारे में हम लोगों ने पत्रकारिता के एक पाठ में पढ़ा था, कि यह बड़ी शातिर होती है. चीज़ जब छप जाए तो चिढ़ाते हुए कहती है,'' देखो, मैं तो यहाँ हूँ''. मेरा विनम्र अनुरोध है, कि '' परिकल्पना'' में आने वाले भाई,सुधार कर पढ़ लें,
गिरीश जी, एकदम सारगर्भित लिखा है। अभी कुछ देर पहले ही मैंने एक टिप्पणी की थी कि मैं ब्लाग को सामाजिक अध्ययन का प्लेटफार्म मानती हूँ क्योंकि एक लेखक और वक्ता को समाज के अध्ययन की निरन्तर आवश्यकता रहती है तभी तो वह समाज को पुन: लौटाने में समर्थ बन पाता है।
बहुत ही अच्छे विचार हैं गिरीश पंकज जी के .. सचमुच ब्लॉगिंग के फायदे से इंकार तो किया ही नहीं जा सकता .. आवश्यकता है सिर्फ इसके बेहतर प्रयोग करने की !!
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