ब्रिटिश सरकार ने 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फाँसी दी तो वे केवल तेईस साल के थे। लेकिन आज तक वे हिन्दुस्तान के नौजवानों के आदर्श बने हुए हैं। इस छोटी सी उम्र में उन्होंने जितना काम किया और जितनी बहादुरी दिखायी, उसे केवल याद कर लेना काफी नहीं है। हम उन्हें श्रध्दांजलि देते हैं। 1926 में भगत सिंह ने नौजवान भारत सभा का गठन किया। नौजवानों का यह संगठन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शोषण के कारनामे लोगों के सामने रखने के लिए बनाया गया था। मुजफ्फर अहमद, जो कि कम्युनिस्ट पार्टी के स्थापना सदस्य थे, अठारह साल के भगत सिंह के साथ अपनी मुलाकात को याद करते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 1925 में कानपुर में हुआ था और कानपुर बोल्शेविक कान्स्पिरेसी केस के तहत अब्दुल मजीद और मुजफ्फर अहमद गिरफ्तार कर लिए गये थे। भगत सिंह कॉमरेड अब्दुल मजीद के घर उन दोनों का सम्मान करने गये। जाहिर है, अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत से ही भगत सिंह का रुझान कम्युनिस्ट आंदोलन की तरफ था।
1930 में जब भगत सिंह जेल में थे, और उन्हें फाँसी लगना लगभग तय था, उन्होंने एक पुस्तिका लिखी, “मैं नास्तिक क्यों हूँ।” यह पुस्तिका कई बार छापी गयी है और खूब पढ़ी गयी है। इसके 1970 के संस्करण की भूमिका में इतिहासकार विपिन चंद्र ने लिखा है कि 1925 और 1928 के बीच भगत सिंह ने बहुत गहन और विस्तृत अध्ययन किया। उन्होंने जो पढ़ा, उसमें रूसी क्रांति और सोवियत यूनियन के विकास संबंधी साहित्य प्रमुख था। उन दिनों इस तरह की किताबें जुटाना और पढ़ना केवल कठिन ही नहीं बल्कि एक क्रांतिकारी काम था। भगत सिंह ने अपने अन्य क्रांतिकारी नौजवान साथियों को भी पढ़ने की आदत लगायी और उन्हें सुलझे तरीके से विचार करना सिखाया।
1924 में जब भगत सिंह 16 साल के थे, तो वे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) में शामिल हो गये। यह एसोसिएशन सशस्त्र आंदोलन के जरिये ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खत्म करना चाहता था। 1927 तक HRA के अधिकतर नेता गिरफ्तार किए जा चुके थे और कुछ तो फाँसी के तख्ते तक पहुँच चुके थे। HRA का नेतृत्व अब चंद्रशेखर आजाद और कुछ अन्य नौजवान साथियों के कंधों पर आ पड़ा। इनमें से प्रमुख थे भगत सिंह। 1928 बीतते भगत सिंह और उनके साथियों ने यह तयk कर लिया कि उनका अंतिम लक्ष्य समाजवाद कायम करना है। उन्होंने संगठन का नाम HRA से बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) रख लिया। यह सोशलिस्ट शब्द संगठन में जोड़ने से एक महत्त्वपूर्ण तब्दीली आयी और इसके पीछे सबसे बड़ा हाथ था भगत सिंह का। सोशलिज्म शब्द की समझ भगत सिंह के जेहन में एकदम साफ थी। उनकी यह विचारधारा मार्क्सवाद की किताबों और सोवियत यूनियन के अनुभवों के आधार पर बनी थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ तब तक जो सशस्त्र संघर्ष हुए थे, उन्हें भगत सिंह ने मार्क्सवादी नजरिये से गहराई से समझने की कोशिश की।
दिल्ली असेम्बली में बम फेंकने के बाद 8 अप्रैल 1929 के दिन भगत सिंह बटुकेश्वर दत्त के साथ जेल पहुँचे। बम फेंककर भागने के बजाय उन्होंने गिरफ्तार होने का विकल्प चुना। जेल में उनकी गतिविधियों का पूरा लेखा-जोखा आज हमें उपलब्ध है। उन दिनों भगत सिंह का अध्ययन ज्यादा सिलसिलेवार और परिपक्व हुआ। लेकिन अध्ययन के साथ-साथ भगत सिंह ने जेल में राजनैतिक कैदियों के साथ होने वाले बुरे सलूक के खिलाफ एक लम्बी जंग भी छेड़ी। यह जंग सशस्त्र क्रांतिकारी जंग नहीं थी, बल्कि गांधीवादी किस्म की अहिंसक लड़ाई थी। कई महीनों तक भगत सिंह और उनके साथी भूख हड़ताल पर डटे रहे। उनके जेल में रहते दिल्ली एसेम्बली बम कांड और लाहौर षडयंत्र के मामलों की सुनवाई हुई। बटुकेश्वर दत्त को देशनिकाले की और भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरू को फाँसी की सजा हुई। बेहिसाब क्रूरता के बावजूद ब्रिटिश सरकार उनके हौसलों को पस्त नहीं कर पायी। सुश्री राज्यम सिन्हा ने अपने पति विजय कुमार सिन्हा की याद में एक किताब लिखी। किताब का नाम है “एक क्रांतिकारी के बलिदान की खोज।” इस पुस्तक में उन्होंने विजय कुमार सिन्हा और उनके दोस्त भगत सिंह के बारे में कुछ मार्मिक बातें लिखी हैं। इन क्रांतिकारी साथियों ने कोर्ट में हथकड़ी पहनने से इन्कार कर दिया था। कोर्ट मान भी गयी, लेकिन अपने दिये हुए वादे का आदर नहीं कर पायी। जब कैदी कोर्ट में घुसे तो झड़प शुरू हो गयी और फिर बेहिसाब क्रूरता और हिंसा हुई। - “जब पुलिस को यह लगा कि उनकी इज्जत पर बट्टा लग रहा है तो पठान पुलिस के विशेष दस्ते को बुलाया गया जिन्होंने निर्दयता के साथ कैदियों को पीटना शुरू किया। पठान पुलिस दस्ता अपनी क्रूरता के लिए खास तौर पर जाना जाता था। भगत सिंह के ऊपर आठ पठान दरिंदे झपटे और अपने कँटीले बूटों से उन्हें ठोकर मारने लगे। यही नहीं, उनपर लाठियाँ भी चलाई गयीं। एक यूरोपियन अफसर राबर्टस ने भगत सिंह की ओर इशारा करते हुए कहा कि यही वो आदमी है, इसे और मारो। पिटाई के बाद वे इन क्रांतिकारियों को घसीटते हुए ऐसे ले गये, जैसे भगत सिंह लकड़ी के ठूँठ हों। उन्हें एक लकड़ी की बेंच पर पटक दिया गया। ये सारा हँगामा कोर्ट कंपाउंड के भीतर बहुतेरे लोगों के सामने हुआ। मजिस्ट्रेट खुद भी यह नजारा देख रहे थे। लेकिन उन्होंने इसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की। उन्होंने बाद में बहाना यह बनाया कि वे कोर्ट के प्रमुख नहीं थे, इसलिए पुलिस को रोकना उनकी जिम्मेदारी नहीं थी।
भगत सिंह उस समय केवल बाईस वर्ष के थे लेकिन उनकी बुलंद शख्सियत ने ब्रिटिश सरकार को दहला दिया था। ब्रिटिश सरकार उन आतंकवादी गुटों से निपटना तो जानती थी, जिनका आतंकवाद उलझी हुई धार्मिक व राष्ट्रवादी विचारधारा पर आधारित होता था। लेकिन जब हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन हो गया और भगत सिंह उसके मुख्य विचारक बन गये तो ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार दहशत में आ गयी। भगत सिंह के परिपक्व विचार जेल और कोर्ट में उनकी निर्भीक बुलंद आवाज के सहारे सारे देश में गूँजने लगे। देश की जनता अब उनके साथ थी। राजनीतिक कैदियों के साथ जेलों में जिस तरह का अमानवीय बर्ताव किया जाता था, उसके खिलाफ भगत सिंह ने जंग छेड़ दी और बार-बार भूख हड़ताल की। उनका एक प्यारा साथी जतिन दास ऐसी ही एक भूख हड़ताल के दौरान लाहौर जेल में अपने प्राण गँवा बैठा। जब उसके शव को लाहौर से कलकत्ता ले जाया गया, तो लाखों का हुजूम कॉमरेड को आखिरी सलामी देने स्टेशन पर उमड़ आया। कांग्रेस पार्टी का इतिहास लिखने वाले बी। पट्टाभिरमैया के अनुसार इस दौरान भगत सिंह और उनके साथियों की लोकप्रियता उतनी ही थी, जितनी महात्मा गांधी की !
जेल में अपनी जिन्दगी के आखिरी दिनों में भगत सिंह ने बेहिसाब पढ़ाई की। यह जानते हुए भी कि उनके राजनीतिक कर्मों की वजह से उन्हें फाँसी होने वाली है, वे लगातार पढ़ते रहे। यहाँ तक कि फाँसी के तख्ते पर जाने के कुछ समय पहले तक वे लेनिन की एक किताब पढ़ रहे थे, जो उन्होंने अपने वकील से मँगायी थी। पंजाबी क्रांतिकारी कवि पाश ने भगत सिंह को श्रध्दांजलि देते हुए लिखा है, “लेनिन की किताब के उस पन्ने को, जो भगत सिंह फाँसी के तख्ते पर जाने से पहले अधूरा छोड़ गये थे, आज के नौजवानों को पढ़कर पूरा करना है।” गौरतलब है कि पाश अपने प्रिय नेता के बलिदान वाले दिन, 23 मार्च को ही खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा मार दिये गये।भगत सिंह ने जेल में रहते हुए जो चिट्ठियॉं लिखते थे, उनमें हमेशा किताबों की एक सूची रहती थी। उनसे मिलने आने वाले लोग लाहौर के द्वारकादास पुस्तकालय से वे पुस्तकें लेकर आते थे। वे किताबें मुख्य रूप से मार्क्सवाद, अर्थशास्त्र, इतिहास और रचनात्मक साहित्य की होती थीं। अपने दोस्त जयदेव गुप्ता को 24 जुलाई 1930 को जो ख़त भगत सिंह ने लिखा, उसमें कहा कि अपने छोटे भाई कुलबीर के साथ ये किताबें भेज दें : 1) मिलिटेरिज्म (कार्ल लाईबनि), 2) व्हाई मेन फाईट (बर्न्टेड रसेल), 3) सोवियत्स ऐट वर्क 4) कॉलेप्स ऑफ दि सेकेण्ड इंटरनेशनल 5) लेफ्ट विंग कम्यूनिज्म (लेनिन) 6) म्युचुअल एज (प्रिंस क्रॉप्टोकिन) 7) फील्ड, फैक्टरीज एण्ड वर्कशॉप्स, 8) सिविल वार इन फ्रांस (मार्क्स), 9) लैंड रिवोल्यूशन इन रशिया, 10) पंजाब पैजेण्ट्स इन प्रोस्पेरिटी एण्ड डेट (डार्लिंग) 11) हिस्टोरिकल मैटेरियलिज्म (बुखारिन) और 12) द स्पाई (ऊपटॉन सिंक्लेयर का उपन्यास)
भगत सिंह औपचारिक रूप से ज्यादा पढ़ाई या प्रशिक्षण हासिल नहीं कर पाए थे, फिर भी उन्हें चार भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने पंजाबी, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं में लिखा है। जेल से मिले उनके नोटबुक में 108 लेखकों के लेखन और 43 किताबों में से चुने हुए अंश मौजूद हैं। ये अंश मुख्य रूप से मार्क्स और एंगेल्स के लेखन से लिए गए हैं। उनके अलावा उन्होंने थॉमस पाएन, देकार्ट, मैकियावेली, स्पिनोजा, लार्ड बायरन, मार्क ट्वेन, एपिक्यूरस, फ्रांसिस बेकन, मदन मोहन मालवीय और बिपिन चंद्र पाल के लेखन के अंश भी लिए हैं। उस नोटबुक में भगत सिंह का मौलिक एवं विस्तृत लेखन भी मिलता है, जो “दि साईंस ऑफ दि स्टेट” शीर्षक से है। ऐसा लगता है कि भगत सिंह आदिम साम्यवाद से आधुनिक समाजवाद तक समाज के राजनीतिक इतिहास पर कोई किताब या निबंध लिखने की सोच रहे थे। जिस बहादुरी और दृढ़ता के साथ भगत सिंह ने मौत का सामना किया, आज के नौजवानों के सामने उसकी दूसरी मिसाल चे ग्वारा ही हो सकते हैं। चे ग्वारा ने क्रांतिकारी देश क्यूबा में मंत्री की सुरक्षित कुर्सी को छोड़कर बोलिविया के जंगलों में अमेरिकी साम्राज्यवाद से लड़ने का विकल्प चुना। चे ग्वारा राष्ट्रीय सीमाएँ लाँघकर लातिनी अमेरिका के लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाते थे। ये सच है कि चे ग्वारा का व्यक्तिगत अनुभव भगत सिंह की तुलना में बहुत ज्यादा विस्तृत था, और उसी वजह से उनके विचार भी अधिक परिपक्व थे। लेकिन क्रांति के लिए समर्पण और क्रांति का उन्माद दोनों ही नौजवान साथियों में एक जैसा था। दोनों ने साम्राज्यवाद और पूँजीवादी शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ी। दोनों ने ही अपने उस मकसद के लिए जान दे दी, जो उन्हें अपनी जिन्दगी से भी ज्यादा प्यारा था।
20 मार्च 1931 को, अपने शहादत के ठीक तीन दिन पहले भगत सिंह ने पंजाब के गवर्नर को एक चिट्ठी लिखी, “हम यह स्पष्ट घोषणा करें कि लड़ाई जारी है। और यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक हिन्दुस्तान के मेहनतकश इंसानों और यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा का कुछ चुने हुए लोगों द्वारा शोषण किया जाता रहेगा। ये शोषक केवल ब्रिटिश पूँजीपति भी हो सकते हैं, ब्रिटिश और हिन्दुस्तानी एक साथ भी हो सकते हैं, और केवल हिन्दुस्तानी भी। शोषण का यह घिनौना काम ब्रिटिश और हिन्दुस्तानी अफसरशाही मिलकर भी कर सकती है, और केवल हिन्दुस्तानी अफसरशाही भी कर सकती है। इनमें कोई फर्क नहीं है। यदि तुम्हारी सरकार हिन्दुस्तान के नेताओं को लालच देकर अपने में मिला लेती है, और थोड़े समय के लिए हमारे आंदोलन का उत्साह कम भी हो जाता है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि हिन्दुस्तानी आंदोलन और क्रांतिकारी पार्टी लड़ाई के गहरे अँधियारे में एक बार फिर अपने-आपको अकेला पाती है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लड़ाई फिर भी जारी रहेगी। लड़ाई फिर से नये उत्साह के साथ, पहले से ज्यादा मुखरता और दृढ़ता के साथ लड़ी जाएगी। लड़ाई तबतक लड़ी जाएगी, जबतक सोशलिस्ट रिपब्लिक की स्थापना नहीं हो जाती। लड़ाई तब तक लड़ी जाएगी, जब तक हम इस समाज व्यवस्था को बदल कर एक नयी समाज व्यवस्था नहीं बना लेते। ऐसी समाज व्यवस्था, जिसमें सारी जनता खुशहाल होगी, और हर तरह का शोषण खत्म हो जाएगा। एक ऐसी समाज व्यवस्था, जहाँ हम इंसानियत को एक सच्ची और हमेशा कायम रहने वाली शांति के दौर में ले जाएँगे......... पूँजीवादी और साम्राज्यवादी शोषण के दिन अब जल्द ही खत्म होंगे। यह लड़ाई न हमसे शुरू हुई है, न हमारे साथ खत्म हो जाएगी। इतिहास के इस दौर में, समाज व्यवस्था के इस विकृत परिप्रेक्ष्य में, इस लड़ाई को होने से कोई नहीं रोक सकता। हमारा यह छोटा सा बलिदान, बलिदानों की श्रृंखला में एक कड़ी होगा। यह श्रृंखला मि। दास के अतुलनीय बलिदान, कॉमरेड भगवतीचरण की मर्मांतक कुर्बानी और चंद्रशेखर आजाद के भव्य मृतयुवरण से सुशोभित है।”
उसी 20 मार्च्र के दिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने दिल्ली की एक आम सभा में कहा, “आज भगत सिंह इंसान के दर्जे से ऊपर उठकर एक प्रतीक बन गया है। भगत सिंह क्रांति के उस जुनून का नाम है, जो पूरे देश की जनतापर छा गया है।”फ्री प्रेस जर्नल ने अपने 24 मार्च 1931 के संस्करण में लिखा, “शहीद भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव आज जिन्दा नहीं हैं। लेकिन उनकी कुर्बानी में उन्हीं की जीत है, यह हम सबको पता है। ब्रिटिश अफसरशाही केवल उनके नश्वर शरीर को ही खत्म कर पायी, उनका जज्बा आज देश के हर इंसान के भीतर जिन्दा है। और इस अर्थ में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव अमर हैं। अफसरशाही उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। इस देश में शहीद भगत सिंह और उनके साथी स्वतंत्रता के लिए दी गयी कुर्बानी के लिए हमेशा याद किए जाएँगे। “सचमुच, 1931 के ब्रिटिश राज के उन आकाओं और कारिंदों की याद आज किसी को नहीं, लेकिन तेईस साल का वह नौजवान, जो फाँसी के तख्ते पर चढ़ा, आज भी लाखों दिलों की धड़कन है।” आज अगर हम भगत सिंह की जेल डायरी और कोर्ट में दिये गये वक्तव्य पढ़ें, और उसमें से केवल “ब्रिटिश” शब्द को हटाकर उसकी जगह “अमेरिकन” डाल दें, तो आज का परिदृश्य सामने आ जाएगा। भगत सिंह के जेहन में यह बात बिल्कुल साफ थी, कि शोषक ब्रिटिश हों या हिन्दुस्तानी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आज लालच के मारे हिन्दुस्तानी नेता और अफसर अमरीकी खेमे में जा घुसे हैं। लेकिन भगत सिंह के ये शब्द हमारे कानों में गूँज रहे हैं - “लड़ाई जारी रहेगी।” आज के बोलिविया में चे ग्वारा और अलान्दे फिर जीवित हो उठे हैं। लातिनी अमेरिका की इस नयी क्रांति से अमरीका सहम गया है। उसी तरह हिन्दुस्तान में भगत सिंह के फिर जी उठने का डर बुशों और ब्लेयरों को सताता रहे।
विपिन चंद्र ने सही लिखा है कि हम हिन्दुस्तानियों के लिए यह बड़ी त्रासदी है कि इतनी विलक्षण सोच वाले व्यक्ति के बहुमूल्य जीवन को साम्राज्यवादी शासन ने इतनी जल्दी खत्म कर डाला। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद ऐसे घिनौने काम करता ही है, चाहे हिन्दुस्तान हो या वियतनाम, इराक हो, फिलीस्तीन हो या लातिन अमरीका। लेकिन लोग इस तरह के जुर्मों का बदला अपनी तरह से लेते हैं। वे अपनी लड़ाई और ज्यादा उग्रता से लड़ते हैं। आज नहीं तो कल, लड़ाई और तेज होगी, और ताकतवर होगी। हमारा काम है क्रांतिकारियों की लगाई आग को अपने जेहन में ताजा बनाए रखना। ऐसा करके हम अपनी कल की लड़ाई को जीतने की तैयारी कर रहे होते हैं।
(लेखक, श्री चमनलाल, प्राध्यापक, जे एन यू, दिल्ली/अनुवादक सुश्री जया मेहता)
यह आलेख इंदौर से विनीत भाई ने उपलब्ध कराया। () () ()
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2 comments:
भगत सिंह, जिसका नाम लेते खून में उबाल आता है, सरफरोशी की तमन्ना का ख्याल आता है
बहुत ही अच्छा, ज्ञानवर्धक लेख उपलब्ध करने के लिए धन्यवाद.
भगत सिंह किसी राजनैतिक दल के सदस्य नहीं थे और सम्भवतः नहीं यकीनन यही कारण है कि उनका जन्म दिन, पुण्य तिथि किसी भी सरकारी संगठन या राजनैतिक दल ने समारोह के रूप में स्थापित करने को नहीं सोचा. फिर उनके जो विचार थे, वो स्वार्थ की नीति के खिलाफ थे. यहाँ आंवे का आंवा ही टेढ़ा है. जिन लोगों ने अंग्रेजों की दलाली की, आज उनमें से अधिकाँश के वंशज सत्ता सुख भोग रहे हैं.
रही बात युवा पीढी की, उसके अपने सरोकार हैं. उसे तो आज़ादी प्लेट में सजी सजाई मिल गयी थी. उसे माइकल जैक्सन, शकीरा, नेट, बैक, विदेशी कम्पनियों के पैकेज से मतलब है. क्या आज के हालात ब्रिटिश हुकूमत से भिन्न हैं? अँगरेज़ तो इस देश की सम्पदा अपने देश को भेज कर उसे समृद्ध कर रहे थे लेकिन देसी हुक्मरान तो अपनी झोली भर रहे हैं.
अभिभावक, अपने लाडलों को टी.वी. चैनलों का स्टार बनाने के लिए मरे जा रहे हैं. क्या एक भी बन्दा ढूंढें से मिलेगा जो अपने बच्चे को भगत सिंह बनाने की अभिलाषा रखता हो! किसी का एक शेर याद आता है----
"याद क्यों रहता है सब को इन्कलाब
एक बेटा अपना खो कर देखिए".
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