कविवर पन्त की मानस पुत्री श्रीमती सरस्वती प्रसाद जी के बारे में कुछ भी कहना सूरज को दिया दिखाने के समान है । वैसे ब्लोगोत्सव के दौरान आप कई महत्वपूर्ण क्षणों में आदरणीया सरस्वती जी को अपनी समक्ष पाए हैं । समयाभाव के कारण ब्लोगोत्सव के दौरान उनकी एक महत्वपूर्ण कविता प्रकाशित नहीं हो पायी थी , जिसे ब्लोगोत्सव के बाद की श्रृंखला में हम आज प्रकाशित कर रहे हैं-
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ज़िन्दगी की श्रृंखला से मुक्त होकर जाती हुई आत्मा ने एक बार पीछे मुड़कर देखा -- जो देखा , वह कितना विस्मयकारी था ....

अनोखी बात !

पूछता हर कण हमारा
हाल क्या वारदात है
क्या अनोखी बात है !

रास्ते थे तिमिरमय
नहीं सूझता था हाथ भी
रौशनी तो दूर थी
कोई था न पथ में साथ भी
अब मशालें क्यूँ जलीं
जब शेष हो गई रात है
क्या अनोखी बात है !

जब सत्य था याचक बना
सब ओर ही दुत्कार थी
आँखों में थी हिंसा भारी
होठों पे बस फटकार थी
अब झूठ पे सौ झूठ की
क्यूँ लद रही सौगात है
क्या अनोखी बात है !

दो निगाहों के लिए
दो नयन भटके हर कहीं
पर न पाया ठौर
अपना भी बना कोई नहीं
अब ये क्या अपनापनी
जब जा रही बारात है
क्या अनोखी बात है !

()सरस्वती प्रसाद

5 comments:

अमिताभ मीत ने कहा… 12 जून 2010 को 1:51 pm बजे

बहुत ही सुन्दर. शुक्रिया इसे पढवाने का !

mala ने कहा… 12 जून 2010 को 2:09 pm बजे

कविता अंतरात्मा की गहराईयों में भ्रमण करने पर मजबूर कर रही है ....बहुत सुन्दर

पूर्णिमा ने कहा… 12 जून 2010 को 2:11 pm बजे

बहुत ही सुन्दर कविता है,शुक्रिया !

सूर्यकान्त गुप्ता ने कहा… 12 जून 2010 को 2:35 pm बजे

जब सत्य था याचक बना
सब ओर ही दुत्कार थी
आँखों में थी हिंसा भारी
होठों पे बस फटकार थी
अब झूठ पे सौ झूठ की
क्यूँ लद रही सौगात है
क्या अनोखी बात है ! झूठ पे सौ झूठ……। वर्तमान का सच। आभार इस सुन्दर रचना को यहाँ स्थान देने के लिये हमे भी मिला कुछ पढने को।

 
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