ओम आर्य एक ऐसे कवि/चिट्ठाकार हैं जिन्होंने महज डेढ़ वर्षों की चिट्ठाकारी में वह मुकाम प्राप्त करने में सफल हुए हैं जो शायद हीं किसी को प्राप्त हुआ हो . ओम आर्य मूलत: बिहार के सीतामढ़ी के रहने वाले हैं, किन्तु वे विगत छ: वर्षों से गुलाबी शहर जयपुर में अपना बसेरा बना रखा है . इनकी कविताओं के बिंब पाठकों को बरबस ही आकर्षित करते हैं . लोकप्रियता की दृष्टि से इनका ब्लॉग मौन के खाली घर में हिंदी के सर्वाधिक चर्चित ब्लॉग में से एक है . प्रस्तुत है इनकी दो कविताएँ-
!! दुःख शायद लहू को ठंडा भी कर देता है !!
एक लम्बे दुःख ने
थका दिया है मुझे
या फिर उबा दिया है शायद
सुबह उठ कर जो आ बैठा था
बालकनी में इस कुर्सी पर
तब से कितने गोल दागे बच्चों ने
सामने खेल के मैदान में
पर पसीना नहीं आया मुझे
दुःख शायद लहू को ठंडा भी कर देता है
लहू मांगती है अब
सुख का ताप, थोडा सा
और
जिस्म पसीना मांगता है
सुबह-सुबह आईने में
मेरा चेहरा भी मांगता है
एक मुनासिब सजावट
जहाँ चीजें करीने से लगी हों
और एक बदन
जो सारी उबासी निकाल चुका हो
मन के पोर भी
बजते हैं बेचैन होकर,
सुनाई देती है उनकी थकन
अपनी हीं हथेली से
दबाता रहता हूँ उन्हें
पर कई हिस्से छूट जाते हैं
तुम बताओ
तुम क्या करती हो
जब पीठ में दर्द होता है तुम्हारे
मुझे छोड़ कर जाने के बाद ??
!! दिखावे के लिए !!
कहा मैंने कि
दिखावे में विश्वास नही करता मैं
दिखाई मैंने अपनी गरीबी खोल कर
अपनी असभ्यता पसार कर
अपना भोंडापन उड़ेल कर
दिखाया अपना बेझिझक होना इस तरह
मैंने कहा कि सभ्यता ओढी हुई होती है
पर भीतर से सभी असभ्य होते हैं
और उनका भोंडापन अकेले में सामने आता है
पर मैं बाहर से लेकर भीतर तक एक हीं हूँ
वैसा हीं,
जैसा मैं दीखता हूँ
बदसूरत, असभ्य और गरीब
और इस तरह मैंने अपने सच्चे होने का दिखावा किया
इल्जाम परिस्थितियों पे मढ़ते हुए
दिखाई मैं अपनी विवशता
और ख़ुद को नही बदलने का थोथा आदर्श भी
उसमें जोड़ कर दिखाया
जो कि नही बदलने के
पीछे की कायरता को छिपा लेने की
एक कोशिश के अलावा और कुछ नही था
यह सब करके
मैं अन्दर से बहुत खुश था कि
अपने शब्दों और तर्क क्षमता का इस्तेमाल करके
मैंने दिखा दिया था कि
मैं दिखावे में विश्वास नही करता
() () ()
पुन: परिकल्पना पर वापस जाएँ
4 comments:
बहुत सुंदर कविता , बधाइयाँ !
आज की कविताओं ने उत्सव में रौनक ला दी है , आभार !
बहुत अच्छा लगा यहाँ परिकल्पना उत्सव पर !
दोनों ही रचनायें बहुत उम्दा!! ओम जी बहुत शानदार कविता लिखते हैं.
एक टिप्पणी भेजें