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ग़ज़ल
लो राज़ की बात आज एक बताते हैं
हम हँस-हँसकर अपने ग़म छुपाते हैं,
तन्हा होते हैं तो रो लेते जी भर कर
सर-ए-महफ़िल आदतन मुस्कुराते हैं.
कोई और होंगे रुतबे के आगे झुकने वाले
हम सिर बस खुदा के दर पर झुकाते हैं
माँ आज फिर तेरे आँचल मे मुझे सोना है
आजा बड़ी हसरत से देख तुझे बुलाते हैं .
इसे ज़िद समझो या हमारा शौक़ “औ “हुनर
चिराग हम तेज़ हवायों मे ही जलाते है
तुमने महल”औ”मीनार,दौलत कमाई हो बेशक़
पर गैर भी प्यार से मुझको गले लगाते हैं
शराफत हमेशा नज़र झुका कर चलती हैं
हम निगाह मिलाते हैं,नज़रे नहीं मिलाते हैं
ये मुझ पे ऊपर वाले की इनायत हैं “दीपक ”
वो खुद मिट जाते जो मुझ पर नज़र उठाते हैं
(नज़्म)
बात घर की मिटाने की करते हैं
तो हजारों ख़यालात जेहन में आते हैं
बेहिसाब तरकीबें रह - रहकर आती हैं
अनगिनत तरीके बार - बार सिर उठाते हैं ।
घर जिस चिराग से जलना हो तो
लौ उसकी हवाओं मैं भी लपलपाती है
ना तो तेल ही दीपक का कम होता है
ना ही तेज़ी से छोटी होती बाती है ।
अगर बात जब एक घर बसाने की हो तो
बमुश्किल एक - आध ख्याल उभर के आता है
तमाम रात सोचकर बहुत मशक्कत के बाद
एक कच्चा सा तरीका कोई निकल के आता है ।
वो चिराग जिससे रोशन घरोंदा होना है
शुष्क हवाओं में भी लगे की लौ अब बुझा
बाती भी तेज़ बले , तेल भी खूब पिए दीया
रौशनी भी मद्धम -मद्धम और कम रौनक शुआ ।
आज फ़िर से वही सवाल सदियों पुराना है
हालत क्यों बदल जाते है मकसद बदलते ही
फितरतें क्यों बदल जाती है चिरागों की अक्सर
घर की देहरी पर और घर के भीतर जलते ही ।
() दीपक शर्मा
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संक्षिप्त परिचय :
२२ अप्रैल १९७० को चंदौसी (मुरादाबाद) में जन्म। वस्तु प्रवंधन में परास्नातक । तीन किताबें क्रमश: फलक दीप्ती , मंज़र और खलिश प्रकाशित । भारतीय वस्तु प्रवंधन संस्थान, सूर्या संस्थान साहित्यिक समिति तथा वेदान्त मंडलम अध्यात्मिक पत्रिका के सदस्य ।
9 comments:
गज़ल के भाव अच्छे हैं मगर तकनीकी तो कोई उस्ताद ही बता सकते हैं नज़्म भी अच्छी लगी ।दीपक जी को बधाई। आपका धन्यवाद
Ghazal waakai kabile daad hai.
bahut sundar gazal, badhaayiyaan !
गज़क वाकई बहुत ही उम्दा है , बधाई इस वेहतर प्रस्तुति हेतु
nice
kyaa baat hai
मजा आ गया दीपक जी की ग़ज़ल और नज़्म पढ़कर , बधाई
दीपक जी की ग़ज़ल और नज़्म दोनो ही लाजवाब हैं ....
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल....
दोनों ही रचनाएँ भावप्रवण एवं सुन्दर हैं...
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