निर्मला कपिला जी चर्चित चिट्ठाकार के साथ-साथ कथाकार, गज़लकार और कुशल कवियित्री भी हैं . इनकी ख्याति कथाकार और गज़लकार के रूप में ही नहीं कवियित्री के रूप में भी है .प्रस्तुत है इनकी चार कविताएँ -
निष्ठा
माँ अक्सर कहती
अपने बालों मे
इतनी लम्बी माँग मत निकाला करो
ससुराल का सफर लम्बा होता है
बाद मे जाना कि
इसका अर्थ् तुम तक पहुँचने
मे एक कठिन और लम्बा रास्ता
तय करना है
बस मैने इस राह को सजा लिया
लाल् सिन्दूर से
ताकि इस पर चलने मे
मेरी ऊर्जा बनी रहे
और तुम भी इस रंगोली पर
चाव से अपने पाँव बढा सको
और तब से मैने माँग मे
सिन्दूर लगाना नहीं छोडा
बिन्दी
शादी के बाद
जान गयी थी कि मेरे माथे पर
तुम्हारा नाम लिखा है
तुम ही मेरी तकदीर लिखोगे
और माथे पर
तुम्हारे हर आदेश के लिये
पहले ही मोहर लगा दी
बिन्दी के रूप मे
स्वीकार कर लिया
अपने भाग्य विधाता का हर आदेश
मंगल सूत्र
जब तुम ने
मेरे गले मे डाला था
मंगल सूत्र जान गयी थी
कि मुझे तुम्हारे खूँटे से
बाँध दिया गया है
अब कभी ये बन्धन नहीं तोड सकती
तुम्हे हर पल सीने पर सजाये
अपनेजीवन पथ पर बढना होगा
और तुम्हारी उलीकी गयी परिधी मे
आज तक घूम रही हूँ
तुम्हारे नाम का मंगल सूत्र पहन कर
मेहंदी
तुम्हारे साथ चलते
जब कभी हाथ की लकीरें
कुछ धुँधली पडने लगतीं
मैं रंग लेती मेहंदी से अपने हाथ
ताकि लोगों से छुपा सकूँ
इन फीकी पडती लकीरों को
और इस मेहंदी से
फूल और तरह तरह के चित्र
बना लेती
उन मे खो कर भूल जाती
तुम्हारी अवहेलना तुम्हारी
हर बात जो मुझे अच्छी नहीं लगती
मेहंदी नहीं मरने देती
मेरा उत्साह मेरा प्यार
चूडियाँ
जानते हो ये चूडियाँ
किस लिये पहनती हूँ ताकि
इनकी खनखनाहट मे
याद रखूँ सात फेरों के वक्त
किये गये सात वचन
अपने कर्तव्य निभाते हुये
जब ये खनकती हैं
तो मैं भाग भाग कर
तुम्हारे आदेशों का पालन करती हूँ
और घर की रोनक और खुशियों को
कभी कम नहीं होने देती।
पायल
ये पायल ही है एक
जिसे मैने अपने लिये नहीं
तुम्हारे लिये ही पहना है
ताकि तुम कभी भूल जाओ
अपनी चौखट का दरवाज़ा
तो इसकी झँकार
तुम्हें याद दिला दे
कि कोई है
जो हर वक्त
जी रही है सिर्फ तुम्हारे लिये
और खीँच लाये तुम्हें मेरे पास
सजा लेती हूँ अपने पाँव भी मेहंदी से
रंगोली की तरह तुम्हारे घर आने की
राह मे स्वागत हेतु
करवा चौथ
ये भी जान लो कि मैं ये व्रत
किस लिये रखती हूँ
कि तुम मेरे इस प्रण का
यकीन करो कि मैं
तुम्हारे लिये कुछ भी कर सकती हूँ
सात जन्म का तो नहीं कह सकती
मगर इस जन्म मे
तुम्हारा साथ निभाने का प्रण लेती हूँ
और छू लेती हूँ तुम्हारे पाँव
इस आशा मे
कि तुम मुझे तन से नहीं
मन से स्वीकार करो
और कुछ मोहलत दो
कि मैं अपने लिये भी
कुछ अपनी मर्जी के
आदेश पारित कर सकूँ
और तुम?
बस एक घूँट पानी पिला
कर अपना कर्तव्य पूरा कर लेते हो
आज व्रत तोडने से पहले
एक सवाल करना चाहती हूँ
क्या तुम भी मेरे लिये
इतने निष्ठावान हो
जिन्दगी मेरी है
और फैसले तुम लेते हो
क्या मुझे अपनी जिन्दगी के फैसले
खुद लेने का हक दे सकते हो?
क्या मैं अपनी तकदीर
अपने हाथ से लिख सकती हूँ?
आज देखना चाहती हूँ
तुम्हारी निष्ठा मेरे प्रति
मगर सदियों से ये सवाल
ज्यों का त्यों पडा है
तुम्हारे आदेश की
प्रतीक्षा म
2 अच्छा लगता है
कभी कभी
क्यों रीता सा
हो जाता है मन
उदास सूना सा
बेचैन अनमना सा
अमावस के चाँद सी
धुँधला जाती रूह
सब के होते भी
किसी के ना होने का आभास
अजीब सी घुटन सन्नाटा
जब कुछ नहीं लुभाता
तब अच्छा लगता है
कुछ निर्जीव चीज़ों से बतियाना
अच्छा लगता है
आँसूओं से रिश्ता बनाना
बिस्तर की सलवटों मे
दिल के चिथडों को छुपाना
और
बहुत अच्छा लगता है
खुद का खुद के पास
लौट आना
मेरे ये आँसू मेरा ये बिस्तर
मेरी कलम और ये कागज़
और
मूक रेत के कणों जैसे
कुछ शब्द
पलको़ से ले कर
दो बूँद स्याही
बिखर जाते हैँ
कागज़ की सूनी पगडंडियों पर
मेरा साथ निभाने
हाँ कितना अच्छा लगता है
कभी खुद का
खुद के पास लौट आना
3.छोटी सी बात
कई बार
जब हो जाते हैं
हम
मैं और तू
छोटी छौटी बातों पर
कर देते हैं रिश्ते
कचरा कचरा
तर्क---वितर्क
तकरारें--
आरोप--प्रत्यारोप
छिड जाता है
महाँसंग्राम
अतीत की डोर से
कटने लगती है
भविश्य की पतंग
और खडा रह जाता है
वर्तमान
मौन निशब्द
पसर जाता है
एक सन्नाटा
उस सन्नाटे मे
कराहते हैं
छटपटाते हैं
और दम तोड देते हैं
जीवन के मायने
ओह!
रह जाते हैं
इन छोटी छौटी बातों से
जीने से
जीवन के बडे बडे पल
4.मुझे निभाना है प्रण
जीवन मे हमने
आपस मे
बहुत कुछ बाँटा
बहुत कुछ पाया
दुख सुख
कर्तव्य अधिकार
इतने लंबे सफर मे
जब टूटे हैं सब
भ्रमपाश हुये मोह भँग
क्या बचा
एक सन्नाटे के सिवा
मै जानती थी
यही होगा सिला
और मैने सहेज रखे थे
कुछ हसीन पल
कुछ यादें
हम दोनो के
कुछ क्षणो के साक्षी1
मगर अब उन्हें भी
तुम से नहीं बाँट सकती
क्यों कि मै हर दिन
उन पलों को
अपनी कलम मे
सहेजती रही हूँ
जब तुम
मेरे पास होते हुये भी
मेरे पास नही होते
तो ये कलम मेरे
प्रेम गीत लिखती
मुझे बहलाती
मेरे ज़ख्मों को सहलाती
तुम्हारे साथ होने का
एहसास देती
अब कैसे छोडूँइसका साथ्
अब् कैसे दूँ वो पल तुम्हें
मगर अब भी चलूँगी
तुम्हारे साथ साथ्
पहले की तरह्
क्यों की मुझे निभाना है
अग्निपथ पर
किये वादों का प्रण
बस जीना .
() () ()
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10 comments:
निर्मला जी को पढ़ना हमेशा ही अच्छा लगता है ... संवेदनशील रचनाएँ .......
बहुत सुंदर कविता , बधाइयाँ !
निर्मला जी की कविताएँ सर्वथा आकर्षित करती हैं ..आज की कविताओं ने उत्सव में रौनक ला दी है , आभार !
कमाल की हैं ये रचनाएं .. निर्मला कपिला जी की बहुत सुंदर प्रस्तुति !!
निर्मला जी की रचनाएँ, हमेशा की तरह ही बहुत जबरदस्त!! आनन्द आ गया.
बहुत सशक्त और भावपूर्ण अभिव्यक्ति ! हर कविता अद्वितीय और प्रत्येक रचना की शैली अनुपम ! आनंद आ गया !
bahut badhiya nirmala ji ka likha dil ko chu jaata hai
निर्मला जी की निर्मल कविताओं में पायल, मेंहदी, बिन्दी, मांग, करवा चौथ, चूड़ी के सार्थक भावयुक्त बिम्ब प्रशंसनीय हैं।
सशक्त एवँ सुन्दर बिम्बों को समेटे रचनाएँ मर्मस्पर्शी लगीं.
रवीन्द्र जी धन्यवाद। ये पोस्ट कब निकल गयी पता ही नही चला।
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