पिछले दिनों हम शब्द-सृजन की ओर...
और डाकिया डाक लाया ब्लॉग के संचालक साहित्यकार / समीक्षक श्री के० के० यादव के आलेख "बदलते दौर में साहित्य" के प्रकाशन के दौरान इनका संक्षिप्त परिचय दे चुके हैं ।आज हम उनका साहित्यिक परिचय कराते हुए बिना किसी भूमिका के प्रस्तुत कर रहे हैं उनका दूसरा आलेख :
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और डाकिया डाक लाया ब्लॉग के संचालक साहित्यकार / समीक्षक श्री के० के० यादव के आलेख "बदलते दौर में साहित्य" के प्रकाशन के दौरान इनका संक्षिप्त परिचय दे चुके हैं ।आज हम उनका साहित्यिक परिचय कराते हुए बिना किसी भूमिका के प्रस्तुत कर रहे हैं उनका दूसरा आलेख :
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कृष्ण कुमार यादव:सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक।प्रशासन के साथ हिंदी साहित्य में भी दखलंदाजी. जवाहर नवोदय विद्यालय-आज़मगढ़ एवं तत्पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1999 में राजनीति-शास्त्र में परास्नातक. समकालीन हिंदी साहित्य में नया ज्ञानोदय, कादम्बिनी, सरिता, नवनीत, आजकल, वर्तमान साहित्य, उत्तर प्रदेश, अकार, लोकायत, गोलकोण्डा दर्पण, उन्नयन, दैनिक जागरण, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, स्वतंत्र भारत, आज, द सण्डे इण्डियन, इण्डिया न्यूज,शुक्रवार, अक्षर पर्व, युग तेवर, मधुमती, गोलकोंडा दर्पण, इन्द्रप्रस्थ भारती, शेष, अक्सर, आधारशिला इत्यादि सहित 250 से ज्यादा पत्र-पत्रिकाओं व सृजनगाथा, अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, रचनाकार, लिटरेचर इंडिया, हिंदीनेस्ट, कलायन इत्यादि वेब-पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में रचनाओं का प्रकाशन. आकाशवाणी पर कविताओं के प्रसारण के साथ तीन दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित काव्य-संकलनों में कवितायेँ प्रकाशित. एक काव्यसंकलन "अभिलाषा" सहित दो निबंध-संकलन "अभिव्यक्तियों के बहाने" तथा "अनुभूतियाँ और विमर्श" एवं संपादित कृति "क्रांति-यज्ञ" का प्रकाशन. व्यक्तित्व-कृतित्व पर "बाल साहित्य समीक्षा(कानपुर)" व "गुफ्तगू(इलाहाबाद)" पत्रिकाओं द्वारा विशेषांक जारी.शोधार्थियों हेतु व्यक्तित्व-कृतित्व पर इलाहाबाद से "बढ़ते चरण शिखर की ओर : कृष्ण कुमार यादव" (सं0- दुर्गाचरण मिश्र) प्रकाशित.
-----------------------------------------------------------------------------------------------आलेख :
!! शाश्वत है भारतीय संस्कृति और इसकी विरासत !!
() के० के० यादव
किसी भी राष्ट्र की उन्नति का सीधा सम्बन्ध उसकी संस्कृति से होता है। संस्कृति ही वह तत्व है जो एक राष्ट्र की परम्पराओं को अन्य से अलग करते हुए उसे एक विशिष्ट पहचान देती है। भारत प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक गतिविधियों और परम्पराओं में वि”व का अग्रणी रा’ट्र रहा है। जब समग्र विश्व की सभी सभ्यतायें प्रगति के शैशव काल में विचरण कर रही थीं, तब भारतीय ऋषि तत्व ज्ञान की गहन मीमांसा, चिंतन एवं मनन में लीन थे- ज्ञानं तृतीयं मनुजस्य नेत्रं समस्ततत्वार्थ विलोकिदक्षम्। तेजोड्नपेक्षं विगतान्तरायं प्रवृतित्त मत्सर्व जगत्त्रयोपि।। (सुभाषित रत्न संग्रह:पृष्ठ -१९४)। प्राचीन भारतीय चिन्तकों, ऋषि-मुनियों, विचारकों व विद्वानों ने देश में सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक-धार्मिक-आध्यात्मिक इत्यादि क्षेत्रों में ऐसी गतिविधियों की नींव रखी, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होकर अक्षुण्ण परम्पराओं के कालक्रम में सदैव जीवंत रहीं।यही कारण था कि समय-समय पर तमाम आक्रमणकारियों ने भारतीय संस्कृति पर हमला करना चाहा, पर अपनी निरन्तरता और जीवन्तता के चलते भारतीय संस्कृति ने उन सभी को आत्मसात् कर लिया। विश्व प्रसिद्द तमाम विद्वानों और मनीषियों ने भारतीय संस्कृति की गहराई को परखने के लिए यहाँ आकर अध्ययन किया और इसकी महिमा अपने देशों तक फैलायी। इकबाल ने यूँ ही नहीं कहा कि- "सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा......... सदियों रहा है दु”मन दौरे जहां हमारा, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, ।"
यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जिस भारतीय संस्कृति ने विश्व को राह दिखाई एवं दुनिया के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद, वेदों की एक लाख श्रुतियों, उपनिषदों के ज्ञान, महाभारत के राजनैतिक दर्शन , गीता की समग्रता, रामायण के रामराज्य, पौराणिक जीवन दर्शन एवं भागवत दर्शन से लेकर संस्कृति के तमाम अध्याय रचे, आज उसी संस्कृति को पाश्चात्य संस्कृति से खतरा उत्पन्न होने लगा है। जिस देववाणी संस्कृत में संस्कृति के तमाम अध्यायों की रचना हुई, उसी का विरोध किया जाने लगा। वस्तुत: भारतीय परिप्रेक्ष्य में संस्कृत मात्र भाषा का पर्याय नहीं है बल्कि भारत का स्वर्णिम अतीत और भारतीय संस्कृति की अद्भुत जीवन्त अभिव्यक्ति का पर्याय है। संस्कृत में अध्यात्म, दर्शन , न्याय, संगीत, विज्ञान, गणित, तर्कशास्त्र , चिकित्सा, खगोल विद्या, अर्थशास्त्र , भौतिक विज्ञान, रसायन शास्त्र , वितरण विधि सभी सन्निहित हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३५१ में संविधानविदों ने भी सम्मिलित किया है कि - "हिन्दी भाषा के शब्द भण्डार की मुख्यत: संस्कृत आखिर यूं ही संस्कृत को इण्डो-यूरोपियन भाषाओं की जननी नहीं कहा जाता।
वस्तुत: हम भारतीय अपनी परम्परा, संस्कृति , ज्ञान और यहाँ तक कि महान विभूतियों को तब तक खास तवज्जो नहीं देते जब तक विदेशों में उसे न स्वीकार किया जाये। यही कारण है कि आज यूरोपीय राष्ट्रों और अमेरिका में योग, आयुर्वेद, शाकाहार , प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, होम्योपैथी और सिद्धा जैसे उपचार लोकप्रियता पा रहे हैं जबकि हम उन्हें बिसरा चुके हैं। हमें अपनी जड़ी-बूटियों, नीम, हल्दी और गोमूत्र का ख्याल तब आता है जब अमेरिका उन्हें पेटेंट करवा लेता है। योग को हमने उपेक्षित करके छोड़ दिया पर जब वही ‘योगा’ बनकर आया तो हम उसके दीवाने बने बैठे हैं। हाल ही में जब यह खबर आयी कि भारतीय मूल के विक्रम चौधरी द्वारा अमेरिका में योग का पेटेण्ट कराने हेतु आवेदन किया गया है तो भारत को अपनी धरोहर का ख्याल आया और इसके बाद आरम्भ हुआ योग की संस्कृत भाषा की शब्दावली को विभिन्न विदेशी भाषाओं में अनुवाद करने का ताकि हम जोर देकर कह सकें कि योग विदेशियों का नहीं बल्कि हमारी संस्कृति का अंग है। अब डिपार्टमेन्ट आफ आयुर्वेद, योग और नैचुरोपैथी, यूनानी, सिद्ध तथा होम्योपैथी के साथ मिलकर मोरार जी देसाई नॅशनल इन्स्टिट्युट आफ योग एवं पुणे का केवल धाम मिलकर योग के विभिन्न आसनों और योगिक क्रियाओं के संस्कृत नामों का अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मनी सहित पाँच भाषाओं में अनुवाद कर रहे हैं। हाल ही में मानव संसाधन विकास पर संसद की एक स्थायी समिति ने भी स्कूलों में योग शिक्षा आरम्भ करने पर जोर दिया। आँकड़ों पर गौर करें तो विदेशियों में दिनों-ब-दिन आयुर्वेदित दवाओं की माँग बढ़ती जा रही है। मौजूदा समय में प्रतिवर्ष ३००० करोड़ रुपये की आयुर्वेदित दवाइयाँ और इससे सम्बन्धित उत्पादों का भारत द्वारा विदेशियों को निर्यात किया जा रहा है। अमेरिका, ब्रिटेन, स्पेन, रूस और आस्ट्रेलिया को किये जाने वाले निर्यात में औसतन २५ फीसदी की बढ़ोत्तरी हो रही है। पाश्चात्य संस्कृति में पले-बसे लोग भारत आकर संस्कार और मंत्रोच्चार के बीच विवाह के बन्धन में बँधना पसन्द कर रहे हैं और हमें अपने ही संस्कार दकियानूसी और बकवास लगते हैं। हाल ही में अमेरिका स्थित नेवादा विश्वविद्यालय में दूसरी सालाना इण्टरफेथ बक्कालॉरीट सर्विस के दौरान हिन्दू धर्म ग्रन्थों के श्लोकों और मंत्रों का जाप किया गया। इसका उद्देश्य स्नातक कक्षा में पहुँचने वाले छात्रों द्वारा सपरिवार ईश्वर के प्रति आभार प्रकट करना था। वर्ष २००७ में अमेरिका के तमाम प्रान्तों की विधानसभाओं का सत्र और अमेरिकी सीनेट का सत्र हिन्दू वैदिक मंत्रोच्चार की गूँज के साथ आरम्भ हुआ। यही नहीं अमेरिकी गिरजाघरों में भी ऋग्वेद के मंत्र और भगवद्गीता के श्लोक गूंजने लगे हैं वर्ष २००७ में ही थैंक्सगिविंग डे पर नेवादा प्रान्त में रेनो स्थित एपिस्कोपल गिरिजाघर में वैदिक मंत्रोच्चार के साथ लोगो ने मानव जीवन धन्य बनाने के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया। इन सबसे प्रभावित होकर अमेरिका के रूट्जर्स विश्वविद्यालय ने हिन्दू धर्म से सम्बन्धित छ: पाठ्यक्रम आरम्भ करने का फैसला लिया है, वाचन परम्परा, हिन्दू संस्कार महोत्सव, हिन्दू प्रतीक, हिन्दू दर्शन एवं हिन्दुत्व तथा आधुनिकता जैसे पाठ्यक्रम शामिल होंगे तथा नान क्रेडिट कोर्स में योग और ध्यान तथा हिन्दू शास्त्रीय और लोकनृत्य शामिल किये जायेंगे ।और-तो-और इन दिनों अमेरिका में ‘रामायण रीबॉर्न’ श्रृंखला वाली कॉमिक्स ने बैटमैन, सुपरमैन और स्पाइडरमैन को पीछे छोड़कर धूम मचा रखी है। अमेरिका की वरजिन कॉमिक्स द्वारा गॉथम कामिक्स के साथ मिलकर ३० हिस्सों वाली इस श्रृखंला के प्रकाशन में सिर्फ रामायण आधारित कॉमिक्स ही नहीं अपितु भारतीय पात्रों जैसे साधू और देवी तथा नागिन को लेकर बनी कॉमिस भी धूम मचा रही हैं। निश्चितत: कर्म, भाग्य और समय जैसी भारतीय अवधारणाओं ने फन्तासियों पर आधारित अमेरिकी कॉमिक्स बाजार में भूचाल पैदा कर दिया। पश्चिमी विज्ञान भी अब यह स्वीकारने लगा है कि भारतीय जीवन प्रतीको में दम। एक दौर में पश्चिमी देशों के लोग भारत को सपेरों व जादूगरों के देश के रूप में पहचानते थे। धर्म व अध्यात्म के रस में लिपटे प्रतीकों को वे उपहास की वस्तु समझते थे। हाल ही में अमेरिका के रिसर्च ऐंड एक्सपेरीमेंटल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइंसेज के वैज्ञानिकों ने ॐ के उच्चारण से शरीर में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया और पाया कि इसके नियमित प्रयोग से अनेक असाध्य रोग दूर हो गए।
जिस संस्कृत को बीते युग की भाषा बताया जा रहा है, उसे पाश्चात्य वैज्ञानिक कम्प्यूटर हेतु सम्पूर्णता की भाषा करार दे रहे हैं। उनकी मानें तो संस्कृत ही एकमात्र भाषा है जिसमें प्रत्येक शब्द का मूल होता है, एक भी शब्द निरर्थक नहीं होता। यह एक ऐसी भाषा है जिसमें जैसा अक्षर लिखा जाता है, वैसा ही उच्चारित किया जाता है। इसका कारण संस्कृत के व्याकरण का वैज्ञानिक और परिपूर्ण होना है। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि हमें उस मैकाले को तो किताबों में रटाया जाता है जिसने व्रिटिश भारत में अंग्रेजी को अनिवार्य बना दिया पर हमारे इतिहासविद् उन जर्मन विद्वानों का जिक्र करने से क्यों चूक जाते हैं, जिन्होंने संस्कृत भाषा साहित्य को अपनी भाषा में अनुवाद करके अपने ज्ञान को और भी समृद्ध किया एवं वेदों से विज्ञान तक ले गये। जे० विल्किंसन व जार्ज फॉस्टर जैसे पाश्चात्य विद्वानों ने श्रीमद्भागवतगीता व अभिज्ञान शाकुंतलम से प्रभावित होकर उनका अंग्रेजी में अनुवाद किया। आखिर हमारे इतिहासविदों को एशियाटिक सोसायटी के संस्थापक विलियम जोन्स का वह वक्तव्य क्यों नहीं याद आता कि संस्कृत की संरचना ग्रीक और लैटिन से अधिक पूर्ण व परिस्कृत है। संस्कृत की संरचना सचमुच अद्भुत है।" शायद यही कारण था कि १८६५ में एक राजाज्ञा के तहत लंदन की रॉयल एशियाटिक सोसायटी में संस्कृत -हिन्दी सहित भारत में मुद्रित सभी भाषाओं के अखबार, पत्रिकायें व पुस्तकें आने लगीं। आज भी अमेरिकी संसद की ‘लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस’ भारत में छपी हर किताब को तीन महीने के भीतर वहाँ मँगवा लेती है। यही नहीं सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद की ३० हस्तलिपियाँ भारत सरकार यूनेस्को के मेमोरी ऑफ वल्र्ड रजिस्टर में संरक्षित कराने का प्रयास कर रही है। पुणे स्थित भंडारकर ओरियंटल रिसर्च संस्थान में मौजूद इन हस्तलिपियों को हाल ही में कुछ संगठनों के उकसावे पर मचे बवाल से खतरा पैदा हो गया था। इस सम्बन्ध में भारत सरकार की ओर से यूनेस्को को भेजे गये प्रपत्र में कहा गया है कि- "ऋग्वेद में आर्यों द्वारा प्रकृति और उसकी उदारता में की गयी प्रार्थनायें शामिल हैं और चार वेदों में सबसे पुराना यह वेद भारतीय संस्कृति का एक स्तम्भ है।" भारत ने ऋग्वेद को ‘दुनिया के एक आश्चर्य' के तौर पर नामांकित करने का भी आग्रह किया है क्योंकि यह तीन हजार साल से ज्यादा समय से विचारधारा, महत्वाकांक्षा , अभिलाषा और मानव कल्पना की सजीव अभिव्यक्ति का परिचायक है। हाल ही में यूनेस्को के अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संस्थान के अध्यक्ष प्रो० कोरनेलियू दूमित्रयू ने कहा था कि यूनेस्को भारत की संस्कृति और सभ्यता के सन्देश को दुनिया भर में फैलाना चाहता है sanskrit और इसके लिए वह एक वृत्तचित्र भी बनायेगा। यही नहीं कालिदास के नाटकों का विदेशी भाषाओं में अनुवाद कर उनका विभिन्न देशों में मंचन भी किया जायेगा। स्वयं भारत सरकार के सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने सम्पूर्णानन्द संस्कृत वि”वविद्यालय में कम्प्यूटर पर इस्तेमाल लायक संस्कृत का कारपोरा (शब्दों का संग्रह) लगभग १२ साल पहले जर्मनी की मदद से पद्मभूषण पं० विद्यानिवास मिश्र के नेतृत्व में तैयार करवाया था। वस्तुत: कम्प्यूटर गणितीय बायनरी प्रणाली के आधार पर काम करता है। जिस तरह गणित में तीन और पांच अथवा पांच और तीन जोड़ने पर उत्तर एक ही आता है। कम्प्यूटर के लिए इसी तरह की भाषा होनी चाहिए, जिसमें कर्ता और क्रिया के उलट फेर से खास फर्क न पड़ता हो। संस्कृत इसी तरह की भाषा है। इसीलिए इसे पूर्ण भाषा कहा जाता है। इसीलिए जर्मनी के वैज्ञनिकों ने संस्कृत को कम्प्यूटर की समर्थ भाषा के रूप में विकसित करने की संभावना का पता लगाया। संस्Ñत को बैलगाड़ी युग की भाषा बताने वाले यदि स्वयं ब्रिटेन में अंग्रेजी की स्थिति पर चर्चा करें तो पायेंगे कि जब १५वीं शताब्दी में अंग्रेजी को इंग्लैड की राजभाषा घोषित किया गया तब यह अत्यन्त अविकसित और पिछड़ी हुई भाषा थी। सन् १०६६ में Ýंेच भा’ाी नारमण्डों द्वारा इंग्लंैड पर कब्जा किए जाने के बाद Ýेंच भा’ाा इंग्लैंड के राजकाज न्यायालयों व उच्च वर्ग की भाषा हो गई थी। उस समय उच्च वर्गीय सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी का प्रयोग वर्जित था और अंग्रेजी हेय व उपेक्षित समझी जाती थी। सैकड़ांे सालोंेे के अनवरत संघर्’ा के बाद अंग्रेजी १४वीं “ाताब्दी में ही न्यायालयोंं मंे çवे”ा पा सकी और १५वीं “ाताब्दी में ”िाक्षा का माध्यम बनी। प्र”ाासन, उच्च ”िाक्षा, विज्ञान आदि में अंग्रेजी १८वीं “ाताब्दी में ही पूरी तरह स्थापित हो सकी। यही कारण है कि प्र”ाासनिक, विधिक, साहित्य व रोजमर्रा के उपयोग के तमाम “ाब्द अंग्रेजी ने Ýेंच व लैटिन से लिए। १९८५ के दौरान अमेरिका के प्रसिद्ध नासा वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स ने अपने आलेख ‘संस्कृत एण्ड आर्टिफिसियल इण्टेलीजेन्स’ में प्रतिपादित भी किया कि -"संस्कृत एक अद्वितीय भाषा है। संस्कृत का प्रयोग प्रयाप्त होते हुए भी कृत्रिम भाषा के रूप में किया जा सकता है। यह अविश्वसनीय सा है कि मानव जाति के मध्य ३००० वर्षों तक बोल-चाल की सहज भा’ाा रही संस्Ñत सभी दृ’िटयों से परिपूर्ण थी एवं उत्कृष्ट संवाद की सम्वाहक थी।" पैसा और रोजगार के आधार पर संस्Ñत की उपादेयता निर्धारित करने वाले सम्भवत: इस तथ्य की अवहेलना कर रहे हैं कि आई०ए०एस०, पी०सी०एस० व एलाइड सेवाओं में तमाम परीक्षार्थी संस्कृत विषय के साथ परीक्षा दे रहे हैं और सफल होकर प्रशासन के वरिष्ठ पदों पर बैठे हैं। यह एक मान्य तथ्य है कि उत्तर प्रदेश द्वारा आयोजित पी०सी०एस० परीक्षाओं में स्केलिंग पद्धति लागू होने से पूर्व संस्कृत और दर्शन शास्त्र विषय सफलता की गारण्टी माने जाते थे। क्या अंग्रेजी भाषा के समर्थक इस तथ्य का प्रतिपादन कर सकते हैं कि अंग्रेजी विषय लेकर पढ़ाई करने वाले या प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने वाले सभी विद्यार्थी सफलता के मुकाम पर पहँचे हैं? आज तमाम बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ स्थानीय भाषाओं और बोलियों में विज्ञापन जारी कर रही हैं। सवाल सिर्फ कैरियर का ही नहीं, ग्राहयता का है और उससे परे अपने आत्म गौरव और राष्ट्रीय स्वाभिमान का।
यह एक सच्चाई है कि हमारे मीडिया जगत के लिए देश के कोने-कोने में छुपी प्रतिभायें कोई खबर नहीं बनतीं, पर दूरस्थ किसी देश में भारतीय मूल के किसी व्यक्ति से सम्बन्धित सूचना तत्काल खबर बन जाती है। आखिर यह दोहरापन क्यों? शायद कम ही लोगों को पता होगा कि जिस भारतीय मूल की कल्पना चावला की सफलताओं पर देश के लोग इतराते हैं, उन्हीं कल्पना चावला को दिल्ली स्थित एक प्रशिक्षण संस्थान ने पायलट की ट्रेनिंग देने से मना कर दिया था। इसके बाद ही कल्पना चावला ने अमेरिका की ओर रुख किया। क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि हमें अपने माटी के सपूतों पर तब तक वि”वास नहीं है, जब तक उन पर विदेशी लेबल न लग जाये। अपने इलाज के लिए विदेश जाने को सदैव लालायित रहने वाले राजनेता क्या इस तथ्य को झुठला सकते हैं कि परम्परागत भारतीय चिकित्सा प्रणाली में कारगर तथा दो’ारहित उपचार के तौर पर प्रसिद्ध आयुर्वेद की प्रति’िठत बासिंग्तन विश्वविद्यालय में पढ़ाई हो रही है, जिसकी प्रेरणा मिली विश्व स्वास्थ्य संगठन के उस अध्ययन से जिसने रियूमेटिक आर्थराइट्सि के इलाज में आयुर्वेद को कारगर व अचूक बताया। निश्चितत: कोयम्बटूर स्थित आयुर्वेदिक ट्रस्ट के सहयोग से वा”िांगटन वि”वविद्यालय में आरम्भ इस परियोजना से भारतीय चिकित्सा की आयुर्वेद पद्धति की पारम्परिक मान्यता एक बार पुन: सिद्ध हुई। यह अनायास ही नहीं है कि अमेरिका के सोलह मेडिकल कॉलेजों में आयुर्वेद पढ़ाने के लिए हाल ही में भारत से आयुर्वेदाचार्यों को भेजा गया है। इससे परे आज अमेरिका में ३८ फीसदी डॉक्टर और १२ फीसदी वैज्ञानिक भारतीय ही हैं। अमेरिकी स्पेस एजंेसी ‘नासा’ में ३६ फीसदी वैज्ञानिक और इंजीनियर भारतीय हैं तो ‘माइक्रोसॉफ्ट’ कम्पनी के ३४ फीसदी तकनीकी विशेषज्ञ और ‘इंटेल’ कम्पनी में २० फीसदी इंजीनियर भारतीय हैं।
आखिर हम उस देश के वासी हैं, जिसे कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था। विदेशी आक्रमणों और अंग्रेजी शासन ने भारतीय अर्थव्यवस्था को रसाताल में पहुँचा दिया और अन्तत: हम १९९० के दशक में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बाट जोहने लगे। पर जिस प्रकार हाल के दिनों में भारतीय कम्पनियों ने तमाम अमेरिकी व यूरोपीय कम्पनियों का अधिग्रहण किया है, वह पाश्चात्य अर्थव्यवस्था को आईना दिखाने के लिए काफी है। यह मात्र संयोग नहीं है कि टाइम, न्यूज वीक, द इकोनॉमिस्ट व फॉरेन अफेयर्स जैसी प्रति’िठत पत्रिकाओं ने जून २००६ में भारत की अर्थव्यवस्था पर ही आवरण कथा और मुख्य लेख प्रकाशित किये। अमेरिकी हावर्ड बिजनेस स्कूल तो आर्थिक सुधारों के पश्चिमी मॉडल के सन्दर्भ में भी पुनर्विचार कर रहा है। हम भले ही गाँधी की के आदर्शों को तिलांजलि दे रहे हैं पर इस स्कूल ने २० वीं सदी के ‘मैनेजमेंट गुरू’ के रूप में भारत के रा’ट््रपिता महात्मा गाँधी को मान्यता दी है। अमेरिका में पिछले कुछ वर्षों में करीब पचास वि”वविद्यालयों और कॉलेजों ने गाँधीवाद पर कोर्स आरम्भ किये हंै। यूनिवर्सिटी ऑफ वेस्ट वर्जीनिया, यूनिवर्सिटी ऑफ हवाई, जॉर्ज मेरून यूनिवर्सिटी के अलावा और भी कई वि”वविद्यालयों ने अपने यहाँ गाँधीवाद विशेषकर गाँधी जी की अहिंसा और पड़ोसियों विरोधाभास ही लगता है कि हम भारतीय आत्मगौरव और रा’ट्रीय स्वाभिमान की अनदेखी करते हुए अपनी संस्कृति और उसकी समृद्ध विरासत को नक्कारने का प्रयास कर रहे हैं।
4 comments:
बहुत बढ़िया
भारतीय संस्कृति की धार को और तेज करता है यह आलेख..के.के. जी को हार्दिक बधाई.
सुन्दर उदाहरणों के साथ यह लेख बड़ा प्रासंगिक व महत्वपूर्ण है. कृष्ण कुमार जी को बधाई !!
सुन्दर उदाहरणों के साथ यह लेख बड़ा प्रासंगिक व महत्वपूर्ण है. कृष्ण कुमार जी को बधाई !!
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