संजीव तिवारी का जन्म 02 जनवरी 1968 को हुआ . इन्होने एम.काम., एल एल.बी. किया है , इन्हें अंग्रेजी, हिन्दी तथा छत्तीसगढी भाषा का ज्ञान है .इनका छत्तीसगढी व हिन्दी में समान रूप से लेखन, 1993 से जारी है. स्थानीय समाचार व पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां, कवितायें एवं समसामयिक लेखों का प्रकाशन.. छत्तीसगढ की कला, संस्कृति व साहित्य से संबंधित हिन्दी ब्लाग मैगजीन ‘आरंभ’ पर 2007 से छत्तीसगढ से संबंधित विषयों पर स्वयं एवं स्थापित लेखकों की रचनाओं का अनवरत प्रकाशन.. छत्तीसगढी भाषा पर आधारित ब्लाग मैगजीन ‘गुरतुर गोठ’ का संपादन.. एक कहानी ‘अन्यथा - 14’ पर प्रकाशित. इंटरनेट में हिन्दी व छत्तीसगढी भाषा के दस्तावेजीकरण हेतु सतत् क्रियाशील .. हिन्दी इंटरनेट व हिन्दी ब्लाग निर्माण से संबंधित तकनीकी लेखों कार्यशालाओं में सहभागिता.सम्मान/पुरस्कार : राष्ट्रभाषा अलंकरण - अंतरजाल में हिन्दी अनुप्रयोग के उन्नयन में उल्लेखनीय भूमिका के लिए छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की ओर से वर्ष 2009 में प्रदान किया गया.जीवन यापन : एक निजी उद्योग समूह में विधिक सेवा कार्य. प्रस्तुत है छतीसगढ़ की पारंपरिक नारी से परचय कराता एक सारगर्भित आलेख -
()संजीव तिवारी
छत्तीसगढ आरंभ से ही धान का कटोरा रहा है यहां महिलायें पुरूषों के साथ कंधे में कंधा मिलाते हुए कृषि कार्य करती रही हैं । कृषि कार्य महिला और पुरूष दोनों के सामूहिक श्रम से सफल होता है जिसके कारण हमेशा दोनों की स्थिति समान ही रही है, खेतों में दोनों के लिए अलग अलग कार्य नियत हैं । नारी और पुरूष के श्रम से ही छत्तीसगढ में धान के फसल लहलहाये हैं । इसकी इसी आर्थिक समृद्धि के कारण वैदिक काल से लेकर बौद्ध कालीन समयों तक छत्तीससगढ सांस्कृतिक व सामाजिक रूप से भी उन्नति के शिखर में रहा है । छत्तीसगढ के बहुचर्चित राउत नाच में एक दोहा प्राय: संपूर्ण छत्तीसगढ में बार बार गाया (पारा) जाता है जो छत्तीसगढ में नारियों की स्थिति को स्पष्ट करती है और इस दोहे को नारी सम्मान व समानता के सबसे पुराने लोक साक्ष्य के रूप में स्वीकारा जा सकता है ।‘नारी निंदा झन कर दाउ, नारी नर के खान रे । नारी नर उपजावय भईया, धुरू पहलाद समान रे ।।‘यह दोहा नारी के सम्मान को उसी तरह से परिभाषित करती है जिस तरह से संस्कृत के यत्र नारी पूज्यंतें तत्र .... वाक्यांशों का महत्व है ।
छत्तींसगढ की पारिवारिक परंपरा के इतिहास पर नजर डालने से यह ज्ञात होता है कि यहां संयुक्त परिवार की परम्पंरा रही है जो आज तक गावों में देखने को मिलती है । संयुक्त परिवार में आंसू भी हैं तो मुस्कान भी हैं, यहां परिवार के सभी सदस्य हिल मिल कर रहते हैं और कृषि कार्य करते हैं । बडे परिवार में मुखिया के कई बेटे बहू एक साथ रहते हैं । जहां वय में कुछ बडी कन्या बालिकायें परिवार के छोटे बच्चों का देखरेख उस अवसर पर बेहतर करती हैं जब उनके अभिभावक खेतों में काम से चले जाते हैं । इस अवसर पर छोटे बच्चों को सम्हालने के लिए नारीसुलभ वात्सल्य प्रवृत्ति के कारण बालिकायें छोटे भाई बहनों का देखरेख बेहतर करती हैं एवं पेज पसिया पकाती है और मिलजुल कर खाती है । यहीं से परिवार में नारी के प्रति विशेष श्रद्धा एवं सम्मान का बीजोरोपण आरंभ होता है । अपने से बडी बहन से प्राप्तम स्नेह व प्रेम के कारण भावी पीढी के मन में नारी के प्रति स्वाभाविक सम्मान स्वमेव जागृत हो जाता है ।
पुराने समय में बालिका अवस्था में ही छत्तीसगढ में बालविवाह की प्रथा के कारण उनका विवाह भी कर दिया जाता था । इससे परिवार में दुलार करने वाली एवं दुलार पाने वाली बेटी को दूसरे के घर में भेजे जाने का दुख पूरे परिवार को होता था । मॉं अपनी छोटे उम्र की बेटी के बिदा के अवसर पर गाती है ‘कोरवन पाई पाई भांवर गिंजारेव, पर्रा म लगिन सधाये हो, नान्हें म करेंव तोर अंगनी मंगनी, नान्हें म करेंव बिहाव वो ।‘बेटी इतनी छोटी है कि उसे एक दिन के लिये भी उसके पति के घर में भेजने पर सभी को दुख होता है । यद्धपि विवाह बाद कन्या को मॉं बाप अपने घर वापस ले आते हैं फिर वय: संधि किशोरावस्था में उसका पति उसे कृषि कार्य में हाथ बटाने या घर में चूल्हा चौका करने के उद्देश्य: से गवना करा कर लाता है जहां वह सारी उम्र के लिए आ जाती है । कन्या को यह नया परिवेश तत्काल रास नहीं आता, इसीलिये गीत फूटते हैं ‘काखर संग मैं खेलहूं दाई काखर संग मैं खाहूं ओ’ । खेलने खाने की उम्र में बहू शव्द और दायित्व का भार उसे रास नहीं आता । ससुराल में उसका अपना कहने के लिए एकमात्र पति ही रहता है जिसे वह अपना मित्र मानती है और उसके साथ बालिका वधु की भांति खेलती है धीरे धीरे वह पारिवारिक दायित्वों को सम्हालते हुए सांसारिक व्यवहार को सीखती है ।
शिक्षण प्रशिक्षण के इस खेल में संयुक्त परिवार के कारण कई पारिवारिक रिश्तेरदारों से सामना होता है, रेगिंग भी होती है जिसमें प्राचार्य के रूप में उसकी सास हर कदम पर उसे रोक टोंक कर सामाजिक बनाती है वहीं नंनद, जेठानियॉं व देवरानियों से स्वाभाविक प्रतिस्पर्धा के कारण उसकी खट पट चलती है पर उन सब के प्रति स्नेग व सम्मान की घूंटी भी वह इसी पाठशाला से पाती है । पुत्रवत देवर को अपनी व्यथा सुनाती बहु कहती है ‘सास गारी देवय, नंनद मुह लेवय देवर बाबू मोर ...’ । श्वसुराल में छोटे ननद देवरों के प्रति भाई बहन की भांति प्यार उडेलने का जजबा छत्तीसगढ की नारियों की परम्परा रही है । ‘छोटका देवर मोर बेटवा बरोबर’ कहने का तात्पर्य विशद है यह गीत यहां की नारियों के वात्सल्य को चित्रित करती है । नंनदों से खटपट के बावजूद भाभी पुत्र जन्म पर उन्हें मनपसंद साडी और सोने का ‘कोपरा’ देने की निष्छरल कामना रखती है वहीं क्षणिक क्रोधवश सास, नंनद व देवरानी, जेठानी के प्रसूता अवस्था में साथ नहीं दिये जाने पर अपने मायके से मॉं, बहन व भाभियों से अपनी प्रसूता कराने ‘कांकें पानी’ बनाने का गीत भी गाती है ।
इस संयुक्त परिवार की परिस्थितियों में परिवार के नारियों के बीच स्वाभाविक प्रतिस्पर्धा एवं जलन की भावना भी अंदर अंदर पनपते रहती है । ननद और भावज के बीच छुटपुट झडपें व असंतोष गीतों में प्रकट होती हैं । ननद अपने विवाह के बाद घर छूट जाने के दुख पर गाती है । ‘दाई ददा के इंदरी जरत हे, भउजी के जियरा जुडाय हो’ । मां पिता अपनी कमवय पुत्री को पराया घर भेज कर दुखी हैं पर भाभी रंगरेली नंनद को अपने घर से दूर भेजकर अपनी स्वतंत्रता के लिए खुश है क्योंकि उसे पता है कि छोटी ननद बहुत रंगरेली है सास को बात बात में चुगली लगाती है । ‘छोटकी नंनदिया बड रंगरेली हो, सास मेर लिगरी लगाय ।‘ इसी संयुक्त परिवार में नारी को नारी के द्वारा प्रतारण का भी उल्लेख मिलता है जो वर्चस्व की अंदरूणी लडाई है । नई आई वधु पर सब अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं कभी कभी तो यह दबाव इतना अधिक बढ जाता है कि उसे कहना पडता है कि ‘ठेंवत रहिथे ननंद जेठानी, लागथे करेजवा म ठेस, महुरा खा के मैं सुत जातेंव, मिट जाय मोर कलेश ।‘ इस पारिवारिक राजनीति व दमन के कष्ट को सहते हुए भी वधु अपने परिवार के हित की बात ही सोंचती है और कामना करती है कि अपनों से बडों को सम्मान और छोटों को स्नेह देती रहे । छोटी ननदों व देवरानियों पर तो उसका स्नेक अपार रहता है क्योंकि जो कष्ट उसने इस संयुक्त परिवार में शुरूआती दिनों में भोगें हैं वह उसके बाद आई बहुओं को न हो इसलिये वह देवरानियों का हर वक्त ध्यान रखती है उन्हें उचित आसन सम्मान देती है । ‘गोबर दे बछरू गोबर दे, चारो खूंट ला लीपन दे, चारो देरनियां ला बईठन दे ।‘
छत्तीसगढ में संयुक्त परिवार के साथ साथ रख्खी, बिहई जैसे बहुपत्नी प्रथा का भी चलन रहा है जिसके कारण यहां के कुछ गीतों में नारी रूदन नजर आता है । सौतिया डाह में जो गीत मुखरित हुए है वह हृदय को तार तार कर देते हैं । सौतिया डाह का दर्द पत्नी के संपूर्ण जीवन में कांटे की तरह चुभता है तभी तो वह ‘मोंगरा’ में कहती है ‘पीपर के झार पहर भर, मधु के दुई पहर हो, सउती के झार जनम भर, सेजरी बटौतिन हो ।‘ एक लोकोक्ति में कहा गया कि ‘पीपर के पाना हलर हईया, दूई डौकी के डउका कलर कईया’ । लोकोक्तियों नें अपना प्रभाव समाज में छोडा है और अब यह प्रथा कही कहीं अपवाद स्वरूप ही समाज में है और धीरे धीरे बहु पत्नी प्रथा समाप्ति की ओर है । इस दुख के अतिरिक्त नारी जीवन में अन्यान्य विषम परिस्थितियां होती है जिससे वह लडते हुए आगे बढती है इसीलिये एक लोक गीतों में छत्तीसगढ की नारी ‘मोला तिरिया जनम झनि देय‘ का आर्तनाद करती है तो मन संशय से घिर जाता है कि यहां नारी की स्थिति ऐसी भी थी जिससे नारियों को अपने नारी होने की पीडा का अनुभव हुआ और उसने नारी के रूप में पुन: जन्म न देने के लिये इश्वर से पार्थना करना पडा । नारी के इस रूदन को आधुनिक युग में कहानियों व उपन्यासों में भी व्यक्त करने की कोशिसें की गई है । हमने नारी के इस दुख के पहलुओं को यहां के पारंपरिक गीतों और गाथाओं में कई बार तलाशने का प्रयत्न किया तो दुख के इस पडले से ज्यादा सुख एवं सम्मान का पडला हमें भारी नजर आया ।
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4 comments:
सार्थक रचना। हार्दिक बधाई।
बहुत सुन्दर रचना
मनोरम प्रस्तुति... पढ़कर मन रोमांचित हो उठा..
आपका चयन एकदम सही है। संजीव तिवारी अपने आसपास की चीजों को लेकर एकदम सजग रहने वाले ब्लागर है। छत्तीसगढ़ के प्रति उनका लगाव देखकर मैं अभिभूत होता रहता हूं। असली माटीपुत्र तो वह होता है जो सबसे पहले अपनी मिट्टी का सम्मान करना जानता है।
मुझे भी यदि छत्तीसगढ़ के बारे में कुछ जानना समझना होता है तो मैं सबसे पहले उनके ब्लाग पर ही जाता हूं।
आपको बधाई।
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