मेरा नाम प्रवीण पथिक है और मैं फर्रुखाबाद से हूँ ,मैंने अपनी पढाई (R.P.D.C) से पूरी की मैं विज्ञानं स्नातक हूँ लग भाग 2 साल से मैं दिल्ली में हूँ लिखना मेरी आदत है और मैं अन्तरमन के अनुभव और सामाजिक समस्याओ के बारे में लिखता हूँ मुझे नहीं पता की मैं कैसा लिखता हूँ न ही मैंने कभी किसी अखबार या पत्रिका में इसे छ्पबाने का प्रयाश किया मैं ये सब अपने अंतर्मन की ख़ुशी के लिए लिखता हूँ पर एक दिन मुझे लगा की की मैं जो लिखता हूँ अगर उस पर और लोगो की राय ले ली जाए तो कैसा रहे गा दर अशल येसा विचार मेरे मन तब आया जब मैं देश के बारे में कुछ करने की सोच रहा था देश भक्ति की भावना भी मेरे मन में बहुत प्रबल है और मुझे लगता है की हम अगर लाखो बार जनम ले कर भी देश के लिए अपनी जान निछाबर करे फिर भी हम देश के कर्ज से मुक्त नहीं हो सकते है , तो मैंने सोचा की अगर मेरी कविताओं से मेरे विचारो से लोगी को जरा भी देश भक्ति की प्रेरणा मिले तो मेरा लिखना धन्य हो जाए..आज इस ब्लॉग उत्सव में मैं भी अपनी एक कविता के साथ उपस्थित हूँ-
चीत्कार भरी बाणी में धुन कैसे लाऊं
तुम कहते हो गीतों में,,,
अभिनन्दन दूँ ,,,
बाणी की मृदुल व्यंजना से ,,
वंदन दूँ ,,,,,
क्यों ह्रदय शूलता को,,,
नहीं समझते हो मित्रो ?
क्यों गहन मौनता को ,,
नहीं समझते हो मित्रो ?
जब ह्रदय वेदनाकुल हो ,
फिर गीतों को कैसे गाऊं?
जब चीत्कार भरी हो बाणी में ,,
फिर उसमे धुन कैसे लाऊं ?
जब अंतस में भास्मातुर,,,
ज्वाला हो ,,,,
जब लहू बन चुका क्रोधातुर,,
हाला हो ,,,
जब आँखों से केवल ,,
लपटे निकल रही हो ,,,
जब शब्दों में केवल ,,,
डपटे निकल रही हो ...
ऐसे जंगी मौसम में मैं ,,,
प्रेमातुर गीत नहीं गा सकता ,,,
इन युद्घ गर्जनाओं में मैं ,,,,
संगीत नहीं ला सकता ,,,
जब पीड़ित जन के आंसू ,,
मेरी बाणी का संबाद बने हो ,,
जब मेरे जीवन जीने का ,,
स्तम्भन भी अवसाद बने हो ,,,
जब शब्दों में दुखियारों का,,,
रुदन गूंजता हो ,,,,,
जब आँखों में बेचारों का,,,
सदन घूमता हो ,,,,
तब मैं प्रेमी पथ का ,,,
पथगामी कैसे बन जाऊं ,,,
तब मैं मानो मनुहारों का ,,,,
अनुगामी कैसे बन जाऊं ,,,
मैं कविता नहीं सुनाता ,,,
उनके आंसू रोता हूँ ,,,
वो पीते है जिनको पल पल,,,
मैं वो आंसू खोता हूँ ,,,,
घुट घुट जीते धरती पुत्रो की,,,
मैंने तंगी देखी है,,,
रोटी की गिनती करती ,,
तस्वीरे नंगी देखी है ,,,,
बचपन में बूढे होते बच्चो की ,,,
तकदीरे अधरंगी देखी है ,,,,
अब शब्द शब्द संजालो से ,,,
भर गीत कहाँ से लाऊं ,,,
जब ह्रदय वेदनाकुल है ,,,
फिर गीतों को कैसे गाऊं ,,,
अब तो मन करता है इनके रोने में ,,,
अपना क्रन्दन दूँ ,,,,
तब तुम कहते हो गीतों में,,,
अभिनन्दन दूँ,,,,
() () ()
परिकल्पना पर पुन: वापस जाएँ
7 comments:
ek naayaab kavita..sahi kaha aisi parasthitiyon me shringaar ki baat kaise karein...bahut khoob
क्यों ह्रदय शूलता को,,,
नहीं समझते हो मित्रो ?
क्यों गहन मौनता को ,,
नहीं समझते हो मित्रो ?
गहन मौन ही शब्द बांटे हैं, अनकही बातें कहते हैं
nice post
जंगी मौसम में भी प्रेमगीत गाने की सम्भावना बची होनी चाहिए ....युद्ध शांति का पर्याय नहीं ...युद्ध के बाद प्रेम ही नवसृजन का आधार होगा ...इसलिए तू लड़ ...पर प्रेम से मत डर ...
अच्छी कविता ...!!
उम्दा प्रस्तुती ,आपको अनेक शुभकामनायें /
सुन्दर रचना
कर वन्दन अभिनन्दन
जान न्यौछावर कर दे
राही तू गीतों के माध्यम से
चीत्कार हर दिल में भर दे
गज़ब की प्रस्तुति………………ऐसे ही जन जागरण होता है।
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