![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJdmNRh3kP5JYRnNbDRR3B0wB-nnQHtqNL4vAAGHSgJVef7GFcl9_2ODz5_ZXRYxb0zfSruhZrvPP9ZxifOw8pCP2PZ2VL_1qHZd3lmdokhibPRa3AyKJmuXHXzol4XePn7avvakqwKY4/s320/interviws-5.jpg)
उ0 साहित्य संस्कृति और समाज तीनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और तीनों का परस्पर द्वंदात्मक सम्बन्ध है। तीनों एक दूसरे से ग्रहण करते हैं एक-दूसरे को शक्ति देते हैं और समृद्ध होते हैं। इसीलिए तीनों के स्वरूप में बहुत भिन्नता नहीं हो सकती। तीनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। साहित्य तो समाज का दर्पण और उससे भी आगे बढ़कर समाज की आलोचना माना जाता है और साहित्य यह भूमिका अदा भी करता है। इस कारण साहित्य का स्वरूप बहुत कुछ सामाजिक हालात पर निर्भर करता है। यह अचानक नहीं है कि समाज में जिस दौर में स्त्रियों, दलितों और दूसरे पिछड़े वर्गों में सामाजिक चेतना का विकास हो रहा था और बदलाव की छटपटाहट नजर आ रही थी इनमें से कोई भी वर्ग अपनी पुरानी स्थिति में बने रखने को तैयार नहीं था ऐसे समय में हम देखते हैं कि साहित्य में भी बदलाव की इस छटपटाहट के बिम्ब साफ नजर आने लगे थे। समाज में सक्रिय आन्दोलनात्मकता साहित्य में भी नित्य नये शब्द शिल्प ग्रहण कर रही थी। इन हालात का प्रभाव संस्कृति में हम इस प्रकार देखते हैं कि संस्कृति की पुरानी कठोरता और परम्परागत अन्तरोन्मुखता धीरे-धीरे दरकती हुई महसूस होती है। उसमें उदारता की छवियाँ महत्व प्राप्त करती हैं और बदलाव के बयार से अप्रभावित न रह पाने के कारण उसमें तब्दीलियों की कई छटाएं उभरती हुई दिखाई देती हैं। तीनों ही भूमण्डलीकरण, बाजारवाद और भौतिकतावादी चिंतन की चपेट में हैं। यह तीनों के सामने एक बड़ी चुनौती है। लेखक और सांस्कृतिक कर्मी व सामाजिक कार्यकर्ता इस चुनौती से निपटने के लिए अपने तौर पर लगातार प्रयासरत है।
प्र02 हिंदी ब्लोगिंग की दिशा दशा पर आपकी क्या राय है।
उ0 हिन्दी ब्लोगिंग सृजन एवं जनसंचार के क्षेत्र में नई संभावनाएं लेकर सामने आई
है। उसने एक उत्तेजक वातावरण का निर्माण किया है तथा परस्पर संवाद और विचार विमर्श के नये रास्ते खोले हैं और इसका स्वागत होना चाहिए ताकि इसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी होनी चाहिए। यह भागीदारी जैसे विस्तार पायेगी ब्लागिंग का क्षेत्र अधिक उत्तेजक विचारपूर्ण और उपयोगी होता जायेगा।
प्र03 आपकी नज़रों में हिंदी ब्लोगिंग का भविष्य कैसा है।
प्र04 हिंदी के विकास में इंटरनेट कितना कारगर सिद्ध हो सकता है?
उ0 किसी भी भाषा के विकास में जो योगदान हो सकता है वह स्थिति हिन्दी के साथ भी है इतना अवश्य याद रखना चाहिए क्योंकि हिन्दी मुख्य रूप से मेहनतकश व गरीब वर्गों की भाषा है उसका सामाजिक आधार मुख्य रूप से पिछड़े हुए क्षेत्र हैं इसलिए अज्ञानता का भी उसका खासा प्रभाव है। हिन्दी भाषा जिस तेजी से प्रसार हो रहा है तथा उसके सामाजिक आधार में जैसे जैसे व्यापकता आ रही है ज्ञान के नये क्षेत्र भी उद्घाटित हो रहे हैं। कारणवश इन्टरनेट से अलग नहीं रह सकती। इन्टरनेट में जानकारियों का जो भण्डार है हिन्दी धीमी गति से ही सही परन्तु उसके सम्पर्क में आ रही है। ऐसी स्थिति में इन्टरनेट उसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।
प्र05 आप कभी ब्लॉग लेखन से जुड़े या नहीं ?
उ0 मैं ब्लाग नहीं लिखता हूँ,कभी-कभार पढ़ लिया करता हूँ वह भी वक़्त मिलने पर ।
प्र06 आप तो स्वयं साहित्यकार हैं, एक साहित्यकार जो गंभीर लेखन करता है उसे ब्लॉग लेखन करना चाहिए या नहीं ?
उ0 साहित्यकार के लिए सभी रास्ते खुले हैं। वह अभिव्यक्ति के किसी भी माध्यम को इस्तेमाल कर सकता है। यह रचनाकार के अनुभव अभिव्यक्ति की उसकी बेचैनी पर निर्भर करता है कि वह ब्लॉग लिखे या नहीं। इतना अवश्य है कि गंभीर साहित्यकार को ब्लागिंग को नशे के तौर इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
प्र0 7 विचारधारा और रूप की भिन्नता के बावजूद साहित्य की अंतर्वस्तु को संगठित करने में आज के ब्लोगर सफल हैं या नहीं ?
उ0 ब्लॉग एक नई विधा है। अतः उसकी सामर्थ्य और क्षमता का अभी पूरी तरह विकास नहीं हुआ है। कारणवश इस क्षेत्र में उसे जो सफलता अर्जित करनी चाहिए वह नहीं अभी नहीं कर पाया है। क्योंकि संभावनाएं हमेशा बनी रहती है। इसलिए यह बहुत संभव है कि ब्लॉगर उस क्षमता को अर्जित कर पाये हैं जो अभी तक लेखन के स्तर पर ही घटित हो पा रही है। ![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtYNRAA0kXvclrtPs11PZl-kGZwEr0u0R_PfZUwAKcRcsRe8JK5NgXIpxxXaQuFzegExHiGm_u9ooHpwTrQON-ukT1a9Js9xd_glgbl1pumJU9d_xlDMftSjCZ3lEnAyJMnJ7JkWVO7Gw/s320/interviews.jpg)
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प्र08 आज के रचनात्मक परिदृश्य में अपनी जड़ों के प्रति काव्यात्मक विकलता क्यों नहीं दिखाई देती ?
उ0 आज के रचनात्मक परिदृश्य का वास्तविक यथार्थ नहीं है। भूण्डलीकरण की गति अवश्य तेज हुई है। बाहर की ओर देखने उसे जानने वहां से सीखने और वहां से प्रभाव ग्रहण की प्रवृत्ति सघन अवश्य हुई है। बावजूद उसके अपनी जड़ों से कटने या विमुखता आज के रचनात्मक परिदृश्य की प्रमुख प्रवृत्ति नहीं है और लोक संस्कृति, लोक जीवन तथा पारम्परिक कला माध्यमों, विचार पद्धतियों एवम् अभिव्यक्ति के प्रकारों को लेकर एक अन्वेषणात्मक बेचैनी लगातार उपस्थित रही है।
प्र09 आपकी नजरों में साहित्यिक संवेदना का मुख्य आधार क्या होना चाहिए ?
उ0 साहित्यिक संवेदना का मुख्य आधार जीवन अनुभव होना चाहिए।
प्र010 आज की कविता की आधुनिकता अपनी देसी जमीन के स्पर्श से वंचित क्यों है ?
उ0 एक ही समय में कई तरह के लोग रचनारत रहते हैं इसलिए आम तौर पर साहित्य का परिदृश्य विविधता पूर्ण होता है। कोई एक यथार्थ या स्थिति को उसका अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता है। जो चीज हमें बहुतों के यहां दिखाई नहीं पड़ती वह दूसरों के यहां घटित हो रही होती हैं। क्योंकि कविता आधुनिकता वाद के धुंधलके से बाहर आई है और गैर भारतीय संवदेना के प्रभावों से काफी हद तक मुक्त हुई है। कारणवश उसमें देसी जमीन के स्पर्श की गंध शनैःशनैः अपनी जगह बना रही है।
प्र011 क्या हिंदी ब्लोगिंग में नया सृजनात्मक आघात देने की ताकत छिपी हुई है ?
उ0 मुझे मनीषा कुलश्रेष्ठ की बात याद आती है कि ब्लागिंग एक नया सृजनात्मक विवेक तथा सामर्थ लेकर सामने आया है। सृजनात्मक आघात देने की उसकी क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि रचनाकार कितनी बड़ी संख्या में उसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाते हैं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री शकील सिद्दीकी साहब से लोक संघर्ष के रणधीर सिंह सुमन की बातचीत के आधार पर)
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