लेखिका परिचय : निर्मला कपिला पंजाब सरकार के सेहत कल्यान विभाग मे चीफ फार्मासिस्ट के पद से सेवानिवृ्त् होने के बाद लेखन में सक्रीय हुयीं . 1. सुबह से पहले---कविता संग्रह 2. वीरबहुटी---कहानी संग्रह 3. प्रेम सेतु---कहानी संग्रह . अनेक पत्र पत्रिकायों मे प्रकाशन, विविध भारती जालन्धर से कहानी का प्रसारण सम्मान, पँजाब सहित्य कला अकादमी जालन्धर की ओर से सम्मान, ग्वालियर सहित्य अकादमी ग्वालियर की ओर से शब्दमाधुरी सम्मान .शब्द भारती सम्मान व विशिष्ठ सम्मान .देश की 51 कवियत्रियों की काव्य् कृ्ति शब्द माधुरी मे कविताओं का प्रकाशन. कला प्रयास मँच नंगल द्वारा सम्मानित . इसके अतिरिक्त कई कवि सम्मेलनो़ मे सम्मानित .परिकल्पना ब्लॉग विश्लेषण-२००९ में वर्ष के श्रेष्ठ ०९ चिट्ठाकारों में शुमार .संवाद डोट काम द्वारा श्रेष्ठ कहानी लेखन पुरुस्कार .प्रस्तुत है इनकी एक कहानी -
!! सच्ची साधना !!
बस से उतर कर शिवदास को समझ नहीं आ रहा था कि उसके गांव को कौन सा रास्ता मुड़ता है । पच्चीस वर्ष बाद वह अपने गाँव आ रहा था । जीवन के इतने वर्ष उसने जीवन को जानने के लिए लगा दिए, प्रभु को पाने के लिए लगा दिए । क्या जान पाया वह ? वह सोच रहा था कि अगर कोई उससे पूछे कि इतने समय में तुमने क्या पाया तो शायद उसके पास कोई जवाब नही । यूँ तो वह संत बन गया है, लोगों में उसका मान सम्मान भी है, उसके हजारों शिष्य भी है फिर भी वह जीवन से संतुष्ट नहीं है । क्या वह भौतिक पदार्थों के मोह से ऊपर उठ चुका है ? शायद नही ...... आश्रम में उसका वातानुकूल कमरा, हर सुख सुविधा से परिपूर्ण था । क्या काम, कोध्र, लोभ, मोह व अहंकार से ऊपर उठ चुका है ? ... नहीं...नहीं...अगर ऐसा होता तो आज घर आने की लालसा क्यों होती ? आज गांव क्यों आया है ? उसे अपना आकार बौना सा प्रतीत होने लगा । पच्चीस वर्ष पहले जहां से चला गया था वहीं तो खड़ा है । अपना घर, परिवार ..... गांव.... एक नज़र देखने का मोह नही छोड़ पाया है.... आखिर चला ही आया । बच्चों की याद, पत्नि का चेहरा, माँ की सूनी आंखे, पिता की कमजोर काया ..... सब उसके मन में हलचल मचाने लगे थे । आज उसके प्रभू भी उसके मन के आवेग को रोक नही पा रहे थे ....
जहाँ बस से उतरा था वहाँ सड़क के दोनो ओर आधा किलामीटर तक बड़ी-ंउचयबड़ी दुकानें थीं । जब वो वहां से गया था तो यहाँ दो चार कच्ची पक्की दुकानें थी । अब आसपास के गांवों के लिए इस बाजार में से होकर सड़क निकलती थी । 8--10 दुकानों के बाद एक कच्ची सड़क थी ।--- पता नही कहाँ गयी---- किसी से पूछना ही ठीक रहेगा ..... सोचते हुये वो एक दुकान की तरफ बढा---
‘भईया, मेहतपुर गांव को कौन सी सड़क जाती है ? ‘शिवदास ने एक हलवाई की दुकान पर खड़े होकर पूछा । वह पहचान गया था-- कि यह उसका सहपाठी वीरू था । मगर शिवदास अपनी पहचान नही बताना चाहता था । साधु के वेष में लम्बी दाढी, जटाएं कन्धे तक -झूलती हुई , हाथ में कमण्डल .... लामबा सा साधुयों वाला चोला
‘‘वो सामने है बाबा जी ।‘‘ वीरू ने सड़क की तरफ इशारा किया । ‘‘ बाबा कुछ चाय पानी पी लीजिए ।‘‘ वीरू ने सेवा भाव से कहा ‘‘ धन्यवाद भाई, कुछ इच्छा नही ।‘‘ पहचाने जाने के डर से वह आगे बढ गया । मन फिर कसमसाने लगा .... उसे डर किस बात का है ? क्या वह कोई अपराध करके गया है ? ....... शायद चोरी से बुजदिल की तरह घर से भाग गया ...... बीबी, बच्चों का बोझ नही उठा पाया ।
सडक़ पर चलते हुए उसके पाँव भारी पड़ रहे थें । वह किसी भी जगह जीवन से संतुष्ट क्यों नही हो पाता । क्यों भटक रहा है? ... यह तो उसने सोच लिया था कि वह अपने घर नही जाएगा । पहले राम किशन के पास जाएगा, उसके बाद सोचेगा । राम किशन उसका बचपन का दोस्त था। यदि रामकिशन न मिला तो मंदिर में ठहर जाएगा ।
आज यह साँप की तरह बल खाती सड़क खत्म होने को नाम नही ले रही थी । वह अपनी सोच में चला जा रहा था । सड़क खत्म होती ही एक बड़ी सी हवेली थी । वह पहचान गया -\--- ये तो ठाकुर शमशेर सिंह की हवेली है-- .... समय के साथ हवेली भी अपनी जीवन सँध्या में पहँच चुकी थी । आगे बड़े-बड़े, ऊँचे पक्के मकान बन गए थे । गाँव का नक्शा ही बदल गया था । न तालाब .... न पेड़ों के -झुरमुट, न पीपल के आस-ऊँचे से बने चबूतरे .... । गाँव में जिन घने पेड़ों के नीचे चबूतरों पर सारा दिन यार दोस्त इकटठे होते तो कहकहों के स्वर गूँजते , राजनीति पर चर्चा होती । कही ताश के पत्तों के साथ गम बांटा जाता । ऐसा लगता सारा गांव एक ही खुशहाल परिवार है, जैसे इनकी जिन्दगी में कोई चिन्ता ही नहीं---- कि उपर भी जाना है कुछ भगवान का नाम ले लें मगर आज सब कुछ बेजान है ।
उसे रामकिशन का ध्यान आया क्या फक्कड़ आदमी था । आज़ादी के आँदोलन में ऐसा बावरा हुआ न शादी की न घर बार बसाया .... न अपना मकान बनाया बस एक टूटी सी -झोँपड़ी मे ही प्रसन्न रहता । घर रहता ही कितने दिन .... आज़ादी के आँदोलन में कभी जेल तो कभी कहीं चला रहता था । उसे आज भी उसकी दिवानगी याद है ... वह कुछ माह भगत सिंह से साथ भी जेल में रहा था । जब भगत सिंह को फाँसी हुई तों रामकिशन रिहा हो चुका था । भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की फाँसी का उसने इतना दुखः मनाया कि तीन--चार दिन उसने कुछ नही खाया । इस दर्दनाक शहादत ने रामकिशन को अन्दर तक -झकझोर कर रख दिया था । वह अपनी -झोँपड़ी के बाहर चारपाई पर पड़ा, आजादी के, भगत सिंह के गीत गाता रहता । गाँव के लोगों को बच्चों को इकट्ठा कर देश भक्तों की कहानियाँ सुनाता, उनके उपर ढाए गए कहर की गाथाएं सुन के लोग अपने आँसू नही रोक पाते । समय के साथ वह फिर उठा और आंदोलन में सक्रिय हो गया । आज़ादी से संबंधित साहित्य छपवा कर लोगों में बांटता तथा आज़ादी के परवानों के साथ काम करता ।
इस सारे काम के लिए धन अपनी जेब से खर्च करता । काम धन्धा तो कुछ था नहीं, पुरखों की जमीन जो उसके हिस्से में आई थी, उसी को बेचकर रामकिषन अपना खर्च चलाता । देष आजा़द हुआ । रामकिषन की खुषी का ठिकाना नहीं था । अब वह राजनिती में भी सक्रिय हो गया था । उसने उसे भी कई बार अपने साथ जोड़ने का प्रयत्न किया मगर षिवदास का मन कुछ दिन में ही उचाट हो जाता ।
शिवदास मेहनती नही था । बी.ए. करने के बाद उसने कई जगह हाथ पाँव मारे मगर उसका मन किसी काम में न लगता । तो माँ-बाप ने उसकी शादी कर दी । दो--तीन साल बाद पिता जी के साथ दुकान पर बैठने लगा । उसके दो बेटे भी हो गये मगर उसका मन स्थिर न था न ही उसे कठिन परिश्रम की आदत थी । अब दुकान से भी उसका मन उचाट होने लगा ।
उन्ही दिनों गाँव के मंदिर में एक साधु आकर ठहरे । शिवदास रोज िआश्रम को उनकी सेवा के लिए जाने लगा । घर वाले भी कुछ न कहते । उन्हें लगता शायद साधु बाबा ही उसे कोई बुद्धि दे दें । संयुक्त परिवार में अभी तो सब ठीक-- ठाक चल रहा था मगर शिवदास के काम न करने से भाई भी खर्च को लेकर अलग होने की बात करने लगे थे ।
साधु बाबा की सेवा करते--करते वह उनका दास बन गया । अब उसका सारा दिन मंदिर में ही व्यतीत हो जाता । अब घर वालों को चिन्ता होने लगी । पत्नि भी दुखीः थी । वह पत्नि से भी दूर-दूर रहने लगा । वह साधु लगभग छः माह उस गाँव में रहे । उसके बाद अचानक एक दिन चले गए । उन्हें अपने कुछ और भक्त बनाने थे सो बनाकर चल दिए । अब शिवदास उदास रहने लगा । काम धन्धे पर भी नही जाता । उसके भाईयों ने रामकिषन से विनती की कि शिवदास को कुछ समझायें क्योंकि रामकिशन उसका दोस्त था, शायद उसके समझाने से समझ जाए । एक दिन रामकिशन उसके घर पहूँच गया । शिव्वदास अभी मंदिर से आया था । शिवदास ने उसे बैठक में बिठाया और अंदर चाय के लिए आवाज लगाई ।
‘कहो भई शिवदास कैसे हो । सुबह दस बजे तक तुम्हारी पूजा चलती है ?
‘पूजा कैसे, बस जिसने यह जीवन दिया है उसके प्रति अपना फर्ज निभा रहा हूं ।‘
‘वो तो ठीक है मगर मा-बाप,, पत्नि और बच्चों के प्रति भी तो तुम्हारा कर्तव्य है उसके बारे में क्यों नही सोचते ?‘
‘प्रभू है । उसने जन्म दिया है वही पालेगा भी ।‘
शिवदास जो लोग जीवन में संघर्ष नहीं करना चाहते, वही जीवन से भागते है । हमारे शास्त्रों में अनेक ऋषी--मुनि हुए है जिन्होंने अपने पारिवारिक जीवन का निर्वाह करते हुए भगवान को पाया है । कर्म से, कर्तव्य से भागने की शिक्षा कोई धर्म नही देता ।‘
‘देख रामकिशन तू मेरा दोस्त है, तू ही मुझे सच्चे मार्ग से खींच कर मोह माया के -झूठे जाल में फँसाना चाहता है । धर्म का मार्ग ही सत्य है ।‘‘
‘धर्म ? धर्म का अर्थ भी जानता है ?‘
‘वही तो जानना चाहता हूं । यह मेरा जीवन है । मैं अपने ढंग से इसे जीना चाहता हूँ जब मुझे लगेगा कि मैं भटक रहा हूं तो सबसे पहले तेरे पास ही आऊंगा । बस, अब दोस्ती का वास्ता है, मुझे परेशान मत करो ।‘
‘ठीक है भई, तुम्हारी इच्छा, मगर याद रखना भटकने वालों को कभी मंजिल नही मिलती ।" कहकर रामकिशन चले गए ।
इस बात के अगले दिन ही शिवदास घर छोड़कर चला गया था । बहुत जगह उसे खोजा गया मगर कही उसका पता नही चला । तब से शिवदास को भी कुछ पता नही था कि उसके परिवार का क्या हुआ । पच्चीस वर्ष बाद लौटा है । क्यो ? ... वह नही जानता ।
इन्ही सोचों में डूबा शिवदास पगडंडी पर चला जा रहा था कि सामने से एक 25-28 वर्ष का युवक आता दिखाई दिया..... उसका दिल धड़का .... उसका बेटा भी तो इतना बड़ा हो गया होगा .....
बेटा क्या बता सकते हो कि रामकिशन जो स्वतंत्रता सैनानी थे उनका घर कौन सा है ? शिवदास ने पूछा ।
‘रामकिशन ? आप कही गुरू जी की बात तो नही कर रहे ?‘
‘शायद तुम्हारे गुरू हों । उन्होंने शादी नही की, देश सेवा में ही सक्रिय रहे ।‘‘ शिवदास ने कुछ और स्पष्ट किया
‘हां गुरू जी आश्रम में हैं । वहांँ राष्ट्रभक्ति दीक्षाँत समारोह चल रहा है । दाएँ मुड़ जाइए सामने ही आश्रम है । आईए मैं आपको छोड़ देता हूं ।" लड़के ने मुड़ते हुए कहा ।
‘ नही- नही बेटा मैं चला जाऊंगा ।" वह आगे बढ गए और लड़का अपने रास्ते चला दिया । लड़के के शिष्टाचार से शिवदास प्रभावित हुआ । गांँव का लड़का इतना सुसंस्कृ्रत: ....... कैसे हाथ जोड़कर बात कर रहा था । ... यह रामकिशन मुझे नसीहत देता था और खुद गुरू बन गया । क्या इसने भी सन्यास ले लिया ? .... शायद......
जैसे ही शिवदास दाएं मुड़ा सामने आश्रम के प्रांगण में भीड़ जुटी थी । सामने मंच पर रामकिशन के साथ कई लोग बैठे थे । एक दो को वह पहचान पाया । आंगन के एक तरफ लाल बत्ती वाली दो गाड़ियांँ व अन्य वाहन खड़े थे । शिवदास असमंजस की स्थिति में था कि आगे जाए या न जाए----- ,तभी वन्देमातरम के लिए सब लोग खड़े हो गए । वन्देमातरम के बाद लोग बाहर निकलने लगे । शिवदास एक तरफ हट कर खड़ा हो गया । उसने देखा, दो सूटड--यबूटड युवकों ने रामकिशन के पांव छूए और लाल बत्ती वाली गाड़ियों में बैठकर चल दिए । धीरे --धीरे वाकी सब लोग भी चले गए । तभी वो लड़का, जिससे रास्ता पूछा था आ गया ‘ बाबा जी, आप गुरू जी से नही मिले ? वो सामने है , चलो मैं मिलवाता हँ । ‘‘ शिवदास उस लड़के के पीछे--पीछे चल पड़े । रामकिशन कुछ युवकों को काम के लिए निर्देष दे रहे थे । लड़के ने रामकिशन के पाँव छूए ....
"गुरूदेव महात्मा जी आपसे मिलना चाहते है ।" लड़के ने षिवदास की ओर संकेत किया ।‘‘
‘ प्रणाम महाराज ,आईए अन्दर चलते है ।‘‘ रामकिशन उसे आश्रम के एक कमरे में ले गए । ‘‘ काम बताईए ।‘‘
‘यहां नही आपके घर चलते है। ‘‘ शिवदास ने कहा ।
‘कोई बात नही चलो ।‘ कहते हुए वह शिवदास को साथ ले कर आश्रम के पीछे की ओर चल दिए ।
आश्रम के पीछे एक छोटा सा साफ सुथरा कमरा था । कमरे में एक तरफ बिस्तर लगा हुआ था । दूसरी तरफ पुस्तकों की अलमारी थी । बाकी कमरे में साफ सुथरी दरी विछी हुई थी । कमरे के आगे एक छोटी सी रसोई और पीछे एक टायलेट था । शिवदास हैरान था कि जिस आदमी को सारा गाँव गुरू जी मानता था और बड़े--बड़े प्रषासनिक अधिकारी जिसके पांँव छूते हैं और जिसके नाम पर इतना बड़ा आश्रम बना हो वह इस छोटे से कमरे में रहता हो ? इससे बडिया तो उसका आश्रम था । जिसमें भक्तों की दया से आराम की हर चीज व वातानुकूल कमरे थे । उसके पास भक्तों द्वारा दान दी गई गाड़ी भी थी । इतना सादा जीवन तो साधू होते हुए भी उसने नही व्यतीत किया । अंतस में कही कुछ विचार उठा जो उसे विचलित कर गया ................... आत्मग्लानि का भाव । वह साधू हो कर भी भौतिक पदार्थों का मोह त्याग नही पाया और रामकिशन साधारण लोक जीवन में भी मोह माया ये दूर है .... वो ही सच्चा आत्म ज्ञानी है ।
‘महाराज बैठिए, आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ‘‘ उन्होंने बिस्तर पर बैठने का संकेत किया ।
‘मुझे पहचाना नही केशी? ‘‘ शिवदास ने धीरे से पूछा । वो रामकिशन को केशी कह कर ही पुकारा करता था ।
‘‘ बूढा हो गया हूँ । यादाश्त भी कमजोर हो गई है । मगर तुम शिवदास तो नही हो ? रामकिशन ने आश्चर्य से पूछा
‘हां, शिववदास हूँ तेरा दोस्त‘‘ कहते हुए शिवदास की आँखें भर आई
‘शिववदास तुम,?" उन्होंने शिवदास को गले लगा लिया
‘अभी इस राज को राज ही रखना । ‘ शिवदास घीरे से फुसफुसाया
‘‘ठीक है, तुम आराम से बैठो ।‘
‘गुरूदेव, पानी । ‘ उसी लड़के ने अन्दर आते हुए कहा और पानी पिलाकर चला गया ।
‘ ये लड़का बड़ा भला है । सेवादार है ?‘‘ शिवदास से उत्सुकता से पूछा ।
‘यहां मेरे समेत सभी सेवादार है । तुम भी कितने अभागे हो । जिसे बचपन में ही अनाथ कर गए थे ये वही तुम्हारा बेटा कर्ण है ।‘‘
‘क्या ?‘ शिवदास झटका सा लगा । खून में तरंग सी उठी । उसका जी चाहा कर्ण को आवाज देकर बुला ले और गले से लगा ले । उसका दिल अंदर से रो उठा ।
‘ तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे परिवार ने बहुत मुसीबतें झेली हैं। मगर तुम्हारी पत्नि ने साहस नही छोड़ा । कड़ी मेहनत करके बच्चों को पढाया लिखाया और काम पर लगाया। काम अच्छा चल निकला है । रामकिशन उन्हें बच्चों और उनके काम काज के बारे में बताते रहे । पर षिवदास का मन बेचैन सा हो रहा था कि पत्नि कैसी है -वो कैसे इतना कुछ अकेले कर पाई होगी---- मगर पूछने का साहस नही हो रहा था । पूछें तो भी किस मुंह से ...... उस बेचारी को वेसहारा छोड़कर चले गए थे । आज वो फेसला नही कर पर रहा था कि उसने अपना रास्ता चुनकर ठीक किया या गलत और माँ बेचारी---- उसे एक बार देखने का सपना लिए संसार से विदा हो गई..............।
पहले यह बताओ कि तुम बीस--पचीस वर्ष कहाँ रहे ? राम किशन शिवदास के बारे में जानने के उत्सुक थे ।
‘यहां से मैं सीधा उसी बाबा के आश्रम में गया जो हमारे गाँव आए थे । दो वर्ष उनके पास रहा मगर वहाँ मुझे कुछ अच्छा नही लगा । वहां साधु संतों के वेश में निटठले, लोग अधिक थे । मुझे लगा लोग जिस आस्था से साधू संतों के पास आते हैं उस आस्था के बदले उन्हें रोज-रोज़ वही साधारण से प्रवचन, कथाएं आदि सुनाकर भेज दिया जाता है । उन्हें अपने ही आश्रम से बांधे रखने के लिए कई तरह के प्रलोभन, मायाजाल विछाए जाते हैं । मैं भक्ति की जिस पराकाष्टा पर पहूँचना चाहता था उसका मार्गदर्षन नही मिल पा रहा था । साधू महात्मों की सेवा करते करते करते मेरा परिचय कुछ और साधुओं से हो गया । एक दिन चुपके से मैं किसी और संत के आश्रम में चला गया ।
वहां कुछ वेद पुराण आदि पढे महात्मा जी से बहुत कुछ सीखा भी। वो बहुत अच्छे थे। वहाँ मुझे 4-5 साल हो गये थे। माहौल तो इस आश्रम में भी कुछ अलग नही था मगर वहां से एक वृद्ध संत मुझ पर बहुत आसक्ति रखते थे । उन्हें वेदों का अच्छा ज्ञान था मगर आश्रम की राजनीति के चलते ऐसे ज्ञानवान सच्चे संत के पास भी स्वार्थी लोगों की भीड जमा हो जाती है जो उनकी अच्छाई का फायदा उठा कर अश्रम का संचालन करने लगती है। उन्होंने मुझे समझाया कि तुम अपने सच्चे मार्ग पर चलते रहो बाकी भगवान पर छोड़ दो । हर क्षेत्र में तरह-तरह के लोग हं। आश्रम की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कई बार अपने आप से समझौता करना पड़ता है । मैंने बड़ी मेहनत से यह आश्रम बनाया है । मैं चाहता हूं कि अपनी गददी उस इन्सान को दूं जो सच्चाई, ईमानदारी से इसका विस्तार कर सके । मैं चाहता हँ, कि तुम इतने ज्ञानवान हो जाओं कि मैं निष्चिंत होकर प्रभू भक्ति में लीन हो जाऊं । और इसका सारा प्रबन्ध तुम्हारे हाथों सौंप दूँ
उन्होंने मुझे कथा वाचन में प्रवीन किया । मैं कई शहरों में कथा के लिए जाने लगा । मेरे सतसंग में काफी भीड़ जुटने लगी । आश्रम में षिष्य बड़ी गिनती में आने लगे । दान- दक्षिणा में कई गुणा वृद्धि हुई । महात्मा जी नेअपने आश्रम की बागडोर मेरे हाथ मे सौंप दी, और मैं उनकी छत्रछाया मे आश्रम का विस्तार करने लगा। भक्तों में कई दानी लोगों की सहायता से मैंने उस आश्रम में बीस कमरे और बनवा दिए । कुछ कमरे साधू संतों के लिए और कुछ कमरे आश्रम में आने वाले भक्तों के लिए । बड़े महात्मा जी ने मुझे अपना उत्राधिकारी घोषित कर दिया था । धीरे-धीरे आश्रम में सुख सुविधाएं भी बढने लगी । कुछ कमरे वातानुकूल बन गए । आश्रम के लिए दो गाड़ियां तथा दो ट्रक आ गए । अब कई और साधू इस आश्रम की ओर आकर्षित होने लगे । सुख सुविधओं का लाभ उठाने के लिए कई धीरे- धीरे मुझे से गददी हथियाने के षडयन्त्र रचे जाने लगे, बड़े महात्मा जी के कान भरे जाने लगे । कई बातों में बडे़ महात्मा जी और मुझ में टकराव की स्थिती बनने लगी मुझे लगता था कि बीस वर्ष की मेहनत से जो आश्रम मैंने बनाया वह नकारा लोगों की आरामगाह बनने लगा है । मगर महात्मा जी ये सब देख नही पाते लोगों की चाल को समझ नही पाते।
मेरा मन वहां से भी उचाट होना शुरू हो गया । मुझे लगा कि यह आश्रम व्यवस्था धर्म के नाम पर व्यवसाय बनने लगा है । मेरा मन मुझ से सवाल करने लगा कि तू साधु किस लिए बना ? ये कैसी साधना करने लगा ? भौतिक सुखों, वातानुकूल कमरे और गाड़ी से एक संत का क्या मेल जोल है ? चार पुस्तकेंे पढ कर लोगों को आश्रम के माया जाल में बाँध लेते है और कितने निटठले लोग उनकी खून पसीने की कमाई से अपनी रोजी रोटी चलाते है लोग संतों के प्रवचन सुनते है बाहर जाते ही सब भूल जाते है । मैं जितना आत्म चिंतन करता उतना ही उदास हो जाता । मुझे समझ नहीं आता खोट कहाँ है मुझ मे या धर्म की व्यवस्था में । इन आश्रमों को सराय न होकर अध्यात्मिक संस्कारों के स्कूल होना चाहिए था ।
एक दिन अचानक आश्रम में कुछ साधुओं का आपत्तिजनक व्यवहार मेरे सामने आया । जिस साधू का ये कृत्य था वो भी महात्मा जी का खास शिष्य था। अगर मैं शिकायत करता तो भी शायद उन्हें विश्वास न आता। इस लिये मैने वहाँ से चले जाने का मन बना लिया। मैंने उसी समय महात्मा जी के नाम चिटठी लिखकर उनके कमरे में भेज दी जिसमें आश्रम में चल रही विसंगतियों का उल्लेख कर अपने आश्रम से चले जाने के लिए क्षमा माँगी थी । उसी समय मैं अपने दो चार कपड़े लेकर वहाँ आया । अचानक लिए फैसले से मैं ये यह निष्चय नही कर पा रहा था कि मैं कहाँ जाऊं । आखिर रहने के लिए कोई तो स्थान चाहिए ही था । मैं वहां से सीधे अपने एक प्रेमी भक्त के घर चला गया । वो बहुत बड़ा व्यवसायी था । मेरे ठहरने का बडिया प्रबन्ध हो गया । अब मैं सोचने लगा कि आगे क्या करना चाहिए । आश्रमों के माया जाल में फँसने का मन नहीं था । अगर कहीं कोई भक्त एक कमरा भी बनवा दे तो लोगों का तांता लगने लगेगा । और मैं फिर उसी चक्कर मे फंस जाऊँगा--- लोगों के अन्धविश्वासऔर धर्म पर आस्था मुझे फिर एक और आश्रम मे तबदील कर देंगे। दुनियाँ से मन विरक्त हो गया है । मेरे भक्त आजीवन मुझे अपने पास रखने के लिए तैयार है । अभी कुछ तय नही कर पाया हूँ । बस एक बार तुमसे मिलने की इच्छा हुई, घर की बच्चों की याद आयी तो चला आया । यहाँ जाकर सोचँूगां कि आगे कहाँ जाना है ये कहकर शिवदास चुप हो गया ।
‘‘इसका अर्थ हुआ जहाँ से चले थें वही हो । न मोह माया छूटी और न दुनिया के कर्मकाण्ड । अपने परिवार को छोड़कर दूसरों को आसरा देने चले थे उसमें भी दुनिया के जाल में फंस गए । तुमने वेद पुराण पढे वो सब व्यर्थ हो गए । आदमी यहीं तो मात खा जाता है । वह धर्म के रूप को जान लेता है मगर उसके गुणों को नही अपनाता । साधन को साध्य मान लेता है । धर्म के नाम पर चलने वाले जिन आश्रमों के साधु संँतों में भी राजनीति, वैर विरोध गददी के लिए लड़ाई, जमीन के लिए लड़ाई, अपने वर्चस्व के लिए षडयन्त्र, अकर्मण्यता का बोल बाला हो, वह लोगों को क्या शिक्षा दे सकते है ? आए दिन धार्मिक स्थानों पर दुराचार की खबरें, आपस में खूनी लड़ाई के समाचार पढने को मिल रहे हैं । मैं यह नही कहता कि अच्छे साधु सँत नही हैं बहुत होंगे मगर इस व्यवसाय मे सभी मजबूर होंगे । । ऐसे लोगों के कारण ही धर्म का विनाश, हो रहा है । लोगों की आस्था पर कुठाराघात हो रहा है ....।."-- रामकिशन बोल रहे थें ।
‘अच्छा छोड़ो यह विषय । अब अपने बारे में बताओ । तुम भी तो आश्रम चला रहे हो ? शिवदास ने पूछा ।
‘‘ यह आश्रम नही बल्कि एक स्कूल है जहाँ बच्चों को उनके खाली समय में सुसंस्कार तथा राष्ट्र प्रेम की षिक्षा दी जाती है । किसी को इस आश्रम के किसी कमरे में ठहरने की अनुमति नहीं है । मुझे भी नही । मेरी यह कोठरी मेरी अपनी जमीन में है । मेरा रहन--सहन तुम देख ही रहे हो । गाड़ी तो दूर मेरे पास साइकिल भी नही है ।‘‘
‘" तुम तो जानते हो स्वतंत्रता संग्राम में मन कुछ ऐसा विरक्त हुआ, शादी की ही नहीं । आजा़दी के बाद कुछ वर्ष राजनीति में रहा । पद प्रतिष्ठा की चाह नही थी । कुछ प्रलोभन भी मिले मगर मैं कुछ ऐसा करना चाहता था जिससे लोंगों में राष्ट्र प्रेम और भारतीय संस्कारों की भावना जिन्दा रहे । इसके लिए मुझे लगा कि आने वाली पीढियों की जड़ें मजबूत होगी, संस्कार अच्छे होंगे तभी भारत को दुनिया के शिखर पर देखने का सपना पूरा होगा । इस सपने को पूरा करने के लिए मैंने सबसे पहले अपने गाँव को चुना । अगर मेरा यह प्रयोग सफल हुआ तो और जगहों पर भी लोगों द्वारा ऐसे प्रयास करवाए जा सकते हैं ।"
"मेरे पास मेरी - इस झोंपडी के अतिरिक्त पँद्रह कनाल जमीन और थी जो मेरे बाप दादा मेरे नाम पर छोड़ गए थे । मैंने दो कनाल जमीन बेचकर कुछ पैसा जुटाया और आठ कनाल जमीन पंचायत के नाम कर दी । पंचायत की सहायता से एक कनाल जमीन पर चार हाल कमरे बनवाए । वहाँ मैं सुबह शाम गाँव के बच्चों को इक्ट्ठा करता । गाँव के कुछ युवकों की एक संस्था बना दी जो बच्चों को सुबह व्यायाम, प्रार्थना, खेलकूद तथा राष्ट्र प्रेम और सुसंस्कारों की षिक्षा दें । धीर धीरे यह सिलसिला आगे बढा। गाँव के लोग बच्चों की दिनचर्या और आचरण देखकर इतने प्रभावित हुए कि बड़े छोटे सब ने उत्साह पूर्वक इसमें सहयोग किया । बच्चों को हर अपना कार्य स्वयं करने का प्रषिक्षण दिया जाता । आश्रम की बाकी जमीन में फल-सब्जियाँ उगाए जाते इसके लिए बच्चों में सब को एक-एक क्यारी बाँट दी जाती । जिस बच्चे की क्यारी सब से अधिक फलती फूलती उसे ईनाम दिया जाता । इससे बच्चों में खेती बाड़ी के प्रति रूची बढती और मेहनत करने का जज्बा भी बना रहता । फसल से आश्रम की आमदन भी होती जो बच्चों पर ही खर्च की जाती । आश्रम मे पाँच दुधारू पशू भी है जिनका दूध बच्चों को ही दिया जाता है । पूरा गांव इस आश्रम को किसी मंदिर से कम नही समझता । गाँव के ही शिक्षित युवा बच्चों को मुफ्त टयूषन पढाते हैं। खास बात यह है कि इस आश्रम में न कोई प्रधान है न नेता, न कोई बड़ा न छोटा । सभी को बराबर सम्मान दिया जाता है । इसके अन्दर बने मंदिर में जरूर एक विद्धान पुजारी जी रहते हैं जो बच्चों को वेदों व शास्त्रों का ज्ञान देते है । हर धर्म में उनका ज्ञान बंदनीय है । जब तक ज्ञान के साथ कर्म नहीं होगा तब तक लोगों पर प्रभाव नहीं पडता, सुधार नही होता । इसलिए अध्यात्म, योग, संस्कार ज्ञान विज्ञान की शिक्षा के साथ साथ कठिन परिश्रम करवाया जाता है ।"
पाँच छः वर्षों में इस आश्रम की ख्याति बढने लगी । सरकारी स्कीमों का लाभ बच्चों व गाँव वालों को मिलने लगा । आस पास के गाँव भी इस आश्रम की तर्ज पर काम करने लगे हैं इस गाँव का अब कोई युवा अनपढ नही है, नशाखोरी से मुक्त है । इन पच्चीस वर्षों में कितने युवक -युवतियाँ पढ लिखकर अच्छे पदों पर ईमानदारी से काम तो कर ही रहें हैं । साथ-साथ जहाँ भी वो कार्यरत है वहीं ऐसे आश्रमों की स्थापना मे भी कार्यरत हैं । अगर हर गाँव -ेऔर शहर में कुछ अच्छे लोग मिलकर ऐसे समाज सुधारक काम करें तो भारत की तसवीर बदल सकते है ं । आज बदलते समय के साथ कर्मयोग की षिक्षा का महत्व है । अगर शुरू से ही चरित्र निर्माण के लिए युद्धस्तर पर काम होता तो आज भारत विष्व गुरू होता । जरूरत है उत्साह, प्रेरणा और दृढ निष्चय की । बस मुझे इस मशाल को जलाए रखना है, जब तक जिन्दा हूँ । इसके लिए हर विधा में अन्तर्राजीय प्रतिस्पर्धाएँ हर वर्ष करवाई जाती हैं जिसका खर्च लोग, पंचायतें व सरकार के अनुदान से होता है ।" राम किषन की क्राँति गाथा को शिवदास ध्यान से सुन रहे थें ।
शाम के पाँच बज गए थे । रामकिशन उठे "शिवदास तुम आराम करो मैं बच्चों को देखकर और मंदिर होकर आता हूं । शिवदास ने दूध का गिलास गर्म करके उसे दिया और अपना गिलास खाली कर आश्रम की तरफ चले गए । शिवदास के आगे रखी फलों की प्लेट वैसे की वसे पड़ी थी । राम किशन के जोर देने पर उन्होंने दो केले खाए और लेट गए ।
लेटे-लेटे शिवदास आत्म चिंतन करने लगा । उन्हें लगा कि साधु बन कर उन्होंने जो साधना की है उसका लाभ लोगों को उतना नही मिला जितना रामकिशन की साधना का फल लोगों को मिला है । रामकिशन के व्यक्तित्व के आगे उन्हें अपना आकार बौना लगने लगा ।म न अशाँत हो गया । दोनों ने त्याग किया मगर रामकिशन का त्याग, कर्मठता, मानवतावादी आदर्ष उन्हें साधु-संतों के आचरण से ऊँचे लगे । वो तो मोह माया के त्याग की केवल शिक्षा ही देते हैं और खुद भक्तों के धन से अपने भौतिक प्रसार में ही लगे रहे । आत्मचिन्तन में एक घंटा कैसे बीत गया उल्हें पता ही नही चला । तभी रामकिशन लौट आए । आते ही उन्होंने रसोई में गैस जलाई और पतीली में खिचड़ी पकने के लिए रख दी ।
शिवदास तुम हाथ मूंह धोलो तुम्हारा खाना आता ही होगा ।‘‘रामकिशन बोले
आठ बजे वही लडका कर्ण खाना लेकर आ गया । वह बर्तन उठा कर खाना डालने लगा था कि रामकिशन ने रोक दिया ।
‘‘ तुम जाओ मैं डाल लूँगा । रामकिशन ने उसे जाने के लिये कहा।
‘‘ गुरू जी, माँ ने कहा है कि आप भी खीर जरूर खाना, हवन का प्रसाद है । कर्ण ने जाते हुए कहा ।
‘‘ठीक है, खा लँूगा । वो हंस पड़े । हर बार जब खीर भेजती है तो यही कहती है ताकि मैं खा लूँ ।
रामकिशन ने नीचे दरी के उपर एक और चटाई बिछाई, दो पानी के गिलास रखें और दो थालियों में खाना डाल दिया। एक मे सब्जी, दाल, दही तथा खीर थी दूसरी मे खिचडी । शिवदास चटाई पर आकर बैठ गए तो राम किषन ने बड़ी थाली उसके आगे सरका दी ।
‘‘ यह क्या ? तुम केवल खिचड़ी खाओगे ?‘‘
‘‘ हाँ, में रात को फीकी खिचड़ी खाता हूँ। ‘‘
‘‘ मैं भी यही खिचड़ी खा लेता ।‘‘
‘‘ अरे नहीं .... बड़े-बडे भक्तों के यहाँ स्वादिष्ट भोजन कर तुम्हें खिचड़ी कहाँ स्वादिष्ट लगेगी । फिर मैं किसी के हाथ से खाना बनवा कर नही खाता । अपना खाना खुद बनाता हूँ । मगर क्या तुम अपनी पत्नि के हाथ का बना खाना नही खाओगे ?‘‘
‘‘ पत्नी के हाथ का ?‘‘
‘‘ हां, जब भी मेरा कोई मेहमान आता है तो भाभी ही खाना बनाकर भेजती है ।‘‘
शिवदास के मन में बहुत कुछ उमड़ घुमड़ कर बह जाने को आतुर था । क्या पाया उसने घर बार छोड़कर ? शायद इससे अधिक साधना वह घर की जिम्मेदारी निभाते हुए कर लेता या फिर शादी ही न करता .... एक आह निकली । पत्नी के हाथ का खाना खाने का मोह त्याग न पाया .....वर्षों बाद इस खाने की मिठास का आनन्द लेने लगा ।
खाना खाने के बाद दोनों बाहर टहलने निकल गए । रामकिशन ने उसे सारा आश्रम दिखाया । रात के नौ बज चुके थे । बहुत से बच्चे अभी लाईब्रेरी में पढ रहें थे । दूसरे कमरे में कुछ बच्चों को एक अध्यापक पढा रहे थे । वास्तव में रामकिशन ने बच्चों व युवकों के सर्वांगीण विकास व कर्मशीलता का विकास किया है। वह प्रशसनीय कार्य है।
साढे नौ बजे दोनो कमरे में वापिस आ गए । रामकिशन ने अपना बिस्तर नीचे फर्ष पर लगाया और पुस्तक पढने बैठ गए ।
‘‘तुम उपर बैड पर सो जाओ, मैं नीचे सो जाता हूंँ ।‘‘ रामकिशन बोले,
" नहीं नहीं, मैं नीचे सो जाता हूँ" शिवदास ने कहा
" नही शिवदास मैं रोज़ नीचे ही सोता हूँ। तुम्हें आदत नही होगी आश्रम मे तो गद्देदार बिस्तर होंगे।"
सच में रामकिशन हर बात में उससे अधिक सादा व त्यागमय जीवन जी रहा है । मैने तो भगवें चोले के अंदर अपनी इच्छाओं को दबाया हुआ है मगर रामकिशन ने सफेद उज्जवल पोषाक की तरह अपनी आत्मा को ही उज्जवल कर लिया है ।
‘‘ अब तुम्हारा क्या प्रोग्राम है ?‘‘
‘‘प्रोग्राम?‘‘ वह सोच से उभरा.....‘‘ कुछ नही। कल चला जाऊँगा ।‘‘
‘यहीं क्यों नही रह जाते ? मिल कर काम करेंगे ।‘‘
‘‘ नही दोस्त, मैं अपने परिवार को कुछ दे तो न सका अब उन्हेने स्वयं अर्जित सुख का सासँ लिया है उसमें खलल नहीं डालूँगा, उनकी शाँति भंग नही करूँगा । किस मुँह से जाऊँगा उनके सामने? जाने -अनजाने किए पापों का प्रायष्चित करना चाहता हूँ । याद है मैने तुमसे कहा था कि जब जीवन को समझ न पाऊँगा तो तुम्हारे पास ही आऊँगा । जो कुछ मैं इतने वर्षों मे न सीख पाया वह आत्मबोध वो ग्यान मुझे तुम्हारा जीवन देखकर मिला है । मैं तो योगी बनने का कर भगवान को याद करता रहा मगर उनके उद्देश्य को भूल गया और साधु वाद के मायाजाल में फँसा रहा या यूँ कहें कि जहाँ से चला था वहीं खडा हूँ।
‘‘लेकिन तुम जाओगे कहाँ ? आश्रम भी तुमने छोड़ दिया है ? जीवन - यापन के लिए भी तुम्हारे पास कुछ नही ।‘‘
‘‘ तुम से जो कर्मशीलता और आत्मबल की सम्पति लेकर जा रहा हूँ उसी से तुम्हारे अभियान को आगे ले जाऊँगा । इस दुनियाँ में अभी बहुत अच्छे लोग है जो मानवता के लिए कुछ करना चाहते हैं, उनकी सहायता लँूगा ।‘‘
बातें करते-करते दोनो कुछ देर बाद सो गए । सुबह तीन बजे ही शिवदास की आँख खुली । वह चुपके से उठा नहा-धोकर तैयार होता तो राम किशन की आँख खुल जाती । वह रामकिशन के उठने से पहले निकल जाना चाहता था । एक बार उसका मन हुआ कि अगर आज रूक जाए तो किसी बहाने अपनी पत्नि और छोटे बेटे को भी देख लेता ...... मगर उसने विचार त्याग दिया... यह तड़प ही उसकी सजा है.... । उसने चुपके से अपना सामान उठाया और धीरे से दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया
बाहर खुले आसमान चाँद तारों की -झिलमिल रोशनी में वह पगडण्डी पर बढा जा रहा था । पाँव के नीचे पेड़ों के -झडे सूखे पत्तों की आवाज आज उसे संगीतमय लगी । इस धुन से उसके पैरों में गति आ गई ... और वह अपने साधना के उज्जवल भविष्य के कर्तव्य-बोध से भरा हुआ चला जा रहा था ..... सच्चा साधू बनने ---- सच्ची साधना के लिये।
-------- समाप्त
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‘‘ तुम से जो कर्मशीलता और आत्मबल की सम्पति लेकर जा रहा हूँ उसी से तुम्हारे अभियान को आगे ले जाऊँगा । इस दुनियाँ में अभी बहुत अच्छे लोग है जो मानवता के लिए कुछ करना चाहते हैं, उनकी सहायता लूंगा ।‘‘
बहुत ही गंभीर कहानी है ....धन्यवाद निर्मला जी
बहुत खूब, बहुत सुन्दर ....पढ़कर आनंद आ गया !
यह गीत याद आ गया......
'जग से चाहे भाग ले कोई, मन से भाग न पाए'
आभार इस खुबसूरत कहानी के लिए !
मन के सत्य का बोध कराती कहानी।
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