श्री प्रमोद ताम्बट मूलत: लेखक और व्यंग्यकार हैं। इनके व्यंग्य व व्यंग्यलोक नामक दो व्यक्तिगत ब्लॉग है। इन ब्लॉगों के अलावा भोपाल एवं देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनके आलेख व व्यंग्य प्रकाशित होते रहते हैं। प्रस्तुत है हिंदी ब्लोगिंग के संबंध में इनका उद्देश्यपूर्ण आलेख-
आलेख :
ब्लॉगिंग को परिवर्तन के हथियार के रूप में ढालने की ज़रूरत है....
बाज़ारवाद के इस निर्मम दौर में जब लोकतंत्र का चौथा खंबा कही जाने वाली पत्रकारिता और मीडियामंडी बड़े-बड़े कार्पोरेट घरानों के हाथों की कठपुतली बनी, दंभपूर्ण बुद्धिजीविता के शिकार पत्रकार-मीडियापुरुषों से घिरी हुई है, ब्लॉगजगत मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों के बीच एक किस्म के लोकतांत्रिक स्तंभ के रूप में उभरकर सामने आने की कोशिश कर रहा है, जिसे, यदि चौथे खंबे को कोई ऐतराज़ ना हो तो, बिलाशक पाँचवे खंभे की उपमा दी जा सकती है। हालाँकि यह सच है कि जनसंख्या के लिहाज़ से 'लोक' के पास इस आधुनिक चेतना और सुविधा का, जिसमें कम्प्यूटर नामक एक महँगा यंत्र और इंटरनेट सुविधा आवश्यक रूप से जुड़े हुए हैं, अभाव है, लेकिन फिर भी पत्र-पत्रिकाओं और मीडिया में स्पेस और समय के अभाव में उपेक्षित पड़े रचनाशीलता से लबरेज़ हज़ारों प्रतिभावान सृजनधर्मी महिला-पुरुषों के लिए ब्लॉगजगत अभिव्यक्ति के एक लोकप्रिय माध्यम के रूप में उभरकर सामने आता चला जा रहा है।
हालाँकि ब्लॉगिंग अब भी एग्रीगेटरों के सामूहिक प्लेटफार्म और सर्च इंजनों के भरोसे ही चल रही है फिर भी रोज़ाना लगने वाली पोस्टों और सर्च के आँकड़ों से यह पता लगता है कि बड़ी तादात में लोग तकनीक के इस माध्यम को पसंद कर रहे हैं और सिर्फ इसी वजह से ब्लॉगिंग का महत्व अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों से बिल्कुल भी कम नहीं आंका जा सकता जिसकी कोशिशें उच्च प्रबुद्ध साहित्यिक तबके की ओर से लगातार चल रही है।
मेरे मत में ब्लॉग जगत की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह विरोधाभासों और टकराहटों से युक्त हर तरह की विचारधाराओं और विधाओं के लिए एक निरपेक्ष प्लेटफार्म सा है। किसी विशाल पुस्तकालय में तो फिर भी पूर्वाग्रहग्रस्त नीतिगत दादागिरी के चलते ठेठ विरोधी विचारधाराओं का साहित्य नदारद मिल सकता है, लेकिन यहाँ इस प्रकार का कोई पूर्वाग्रह थोपा नहीं जा सकता है। किसी भी तरह की एकाकी प्रतिबद्धता अथवा राजनैतिक गुटबंदी से मुक्त इस स्थली पर दरअसल देखा जाए तो अभिव्यक्ति की विभिन्न विधाओं के ज़रिए विचारधाराओं का एक सत्संग अथवा शास्त्रार्थ सा चलता रहता है, जिसका माध्यम विभिन्न एग्रीगेटर बनते हैं। किसी ब्लॉग में अभिव्यक्त विचारों को पढ़ना या ना पढ़ना ब्लॉग प्रेमियों की अपनी पसंद-नापसंद और इच्छा पर निर्भर करता है लेकिन ऐसा नही है कि किसी विचारधारा विशेष की अभिव्यक्ति के लिए यहाँ कोई घोषित किस्म की पाबंदी लागू हो। ऐसे में विचारों के आपसी संघर्ष के ज़रिए 'सत्य' के लिए जगह बनाने का इससे अच्छा माध्यम और क्या हो सकता है। अभिव्यक्ति के अन्य सभी माध्यम पूँजीवादी घरानों और उनकी सत्तामार्गी विचारधारा विशेष के 'माइक' होने के कारण एक ही सुर में आलापते हुए खुद भी गुटों में बँटे हुए नज़र आते हैं और इनके सायास प्रयत्नों के चलते जनसाधारण भी वैचारिक स्तर पर आपस में बँटा हुआ आचरण करता प्रतीत होता है।
ब्लॉग जगत एक ऐसा प्लेटफार्म है जहाँ तमाम विरोधों के बावजूद नामी-दामी बुद्धिजीवी साहित्यकार भी आने का मोह छोड़ नहीं पा रहे हैं। नौसीखिएँ लिख्खाड़ भी अपने दूध के दाँत यहीं आकर मजबूत कर रहे हैं। यहाँ संघवालों को भी खुली छूट है कि वे अपने राष्ट्रवादी विचारों को प्रचारित करें और वामपंथियों को भी मार्क्सवाद का झंडा फहराने की इजाज़त है, दलित भी यहाँ अपनी आवाज़ स्वतंत्रतापूर्वक उठा सकते हैं, ब्राम्हण-मनुवादी भी अपनी भड़ास निकाल सकते हैं। जात, पात, भाषा, प्रांत के बंधन से मुक्त हर प्रकार का विचार यहाँ स्वतंत्रतापूर्वक अपनी दस्तक दे सकता है। हिन्दी ब्लॉगों पर ही नहीं बल्कि अन्य भाषाओं के ब्लॉगों पर भी सृजनप्रेमी पूरी शिद्दत से कार्टून, कविता, कहानी, व्यंग्य, ग़जल, रिपोर्ताज, यात्रा वर्णन, यहाँ तक कि पूरा का पूरा उपन्यास लेकर भी उपस्थित हैं। कई ब्लॉगों में देशभर में स्थानीय स्तर पर चल रहीं गतिविधियों, सत्ता संस्थानों में चल रही हलचलों, कला-संस्कृति के क्षेत्र की घटनाओं आदि की एकदम ताज़ा-ताज़ा रिपोर्टिंग भी देखी जा सकती है। तू-तू मैं-मैं गाली-गलौज, टाँग खिचाई, वस्त्रलोचन, आदि-आदि का 'रचनात्मक' कार्यक्रम भी खूब चलता रहता है। तंत्र-मंत्र, ज्योतिष, गंडा-ताबीज से लेकर धार्मिक विचारों और घृणा का प्रचार-प्रसार भी यहाँ जोर-शोर से किया जाता रहता है। अभिव्यक्ति की ऐसी स्वतंत्रता दूसरे किसी माध्यम में उपलब्ध नहीं है। देखा जाए तो यह घातक भी है और फायदेमंद भी। जहाँ विचारों के प्रदूषण से पीढ़ियों का भविष्य बिगाड़ने की सम्पूर्ण व्यवस्था भी यहाँ उपलब्ध है वहीं सामाजिक दृष्टि से प्रगतिशील विचारधाराओं के लिए काम करने और विचारों की श्रेष्ठता स्थापित करने का एक सुनहरा मौका भी उपलब्ध है। यदि सही मायने में प्रगतिशील विचारधारा, सचेत रूप से, वैज्ञानिक कला-कौशल और प्रतिबद्धता के साथ अराजक से प्रतीत होने वाले इस ब्लॉग मंच पर गतिशील होती है तो नतीजे उत्साहजनक प्राप्त हो सकते हैं। लेकिन वर्तमान में ब्लॉगजगत में प्रगतिशील वैचारिक आन्दोलन के संगठित प्रयासों का सर्वथा अभाव दिखाई देता है, यह व्यक्तिवादी चिंतन और प्रयोजन के अड्डे के रूप में एक नामालूम दिशा में बढ़ता चला जा रहा प्रतीत होता है जहाँ अधिकांश फुरसतिए किस्म के लोग महज़ अपनी छपास की खाज को शांत करने के लिए सक्रिय प्रतीत होते हैं।
एक और समस्या ब्लॉगिंग में देखने में आ रही है। लोग खूब लिख रहे हैं, नया-नया और अनोखा लिख रहे हैं, यानी अभिव्यक्ति तो खूब हो रही है मगर पढ़ने-लिखने की लगातार कम होती चली जा रही आदतों के कारण ब्लॉगों पर प्रकाशित ज़्यादातर सामग्री अनपढ़ी रहती है। सुधी पाठकों का अभाव यहाँ काफी खलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि लिखने वाले तक कुछ पढ़ नहीं रहे हैं। लोकप्रिय ब्लॉग एग्रीगेटरों पर कई बार देखने में आता है कि कई बहुत अच्छी पोस्टों को महज़ दो या चार बार और घटिया पोस्टों को काफी तादात में खोला जाता है। हल्के विषयों, घटिया चर्चाओं, अश्लील, सनसनीखेज़ विषयों को लेकर उपस्थित पोस्टों को खूब पाठक मिलते देखे जाते हैं और उन पर टिप्पणियों की भी बहुतायत देखी जाती है। एक गुटबंदी सी चलती प्रतीत होती है, लोग अपने-अपने गुट के सदस्य की पोस्टों पर धड़ाधड़ टिप्पणियाँ भेज कर ऊलजलूल बकवास का भी समर्थन करते दिखाई देते हैं। महिला ब्लॉगरों के ब्लॉगों पर टिप्पणियों का ढेर दिखाई देता है, भले ही वे नारी विमर्श के महत्वपूर्ण विषयों को दरकिनार कर नीरा कचरा लेकर उपस्थित हों। जबकि कई पुरुष ब्लॉगर बेचारे सामाजिक सरोकारों के साथ उपस्थित होने के बावजूद एक टिप्पणी को भी तरसते दिखाई देते हैं। यह एक चिंता का विषय है कि पाठकों में उन्नत अभिरुचि के निर्माण और विकास के साथ-साथ एक प्रगतिशील वैचारिक माहौल का निर्माण करने में ब्लॉगजगत अपनी भूमिका संजीदगी से नहीं निभा पा रहा है, मौजूदा समय में अभिव्यक्ति के किसी भी सजग माध्यम का जो कि अन्तिम ध्येय होना चाहिए।
ब्लॉगिंग को खेल समझकर रात-दिन धड़ाधड़ पोस्टों और टिप्पणियों के उत्पादन में लगे तमाम उत्साही लोगों को एक बात और समझना बेहद ज़रूरी है जिसकी कमी से हिन्दी ब्लॉगिंग जगत बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधकचरे अपरिपक्व रूप से स्वच्छंद उपयोग कर लेने का कोई ऐतिहासिक लाभ नहीं है। यदि कोई विधा अपने मानदंडों पर खरी नहीं उतरती है तो यह पाठकों के लिए रसास्वादन में बाधा उत्पन्न करती है। जैसे, कविता लिखी जा रही हो, वह भले ही छंद मुक्त आधुनिक कविता हो, मगर उसमें कोई लय न हो तो पाठक दो से तीसरी लाइन नहीं पढे़गा। कविता, गज़ल, यदि महत्वपूर्ण कथ्य के साथ-साथ शास्त्रीय अर्थों में अपने शिल्प में नहीं है तो पाठक उसे कतई पसंद नहीं करेगा। इसी तरह अन्य विधाओं में भी रचना की संप्रेक्षणीयता उसके गठन पर काफी कुछ अवलंबित होती है। व्यंग्य में यदि व्यंग्य ना हो, कहानी यदि कहानी की रोचकता में आबद्ध होकर प्रस्तुत नहीं होती, निबन्ध यदि निबन्ध के समस्त तत्वों को अपने साथ समेटे नहीं होता तो इन्हें समुचित पाठक मिलना और इनका प्रशंसित होना नामुमकिन है।
ब्लॉगजगत में ऐसे कई रचनाकार हैं जो शिल्प और भाषा के अभाव में एक प्रकार के निरर्थक थोक उत्पादन में लगे हुए हैं। भाषा के उच्च साहित्यिक मानदंडों को यदि नज़रअन्दाज भी कर दिया जाए तब भी किसी भी रचना की ग्राह्यता बढ़ाने के लिए कम से कम भाषा की शुद्धता का ध्यान तो रखना ही पडे़गा। ब्लॉगजगत में देखा जाता है कि बेहद त्रृटिपूर्ण भाषा का प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है जो कि ब्लॉगजगत के विकास के लिए बेहद बाधक है। ऐसे महारथियों की बाकायदा ट्रेनिंग होना बेहद ज़रूरी है और ब्लॉगजगत को संगठित रूप से ऐसे आयोजन भी हाथ में लेते रहना चाहिए। हालाँकि मेल-मिलाप के प्रयोजन से देश में कई जगह ब्लॉगर बंधु एकत्र होते रहते हैं लेकिन इन आयोजनों में ब्लॉगजगत की दशा और दिशा पर वैचारिक चर्चा शायद ही आहूत की जाती हो। ब्लॉगर बंधु हँसी-ठट्ठा लगाकर, खा-पीकर अपने घर चलते बनते हैं और महीनों अपने-अपने ब्लॉगों पर इस घटना की निरर्थक चर्चा चलाते रहते हैं। कोई ठोस परिणाम ऐसे ब्लॉगर सम्मेलनों का निकलते नहीं देखा जाता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात! देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक परिस्थितियों से ब्लॉगजगत में सक्रिय बुद्धिजीवी वर्ग परिचित नहीं है, यह कहना मूर्खता पूर्ण होगा। भारतीय समाज पतन के भयानक दौर से गुज़र रहा है। नीति-नैतिकता का दयनीय ह्नास हो रहा है। स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के मूल्यों का लोप होकर फासीवादी संस्कृति का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। सत्ता संस्थान भष्टाचार के अड्डे बनते जा रहे हैं। इसी के समानान्तर आम जनसाधारण में श्रद्धा-आस्था के नाम पर अंधविश्वास और अवैज्ञानिक चिंतन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। दुनिया के एक हिस्से में जब बिग बैंग/महाविस्फोट की परिस्थितियों की रचना कर ब्रम्हांड की उत्पत्ति का राज़ जानने की महान कोशिशें चल रहीं हैं, भारतीय समाज अपने सामंती दौर की कुप्रथाओं, असत्य धारणाओं को मजबूत करने में लगा हुआ है। हालाँकि इस विषय विशेष की विवेचना के लिए यह आलेख नहीं लिखा गया है परन्तु जब हम इन सब बिन्दुओं पर ध्यान देते हैं तो पाते हैं कि वैज्ञानिक चिंतन पद्धति के आधार पर सचेत प्रतिक्रियाओं के ज़रिए ही इन सब परिस्थितियों से मुकाबला किया जा सकता है। समाज में हर स्तर पर विशेषकर शिक्षा-संस्कृति-साहित्य के क्षेत्र में इस सचेत प्रतिक्रिया की खास ज़रूरत है। ब्लॉगिंग का क्षेत्र भी भूमिका के मुद्दे पर इस महती आवश्यकता से मुक्त नहीं रखा जा सकता। हालाँकि कुछेक ब्लॉगों पर पर्याप्त संजीदगी के साथ उच्च रचनात्मक मानदंडों को कायम रखते हुए कलात्मक अभिव्यक्ति के ज़रिए अच्छा काम किया जा रहा है फिर भी अधिकांश लोगों को यह समझना जरूरी है कि एक प्रभावशाली माध्यम में निहित संभावनाओं को सतही, अगम्भीर किस्म की चुहलबाज़ी के ज़रिए ज़ाया नहीं किया जाना चाहिए।
इस स्थिति से निकलने के लिए ब्लॉगरों के बीच ऐसे चिन्तन शिविरों की महती आवश्यकता है जहाँ ब्लॉगर अपनी भूमिका को समझ सकें, और अपनी रचनात्मक कमियों-खामियों को दूर करने के लिए आवश्यक ज्ञान भी जुटा सकें, और वे ब्लॉगर जो कलम के तो धनी है परन्तु वैचारिक स्तर पर कोई खास उल्लेखनीय भूमिका नहीं निभा पाते, सामाजिक जागृति की दिशा में अपनी कलम का उपयोग नहीं कर पाते, उनको लाभ हो और ब्लॉगिंग एक रचनात्मक प्रगतिशील आन्दोलन के महत्वपूर्ण हथियार के रूप में विकसित हो सके।
मैं जानता हूँ कुछ ब्लॉगर मेरी इस बात से असहमत हो सकते हैं जो यह सोचते हैं कि ब्लॉगिंग को किसी विचारधारा (जबकि मैंने किसी विचारधारा की हिमायत नहीं की है।) के दायरे में नहीं जकड़ा जाना चाहिए। वैचारिक स्तर पर ढुलमुल रवैया रखने वाले कुछ लोगों को इसमें तुरंत राजनीति की बू आने लगेगी। मेरा उनसे कहना है कि अभिव्यक्ति के गोरखधंधे में उलझा कोई भी सज्जन या दुर्जन व्यक्ति, वह चाहे या ना चाहे, जाने अनजाने में किसी ना किसी विचार को अपने साथ ढोया करता है। अगर वह मौजूदा कठिन सामाजिक परिस्थितियों से मुक्ति का विचार नहीं है तो फिर वह निश्वित रूप से किसी भी रूप में हो, उन सब परिस्थितियों के मूक समर्थन का विचार होगा जिनका ज़िक्र मैंने ऊपर किया है। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो वर्तमान में ब्लॉग जगत यथास्थितिवाद के भँवर में फँसा हुआ गैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाए चलता हुआ दिखाई दे रहा है। इसे इस स्थिति से निकालकर परिवर्तन के एक ताकतवर हथियार के रूप में ढालने की महती आवश्यकता है तभी तकनीक के इस लोकप्रिय और प्रभावशाली माध्यम की सही उपयोगिता साबित हो सकेगी।
29 comments:
जोरदार विचार मंथन -शुक्रिया
रवींद्र जी,
प्रमोद जी के विचारों से रू-ब-रू कराने के लिए आभार...ब्लॉगोत्सव 2010 के लिए आपकी अथक मेहनत और रचनात्मकता के लिए साधुवाद...
जय हिंद...
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधकचरे अपरिपक्व रूप से स्वच्छंद उपयोग कर लेने का कोई ऐतिहासिक लाभ नहीं है। यदि कोई विधा अपने मानदंडों पर खरी नहीं उतरती है तो यह पाठकों के लिए रसास्वादन में बाधा उत्पन्न करती है।
बढिया सीख !!
अच्छा लेख ...शिक्षाप्रद...
यह आलेख इस उत्सव की एक उपलब्धि है ! बेहद गम्भीर ढंग से ब्लॉगिंग की दशा-दिशा पर विचार किया है प्रमोद जी ने !
प्रमोद जी को पहली बार पढ़ रहा हूँ यहीं ! मेरे लिए व्यक्तिगत तोष की बात हुई है यह !
आभार ।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
सारगर्भित आलेख। अतिउत्तम। परिकल्पना ब्लॉगोत्सव को अनेक धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ।
नारदमुनि
बहुत ही संतुलित और विचारणीय आलेख प्रमोद भाई। ब्लागिंग के लगभग हर अच्छे और बुरे पक्षों पर आपने इशारा किया है। इस अनोखे प्रस्तुति की सराहना करता हूँ।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
आपने एक अत्यंत गम्भीर एवं विचारणीय विषय की ओर इंगित किया है जिसका मैं भी अनुमोदन करती हूँ ! लेकिन ब्लॉगिंग की इन कमियों को कैसे सँवारा जा सकता है इसके लिये भी व्यावहारिक एवं सहज रूप से सभी के लिये स्वीकार्य सुझाव भी दें तभी अभीष्ट की पूर्ति हो सकेगी ! सारगर्भित आलेख के लिये बहुत बहुत बधाई एवं धन्यवाद !
....बात में दम है ...सभी ब्लागरों को ध्यान देना चाहिये ...अनुशरण योग्य अभिव्यक्ति ...प्रसंशनीय लेख,बधाईंया!!!
''nice post''
ब्लॉगजगत में ऐसे कई रचनाकार हैं जो शिल्प और भाषा के अभाव में एक प्रकार के निरर्थक थोक उत्पादन में लगे हुए हैं
इस बात से सहमत भी हैं और दुखी भी...
बाकी अधिकतर बातों से सहमत हैं.....
तांबट जी के इस आलेख का हर पेराग्राफ चिंतन के लिये प्रेरित करता है.
इस उत्सव मे विचरने वालों को इतनी उत्तम सामग्री परोसने के लिये आभार!
सस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.IndianCoins.Org
हिंदी ब्लॉगिंग के बारे यह चिंतन हमें मार्गदर्शक रहेगा। नई तकनीक के साथ हिंदी साहित्य, हिंदी लेखक जुड़ रहे है। जनसंचार मीडिया में हिंदी ब्लॉगिंग सुद लेगी पड़ेगी। पाठकों की संख्या बढाने के बारे में नई तकनीक की जानकारी बांटनी होगी।
प्रसंशनीय लेख,बधाईंया!!
Behad santulit evam gahan vichardhara..aapke vicharon se sahmat hun..
हर अच्छी या बुडी उद्देश्य के शुरुआत में दिक्कते तो आती हैं / लेकिन एकजुटता में संतुलन ईमानदारी से बैठाकर अगर निडरता से आगे बढ़ने की चाह हो तो, सफलता जरूर मिलती है / जरा सोचिये जब अंग्रेज भारत आये होंगे तो सोचा होगा की ,वे अपनी तिकरम से भारत को लूट लेंगे ,ठीक उसी तरह भारत का स्वतंत्रता संग्राम के शुरू में किसी ने नहीं सोचा होगा की, उनको सच्चाई और बलिदान के बदले आजादी मिलेगी / उसी तरह आज ब्लोगिंग के जरिये देश और समाज को बदलने की धारणा कल्पना की उरान की तरह लग रहा है ,लेकिन हम और आप अगर सच्चे मन से बदलाव लाने का मन बना लें ,तो इन भ्रष्टाचारियों और लुटेरों से देश को बचाने में,ब्लॉग और ब्लोगर एक ब्रह्मास्त्र का काम कर सकता है / ऐसा सोचने वाले ब्लोगर एक दुसरे ब्लोगर से हफ्ते में इस विषय पर कम से कम एक पोस्ट अपने ब्लॉग पर और फोन पर भी विचारों का आदान प्रदान जरूर करें हफ्ते में एक बार / ऐसा करने से ही इस विचार को आगे बढाया जा सकता है और रास्ट्रीय स्तर पर एक ब्लोगर फोरम बनाया जा सकता है / मुझसे बात या विचार करने के लिए अभी फोन करें-09810752301
बहुत ही सार्थक विचार हैं
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
Bloggers kheme bazi se bachen to achha hoga.
उत्कृष्ट लेख...निसंदेह एक गंभीर परिचर्चा ओर संवाद की जरुरत है .....आगे लिखिए .....
har pankti se sahmat ....
डा.रमा द्विवेदी
बहुत सारगर्भित लेख है....ऐसे लेखों की अत्यधिक ज़रूरत है...साधुवाद...
सारगर्भित, विचारोत्तेजक आलेख
आभार
honesty project democracy से सहमत हूँ.
वैसे बहुत ही संतुलित और इमानदारी से लिखा गया आलेख .
ताम्बट जी उपियोगी और प्रसंशनीय लेख ...लेकिन .जैसे अपने लिखा है की पुरुषों की तुलना मैं महिलाओं की पोस्ट ज्यादा आती हैं.हालाँकि मेरा ब्लॉग अनुभव मात्र ७ दिन और चंद कविताओं का है पर यदि ऐसा है भी तौ संभवतः इसमें आपत्तिजनक कुछ भी नहीं.मैं समझती हूँ की यदि महिलाओं के लेख पढ़े जा रहे हैं तो शायद उनकी समाज मैं पारम्परिक छवि से अलग उनके द्वारा लिखा पढने का उत्साह (जो अन्य किसी विधा मैं नहीं हो पाया या वो नहीं कर पाएं ब्लोगिंग मैं उन्हें नया आयाम दिख रहा है.ब्लॉग जगत निरंतर ऊँचाइयों की तरफ अग्रसर है जैसा की आपने भी लिखा है. असंख्य ब्लॉग पढ़े और लिखे जा रहे हैं मैं आपकी इस बात से पूर्णतः सहमत हूँ की कुछ घटिया ब्लॉग के पाठक अधिक वो अच्छे ब्लॉग के कम हैं.तथा अश्लील और बुरे भी लिखे जा रहे हैं.यदि आप इसे पांचवा खम्भा मान रहे हैं तो चौथे खम्बे पर दृष्टि डालकर देख सकते हैं.क्या क्या नहीं बिकता वहां क्या सब पठनीय अथवा दर्शनीय होता है?लेकिन पसंद किया जा रहा है.इसीलिए शायद हम ब्लोगिंग को भी एक निश्चित दायरे मैं नहीं बाँट सकते. आपका प्रयास सराहनीय है.प्रगतिशील लेखक संघ या जनवादी लेखक संघ की तरह क्या ब्लॉग में भी हम एक निश्चित समूह बना सकते हैं?आपके ब्लोग्स पढ़े पठनीय और ज्ञानवर्धक.ब्लोगिंग में आपका सहयोग अपेक्षित
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बहुत ही सार्थक विचार हैं
bahut hi sathak avam sargarbhit vichar,aur vo bhi bina katu hue....shubhkamnaye.....
तांबट जी आपका ब्लॉग लेखन का विश्लेषण एकदम सही मुद्दों को उठा रहा है । कई सामान्य लेखों पर (ब्लॉगों) पर अधिक टिप्पणियां आ रही हैं यह भी सही है और कई विचारणीय लेख नही या कम पढे जा रहे हैं यह भी सही है । परंतु इस संदर्भ में आपने कोई सुझाव नही दिये । क्या भाषा के स्तर का ख्याल एग्रीगेटर को रखना चाहिये । यह तो लेखक की जिम्मेदारी है कि वह शुध्द और सुंदर भाषा का प्रयोग करे । लेख अगर स्तरीय नही है तो उसे कम पढा जायेगा यही सही प्रतिक्रिया होगी पर गुटबाजी के चलते यह संभव नही है । मेरे ख्याल से यह अभी शुरुआती कठिनाइयाँ हैं । धीरे धीरे सब सुधरेगा ।
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