सकलडीहा, चंदौली निवासी श्री हिमांशु चर्चित युवा कवि के साथ -साथ एक समर्पित चिट्ठाकार भी हैं . वे हिंदी ब्लॉग जगत में गंभीर लेखन करने वाले चंद चिट्ठाकारों में से एक है . प्रस्तुत है उनकी तीन कविताएँ-
१) तरुणाई क्या फिर आनी है ..
तरुणाई क्या फिर आनी है !
चलो, आओ !
झूम गाओ
प्रीति के सौरभ भरे स्वर गुनगुनाओ
हट गया है शिशिर का परिधान
वसंत के उषाकाल में
पुलकित अंग-अंग संयुत
झूमती हैं टहनियाँ रसाल की
और नाचता है निर्झर
गिरि शिखरों से उतर-उतर
कहता है - तरुणाई क्या फिर आनी है !
झाग भरी बरसाती नदी-से
उद्धत हैं झूमते प्रसून हर्ष-बाग-बाग बाग के
कोयल मदमाती कुहुक रही
भौंरा आनन्द गीत गा रहा
प्रिय आ देखो ! नभ-विस्तर में
अनिल गंध लुटा, गा रहा -
तरुणाई क्या फिर आनी है !
खग-कलरव गूँज रहा
आओ ! प्राण इनमें लहरा दें
चू रहा अमर-आसव वासंती
आओ ! गटगट पी जायें
चिर-संग-भाव का आश्रय लेकर
परिणय का सागर उफनाता है
गाता है - तरुणाई क्या फिर आनी है !
आकर बैठो, रख दो अधरों पर
इस रसाल तरु के नीचे, रस भरे अधर
काँपे हिय, कंपित तन औ’
रात्रि अँधेरी रहे खड़ी फिर सहज मौन
बिछ गये फूल, पैरों को सहलाते तिनके
आकाश चितेरा ढाँक छुपा हमको बहकाता
कहता जाता है -तरुणाई क्या फिर आनी है !
भर लो उर में सुरभि प्रेम-मद
मौन विलक्षण से खेलो
मंदस्मित का मोहपाश फेंको
मेरी हथेलियों को अपने हाँथों में ले लो
और फिर छेड़ो तान - निशा के स्वागत हित
बिना गीत के कहाँ कर्म यह संपादित,
स्वर मुखरित हो - तरुणाई क्या फिर आनी है !
(२) शायद, आज मैं मिलूँगा तुमसे !
आज सुबह धूप जल्दी आ गयी
नन्दू चच्चा को
महीने भर का काम मिल गया
छप्पर दुरुस्त हो गया
आज बगल वाली शकुन्तला का
"सर्दी नहीं पड़ेगी" की भविष्यवाणी
फेल हो गयी - पन्ना बाबा चहक उठे
रेखवा की अम्मा ने
पहली बार ओढ़ ली शाल
और आज पहली बार
लछमिनियाँ ने बेच दिया पूरा अमरूद
कोआपरेटिव पर आज मिलने लगी खाद
किसी का सिर नहीं फूटा किरासन की लाइन में
जॉब-कार्ड पर पहली बार अंकित हुआ काम
सोहन भईया ने बो दिया गेंहूँ
धान घर आ गया आज
अखबार में पढ़ा - "दो घंटे अधिक रहेगी बिजली "
आज पहली बार बाजार साफ किया सफाईकर्मी ने
आज प्रधान जी ने नहीं कटने दिया एक पेड़
बाहर की धूप मेरे आँगन में उतर आयी
मन का धुँआ गुम हो गया कहीं
शुभ संभाव्य की प्रस्तावना ने रोमांच दिया
अन्तर में सज गया सुभाषित
आज मेरे आँवले के वृक्ष ने टपकाये कुछ फल
खिल गया सुर्ख लाल गुलाब पहली बार पौधे पर
मन हुआ उल्लसित
शायद
आज मैं मिलूँगा तुमसे !
३) स्वलक्षण-शील’
महाजनो येन गतः..’ वाला मार्ग
भरी भीड़ वाला मार्ग है
नहीं रुचता मुझे,
जानता हूँ
यह रीति-लीक-पिटवइयों की निगाह में
निषिद्ध है, अशुद्ध है ।
चिन्ता क्या !
मेरी इस रुचि में (या अरुचि में)
बाह्य और आभ्यन्तर,
प्रेरणा और व्यापार की साधु-मैत्री है ।
मैं हठी हूँ,
जानता हूँ क्षिप्र भी हूँ
तो क्या !
सोचता ही हूँ कहाँ मैं
निन्दा और स्वीकृति, विधि और निषेध को
साहसी हूँ ,
औ’ विजेता हूँ
लोक-लज्जा से उफनती भीरुता का ।
मैं स्वलक्षण-शील हूँ ।
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3 comments:
एक से बढकर एक
बहुत सुन्दर ! सभी लाजवाब !
वैसे तो सभी कवितायें बहुत सुन्दर हैं मगर "शायद, आज मैं मिलूँगा तुमसे" लाजवाब लगी.
बहुत खूब!
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