कितने बच्चे सोते हैं रोज़ रखकर पेट में लातें अपनी
बना नहीं अभी कच्चा है कह देती है जब रोकर जननी ।
भोर हुए उठते हैं जब पाते हैं दो ही सिकी रोटी
रोटी दो , बच्चे हैं छ: , भूख से बच्ची छोटी रोती,
कंठ डुबोकर आंसुओं में थककर बच्चे सो जाते हैं ।
सपनों में भी देखकर रोटी रोटी-रोटी चिल्लाते हैं ॥

एक तरफ है पैसों की कमी , एक तरफ खूब बर्बादी है
एक भाई हँसे रोये दूजा रोये भला ये कैसी आज़ादी है ।
अपनी जिद की खातिर कुछ लोग पानी सा धन बहाते हैं
तनिक-तनिक सी बात-बात पर उत्सव रोज़ मनाते हैं ।
नहीं कुछ परवाह औरों की इनको तो जश्न मनाना है ।
जो भरे हुए मस्त बादल हैं उनको ही नीर पिलाना है ॥

तुम चाहते हो उत्सव करना ,रोतों को हँसियाँ बाँटो
जो पानी पीकर जीते हैं तुम उनको रोटी बाँटो ।
हम अलग -अलग चलेंगे तो दुनिया हमको खा जायेगी
मिटटी के मोल बिक जायेंगे , दासता फ़िर से छा जायेगी

मिलकर सबको निज देश का फ़िर भाग्य बनाना होगा
जो घिरे हुए हैं अन्धेरे में उन्हें दीप दिखाना होगा ।
मानवता के मूल्यों का यही सही मूल्य कहलायेगा
जब ज्ञान - दीप से मानव अज्ञान का तिमिर मिटाएगा ।
भूख, गरीबी, लाचारी के सब शब्द इससे मिट जायेंगे
भोजन होगा हर प्राणी को ,मुख कमल सा मुस्कुराएगा ।

()दीपक शर्मा
http://www.kavideepaksharma.com/

1 comments:

निर्मला कपिला ने कहा… 9 सितंबर 2010 को 12:03 pm बजे

मिलकर सबको निज देश का फ़िर भाग्य बनाना होगा
जो घिरे हुए हैं अन्धेरे में उन्हें दीप दिखाना होगा ।
मानवता के मूल्यों का यही सही मूल्य कहलायेगा
जब ज्ञान - दीप से मानव अज्ञान का तिमिर मिटाएगा ।
भूख, गरीबी, लाचारी के सब शब्द इससे मिट जायेंगे
भोजन होगा हर प्राणी को ,मुख कमल सा मुस्कुराएगा
बहुत सुन्दर प्रेरक पँक्तियाँ हैं । भगवान करे कवि का सपना साकार हो। जय हिन्द। दीपक जी को बधाई इतनी सुन्दर प्रेरणा देती रचना के लिये।

 
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