आज हिन्दी कविता का महत्त्व और स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है , पाठकों से दूरी बढ़ती जा रही है . यथास्थिति की प्रस्तुति और उससे उत्पन्न आक्रोश को काव्य के माध्यम से प्रस्तुत करने के पश्चात भी कविता सुधी-जनों की उपेक्षा से मर्मान्हत है . कहा गया है कि काव्य के सृजन से नवीन दृष्टिकोण का उन्मेष और नूतन प्रवृति का प्रादुर्भाव होता है, फिर भी असर जन मानस पर क्यों नहीं पङता ? इसके लिए साहित्यकार कहाँ तक दोषी है ? क्या कविता अब ज्ञान शून्यता में पैदा होती है और ज्ञान के उत्कर्ष से स्वयं मेव भाव का अपकर्ष होता है ? यदि ऐसा है तो यह कविता के लिए अमंगलकारी होने का स्पष्ट संकेत है. दूसरी ओर अनेकानेक कवियों का झुकाव ग़ज़लों की ओर हो जाने से कुछ आलोचक दबी जुवान से ही सही , किन्तु ग़ज़ल को काव्य के विकल्प के रुप में देखने लगे हैं . इसप्रकार हिन्दी काव्य जगत में ग़ज़ल का विकास तेजी से हो रहा है और संभावनाएं बढ़ गयी है ।
एक ज़माना था जब आशिक और माशूका की मोहब्बत भरी गुफ्तगू को ग़ज़ल कहा जाता था . हुश्न-इश्क और साकी - शराब की रसीली अभिव्यक्ति उसकी भावभूमि हुआ करती थी, जिससे परे जाकर दूसरी भावभूमि पर ग़ज़ल कहना गज़लकारों के लिए दुस्साहस भरा कार्य हुआ करता था . ऐसी परिस्थिति में नयी क्रांति की प्रस्तावना किसी भी कवि के लिए संभव नही थी . सच तो यह है कि ग़ज़ल के रुप में उसी कलाम को स्वीकार किया जाता था जो औरतों के हुस्न और जमाल की तारीफ करे . यहाँ तक कि जो हिन्दी की गज़लें हुआ करती थी उसमें उर्दू ग़ज़लों का व्यापक प्रभाव देखा जाता था . यही कारण था कि जब पहली वार शमशेर ने पारंपरिक रूमानी संस्कार से ऊपर उठकर ग़ज़ल रचना की तो डॉक्टर राम विलास शर्मा ने यह कहकर खारिज कर दिया कि " ग़ज़ल तो दरवारों से निकली हुई विधा है , जो प्रगतिशील मूल्यों को व्यक्त करने में अक्षम है !" किन्तु अब स्थिति बदल चुकी है, हिन्दी वालों ने ग़ज़ल को सिर्फ स्वीकार हीं नही किया है , वल्कि उसका नया सौन्दर्य शास्त्र भी गढा है. परिणामत: आज ग़ज़ल उर्दू ही नही हिन्दी की भी चर्चित विधा है. तो आईये समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के स्वरूप, विकास और उसकी संभावनाओं पर विचार करते हैं ।
ग़ज़ल मुख्यत: उर्दू अदब की चर्चित विधा रही है . ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने सर्व प्रथम ग़ज़ल कहने का प्रयास किया था , ऐसा माना जाता रहा है . यद्यपि दक्षिण में इब्राहिम आदिल शाह हुए जिनकी रचनाएँ उपलब्ध नही है. उसके बाद मुहम्मद कुतुब कुली शाह की गज़लें मिलती है . बाद में दक्षिण भारत के गज़लकारों में बहरी, नुस्त्रती, सिराज और वली उल्लेखनीय है. औरंगजेब की मृत्यु के बाद उत्तरी भारत में उर्दू ग़ज़ल के नमूने मिलने लगते हैं, फैज़ उत्तरी भारत के पहले साहबे दीवाने शायर माने जाते हैं, जबकि इनके समकालीन शायरों में हातिम शाह मुबारक आबरू और मुहम्मद शाकिर नाजी का नाम आता है . १८ वीं शताब्दी के दूसरे चरण में उर्दू ग़ज़लों को मांजने का काम किया था मीर तकी मीर ने जिनको बहुत से लोग उर्दू ग़ज़ल कहने वालों में सबसे अच्छा मानते हैं . इनके अलाबा सौदा और मीर दर्द उच्च कोटी की ग़ज़ल कहने वाले थे. इन शायरों के बहुत बाद मोमिन, जौक और गालिब का अबतरण हुआ , जिन्होंने अपने माधुर्य और चमत्कार से ग़ज़ल को संवारने का प्रयास किया . उसके बाद हाली, दाग, अमीर मनाई और जलाल ग़ज़ल के उस्ताद समझे गए . २० वीं सदी के चर्चित ग़ज़ल कारों में हस्त्रत, फानी , असर लखनवी, जिगर और फिराक का नाम आता है . आज उर्दू ग़ज़ल अत्यंत संवेदनात्मक दौर में है, क्योंकि यह शो- बॉक्स की न होकर स्वच्छंद अभिव्यक्ति के रुप में सामने आ चुकी है , जिसका श्रेय नरेश कुमार शाद, जगन्नाथ आजाद, वशीर बद्र, निदा फाज़ली, शहरयार आदि को जाता है ।
उर्दू ग़ज़ल मुख्यत: प्रेम भावनाओं का चित्रण है . अच्छी गज़लें वही समझी जाती है, जिसमें इश्को-मोहब्बत की बातें सच्चाई और असर के साथ लिखी जाये, जबकि हिन्दी गज़लकार इस परिभाषा को नही मानते . इनका उर्दू गज़लकारों से सैद्धांतिक मतभेद है. नचिकेता का मानना है कि " हिन्दी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़लों की तरह न तो असंबद्ध कविता है और न इसका मुख्य स्वर पलायनवादी ही है , इसका मिजाज समर्पण वादी भी नही है !" जहीर कुरैशी का मानना है कि -" हिन्दी प्रकृति की गज़लें आम आदमी की जनवादी अभिव्यक्ति है , जो सबसे पहले अपना पाठक तलाश करती है !" जबकि ज्ञान प्रकाश विवेक का कहना है कि " हिन्दी कवियों द्वारा लिखी जा रही ग़ज़ल में शराब का ज़िक्र नही होता , जिक्र होता है गंगाजल में धुले तुलसी के पत्तों का , पीपल की छाँव का, नीम के दर्द का, आम- आदमी की तकलीफों का . हिन्दी भाषा में लिखा जा रहा हर शेर ज़िंदगी का अक्श होता है. बहुत नजदीक से महसूस किये गए दर्द की अभिव्यक्ति होता है !" फैज़ अहमद फैज़ ने तो इतना तक कह डाला है कि " ग़ज़ल को अब हिन्दी वाले ही जीन्दा रखेंगे , उर्दू वालों ने तो इसका गला घोंट दिया है !" वहीं समकालीन हिन्दी ग़ज़लों के सशक्त हस्ताक्षर अदम गोंडवी कहते हैं कि " जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ हो गयी उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो !"
हिन्दी ग़ज़ल के अतीत की चर्चा किये बिना उसकी संभावनाओं के बारे में कुछ भी कह पाना मुनासिब नही होगा , क्योंकि ग़ज़ल रचने की परंपरा हिन्दी में भी बहुत पुरानी है . यदि अमीर खुसरो ने अपनी कतिपय रचनाओं के माध्यम से हिन्दी में ग़ज़ल की संभावनाओं का सूत्रपात किया, तो कालांतर में कबीर,शौकी और भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उसे सिंचीत कर विकसित किया . बाद के दिनों में प्रेमधन, श्रीधर पाठक , राम नरेश त्रिपाठी , निराला , शमशेर , त्रिलोचन आदि ने उसे मांजने का प्रयास किया . हालांकि शमशेर ने इस विधा को गति और दिशा दी . फिर हंस राज रहवर , जानकी बल्लभ शास्त्री, राम दरस मिश्र आदि ने नए सौन्दर्य शास्त्र गढ़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया . इतिहास साक्षी है कि हिन्दी कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर दुष्यंत कुमार ने ग़ज़ल के माध्यम से एक नई क्रांति की प्रस्तावना की. ग़ज़ल रचना के नए क्षितिज का उद्घाटन ही नही किया, वरन हिन्दी कविता की स्वतन्त्र विधा की स्वीकृति का आधार भी तैयार किया . दुष्यंत के बाद अदम गोंडवी ही एक ऐसे गज़लकार हैं , जिन्होंने ग़ज़ल के माध्यम से कल्पना के सुरम्य सतरंगे आलोक में धुवांधार प्रकाश उडेलने का काम किया और इस परंपरा को आगे बढाने का पुनीत कार्य कर रहे हैं आज के गज़लकार ।
ग़ज़ल से संबंधित अनेक पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है, जिसमें डॉक्टर रोहिताश्व अस्थाना का शोध ग्रंथ " हिन्दी ग़ज़ल : उद्भव और विकास " प्रमुख है . साथ ही उत्कृष्ठ ग़ज़ल संग्रहों में डॉक्टर कुंवर वेचैन की " रस्सियाँ पानी की " व " पत्थर की बांसूरी " छंदराज की " फैसला चाहिए" माधव मधुकर की " आग का राग " तथा कविवर आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री की " कौन सुने नगमा " आदि पुस्तकें दुष्यंत की साये में धूप के बाद महत्वपूर्ण मानी जा सकती है ।
मेरी समझ से ग़ज़ल की असली कसौटी प्रभावोत्पादकता है . ग़ज़ल वही अच्छी होगी जिसमें असर और मौलिकता हो, जिससे पढ़ने वाले समझे कि यह उन्ही की दिली बातों का वर्णन है. जहाँ तक संभव हो सके ग़ज़ल में सुरूचि पूर्ण जाने-पहचाने और सरल शब्दों का ही प्रयोग हो , ताकि उसमें प्रवाह बना रहे . ग़ज़ल के प्रत्येक चरणों में पृथक-पृथक विषय को लेकर भी विचार प्रकट किये जा सकते हैं और श्रृंखलाबद्ध भी . लेकिन प्रत्येक दो चरणों में विषयांतर होने से नई विचार धारा प्रभाव पूर्ण ढंग से प्रस्तुत हो जाती है . हिन्दी ग़ज़ल के लिए एक और जरूरी बात यह है कि हिन्दी व्याकरण की परिधि में ही शब्दों का विभाजन हो और मात्रा की गणना भी , ताकि ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य में तारतम्य रह सके . शब्दों का विभाजन विभिन्न घटकों की मात्रा संख्या के अंतर्गत ही किया जाये, और इसके लिए आवश्यक है छंदों की जानकारी के साथ-साथ समकालीनता की पकड़ भी हो ।
आज अपनी अकुंठ संघर्ष चेतना और एक के बाद दूसरी विकासोन्मुख प्रवृति के कारण हिन्दी ग़ज़ल एक ऐसे मुकाम पर खडी है , जहाँ वह हिन्दी साहित्य में अपनी स्वतन्त्र उपस्थिति दर्ज कराने को वेचैन दिखती है। आज हिंदी चिट्ठाकारी में पंकज सुबीर एक ऐसे चिट्ठाकार हैं जी ग़ज़ल की पाठशाला चलाते हैं ...आज हिंदी ब्लॉगजगत में निर्मला कपिला, गौतम राजरिशी, नीरज गोस्वामी, सर्बत एम् जमाल, श्यामल सुमन, प्रकाश सिंह अर्श आदि रचनाकार पूरे समर्पण के साथ हिंदी ग़ज़लों को नया मुकाम देने की दिशा में अग्रसर हैं ..!
आज़कल तो ग़ज़ल में नए-नए प्रयोग होने लगे हैं , कोई इसे गीतिका, कोई नई ग़ज़ल , कोई कुछ तो कोई कुछ .......मगर कुल मिलाकर देखा जाये तो है ग़ज़ल ही न?
()रवीन्द्र प्रभात
4 comments:
ग़ज़ल की विविधता , उसकी पूरी रमणीयता का आकलन आपने किया है,
कलम को नमन
स्वागत है रविन्द्र जी,
परिकल्पना उत्सव के माध्यम से साहित्य के विभिन्न पहलुओं से रुबरु हो रहे हैं तथा साहित्यकारों को पढ भी रहे हैं।
आभार
Bahut gahre adhyan ke baad aisi post banti hai ... bahut bahut abhaar is patrkaarita ke liye ..
इस रचना को पढकर बहुत ज्ञानवर्द्धन हुआ .. परिकल्पना ब्लॉगोत्सव के माध्यम से साहित्य की सभी विधाओं के बारे में बहुत कुछ जानने समझने को मिल रहा है !!
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