सुरेश यादव एक  चिट्ठाकार  के  साथ-साथ समर्पित रचनाकार भी हैं . इन्होने   विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का अवैतनिक सम्पादन किया जिनमें 'संधान','सर्वहिताय' एवं 'सहजानन्द' प्रमुख हैं। प्रथम कविता संग्रह - 'उगते अंकुर' वर्ष 1981 में प्रकाशित हुआ। दूसरा कविता संग्रह -'दिन अभी डूबा नहीं' वर्ष 1986 में प्रकाशित हुआ और इस चर्चित कविता संग्रह पर 'हिन्दी अकादमी, दिल्ली' की ओर से वर्ष 1987 के लिए 'साहित्यिक कृति' सम्मान प्रदान किया गया। तीसरा काव्य संग्रह - 'चिमनी पर टंगा चांद' हाल ही में शिल्‍पायन से प्रकाशित हुआ है। सुरेश यादव की कविताओं का अंग्रेजी, बंगला एवं पंजाबी भाषाओं में अनुवाद विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है। अकाशवाणी, दिल्ली तथा दिल्ली दूरदर्शन पर कविताओं का निरन्तर प्रसारण। हिन्दी अकादमी के 1987 के सम्मान के अतिरिक्त वर्ष 2004 के 'रांगेय राघव सम्मान' एवं अन्य सम्मान । प्रस्तुत है इस अवसर पर उनकी दो कविताएँ--











शुरू करो नाटक


भूमिका नहीं
अब -
शुरू करो नाटक
बहुत देर हो चुकी है
दर्शकों की भीड़
रह-रह कर
सीधी करने लगी है अपनी रीढ़
उबाऊ हो चली है
जमुहाई लेते हुए
अंगड़ाते घोड़े की मुद्रा में
कुर्सियों के सहारे खड़े हो रहे हैं दर्शक
बिगड़ाने लगे पात्रों के मेकअप
और वे भूलने लगे अपने संवाद
चरित्र घुलने लगे
एक दूसरे में बेताबी से
भूलने लगे अभिनय अपना
भटकती हुई आशंकाएं अब -
दहशत में बदलने लगी हैं
जल्दी शुरू करो नाटक - अब
मुद्राएँ पात्रों की
मूक संवादों में ढलने लगी हैं










कटे हाथ

हर बार
कटे हाथों की प्रदर्शनी में
जो लोग खुश होते हैं
और
हंसी के ठहाके भी लगते हैं
उनके अपने कन्धों पर
होते नहीं अक्सर अपने हाथ
इसी मजबूरी में वे-
तालियाँ नहीं बजा पाते हैं.
झूम झूम कर गाते हैं. 
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5 comments:

mala ने कहा… 26 मई 2010 को 8:11 pm बजे

सही व सटीक लगा..बहुत बढिया

गीतेश ने कहा… 26 मई 2010 को 8:14 pm बजे

मानवीय जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर करती रचना हेतु शुभकामनाएं।

डॅा. व्योम ने कहा… 20 जून 2010 को 8:29 am बजे

सुरेश यादव की कविताएँ बहुत कुछ कह रही हैं। शुरू करो नाटक कविता में गजब की संप्रेषणीयता है।

-डा० जगदीश व्योम

Asha Joglekar ने कहा… 18 जुलाई 2010 को 9:56 am बजे

दोनों ही कविताएं जबरदस्त ।

 
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