वेदना की अनुभूति न होती तो शायद संसार का कोई भी काव्य इतना समृद्ध न होता। वह दर्द ही था, तड़प ही थी, जिसने तमसा नदी के तट पर संसार के सबसे पहले काव्य को जन्म दिया- "शोकः श्लोकत्वम आगतः"। जब दो आंखें संसार को पूरा-पूरा देखने में असमर्थ साबित होती हैं तब ये दर्द ही है जो तीसरी आंख देता है-एक ऐसी अंतर्दृष्टि जो जीवन के गहनतम रहस्यों का अनावरण करते चलती है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कविवर पंत क्यों वियोगी को आदिकवि मानते हैं- वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। उमड़कर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान॥ वस्तुतः, जीवन में प्रेम को जन्म देना हो, सौंदर्य को जन्म देना हो या आनंद को जन्म देना हो, तो, प्रसव-पीड़ा के दर्द से गुजरना पहली शर्त है। संसार अमृत देगा यह तो सुनिश्चित नहीं पर कदम-कदम पर विष दे इस बात की पूरी-पूरी संभावना है। इसलिये कवि को "नीलकंठ" बनने की साधना करनी ही पड़ती है। इस तरह वो दर्द के सागर मंथन से निकला काव्यामृत तो जग को न्योछावर कर देता है जबकि गरलपान स्वयं अपने तक ही सीमित रखता है। "सर्वे भवंतु सुखिनः"-सबको सुखी देखने के लिये उसने खुद नानाविध कष्ट सहे लेकिन सुख की नींद सोते-सोते कालांतर में लोग भूल ही गये कि उन्हे उठना भी है, जागना भी है। और फ़िर इसकी परिणति ये हुई कि जो भी मीठे सपने बेचता है उसकी दुकान खूब चलती है क्योंकि सपने नींद जारी रखने में सहायक होते हैं। ऐसे कठिन समय में ये जरूरी हो गया कि कोई आगे आये और सोते लोगों को नींद से उठाये। बहुत संभव है कि लोग बौखलायें, अपमान करें, अनादर करें। फ़िर भी साहसपूर्वक एक कवि ऐसा करने की भीष्म-प्रतिज्ञा लेता है और दर्द बेचने निकल पड़ता है। ये जानते हुये भी कि ये राह फूलों की राह नहीं अपितु कंटक-पथ है। दर्द बेचने निकले श्री पंकज सुबीर को कौन खरीददार मिलता है ये एक यक्ष-प्रश्न है जिसका उत्तर सिर्फ़ समयरूपी युद्धिष्ठिर ही दे पायेगा।प्रस्तुत है श्री पंकज सुबीर जी की कविता दर्द बेचता हूँ मैं उनकी आवाज़ में - (आलेख प्रस्तुति : रविकांत पांडे द्वारा )
पुन: परिकल्पना पर वापस जाएँ
पुन: परिकल्पना पर वापस जाएँ
13 comments:
कवि को "नीलकंठ" बनने की साधना करनी ही पड़ती है - इसे मैंने जाना समय के साथ पन्त, दिनकर,
निराला, प्रसाद , नीरज, महादेवी, जैसे लोगो की कविताओं के मध्य से गुजरते हुए. बीच में अचानक इस साधना
में विराम हुआ, पर उन्होंने जन्म लिया कई नामों में खुद को साधित किया, जिसमें एक नाम पंकज सुबीर जी का भी
है ;
दर्द की खरीद फरोख्त ज़िन्दगी को तराशती है, पंकज जी ने बहुतों को तराशा है...शुभकामनायें
बहुत हृदयस्पर्शी गीत है दर्द बेचता हूँ...पंकज सुबीर जी को बधाई
पहली बार सुना है, जाना कि दर्द में भी मिठास हो सकती है।
बहुत खूब..उत्सव अपने शवाब पर है...बधाइयाँ !!
गुरुवर के मधुर गीत ने समा बाँध दिया है .... ये उत्सव ग़ज़ब की दिशा ले रहा है ..
रविकान्त जी के भूमिका-आलेख को पढ़ने के बाद इस कविता को सुनना और भी प्रीतिकर है ! अत्यन्त मूल्यवान गीत की प्रस्तुति ! पंकज जी को पहली बार सुनना भी इस उत्सव का ऋण है मेरे ऊपर ! आभार !
इस तरह की कविता का अलग महत्व है, यह हमारे सोंदर्यबोध को धक्का गेती है, उसे तोड़ती है। इसीलिए ऐसी कविताओं का अपना एक अलग महत्व है।
सुबीर की लेखनी के आगे तो मेरे शब्द ही स्माप्त हो जाते है
इतनी गहरी संवेदनायें शब्दों मे ढालने की कला कोई सुबीर से सीखे। इस पर आवाज इतनी कर्ण्प्रिय है कि रचना को सजीव कर देती है सुन्दर गीत के लिये सुबीर को बधाई आपका धन्यवाद।
aise karyakram se apsi bhaichargi ke sath sath lekhkiye mitrata bhi badhti hai aur kuch sikhne samjhne ka suawsar bhi prapt hota hai.
is mahotsaw ki saflta ke leye hardik mangal kamnayen. aur mahotsaw men lage mitron ko hardik badhai
Arun kumar jha
www.drishtipatmagazine.blogspot.com
www.drishtipat.com
आनन्द आ गया पंकज मास्साब की आवाज में उम्दा काव्यपाठ सुन कर. रविकान्त जी की भूमिका भी बहुत पसंद आई.
दर्द भरी फिर भी बहुत सुन्दर रचना और वैसा ही मधुर गायन!
गुरुदेव की आवाज़ में अद्भुत गीत और रवि द्वारा किया गया वर्णन....अहहः...आनद नहीं तो और क्या आएगा...धन्य हुए हम...
नीरज
अद्भुत रचना ! पंकज जी को बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएं .....
---डा.रमा द्विवेदी
एक टिप्पणी भेजें