नमस्कार ,
मैं सोनल रस्तोगी ..जन्म जीवनदायिनी गंगा के तीर "फर्रुखाबाद " में, बचपन में बुआ ने साहित्य के प्रति रूचि को पहिचाना तो माँ,अध्यापिकाओ ने प्रोत्साहन दिया,हर वक्त मन में कुछ ना कुछ चलता रहता है जब उसपर ध्यान देकर लेखनी थाम लेती हूँ तो माँ शारदा के आशीर्वाद स्वरुप कुछ सार्थक बन जाता है वरना विचार समय की नदी की धार में बह जाते है जो खोजने पर भी नहीं मिलते. परिकल्पना ब्लोगोत्सव हेतु आज प्रस्तुत है मेरी रचना "बिना जुर्म सजा पाई है " यह समाज में आये दिन होने वाले एसिड अटैक पर आधारित है ......
!! बिना जुर्म सज़ा पाई है !!
चुनरी सहेज दी है
जो गुडिया को उढाई थी
कद बढ़ते ना जाने कब
मेरे सर पर सरक आई थी
माँ ने सितारे टांके थे
मन्नतों के दुआओं के
काला टीका लगाया था
दूर रहे बुरी बलाओं से
पर .....................
आते जाते बुरी नज़र गड गई
एक पल के हादसे में
उसकी रंगत उजाड़ गई
दुआए ना बचा सकी
मेरा चेहरा तेज़ाब से
आज भी मवाद रिसता है
चुनरी के ख्वाब से
आज..........................
चीथड़े समेटकर
डस्टबिन में डाले है
झुलसी थी रात
आगे तो उजाले है
अतीत के निशाँ आईने में
रोज़ देखना दुखदाई है
कैसी मुजरिम हूँ मैं
जो बिना जुर्म सज़ा पाई है
() () ()
परिकल्पना पर पुन: वापस जाएँ
10 comments:
Dil ko chhu gayi aapki Kavita.
एक मार्मिक अभिव्यक्ति....
कुंवर जी,
जीवन के नग्न सत्य को उद्घाटित करती सार्थक रचना। हार्दिक बधाई।
गहन अभिव्यक्ति
सार्थक रचना। हार्दिक बधाई।
बहुत सुन्दर रचना
behtareeeeennn.... agal andaaz mila dekhne ko aap ka..
Ufff!! aapne kuchh panktiyon me dard ka byan bahut marmik lahje me kiya hai.....dil ko chhuti kavita.....!! god bless!!
bhagwan na kare, kisi ke saath aisa ho.......real world me, lekin aisa hota hai.........:(
उफ़!!!!......
एक निर्दोष लड़की के दर्दे ने अगर किसी एक की भी आँख नम की और हौसला दिया की इस हिंसा को रोक सके तो ये कविता अपने उद्देश्य में सफल हो जायेगी
एक टिप्पणी भेजें