अविनाश वाचस्पति एक ऐसे सृजनधर्मी का नाम है जिसे हिंदी ब्लॉग जगत सर आँखों पर विठाता है । १४ दिसम्बर १९५८ में जन्में श्री अविनाश वाचस्पति ने सभी साहित्यिक विधाओं में लेखन किया है , परंतु व्यंग्य, कविता, बाल कविता एवं फिल्म पत्रकारिता प्रमुख हैं । इनकी रचनाएँ देश-विदेश से प्रकाशित लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित है । जिनमें नई दिल्ली से प्रकाशित दैनिक नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, सुमन सौरभ, दिग्विजय, स्क्रीन वर्ल्ड इत्यादि उल्लेखनीय हैं । इंटरनेट पत्रिकाओं : अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्यकुंज इत्यादि में प्रमुखतः व्यंग्य और कवितायें प्रकाशित हैं । अनेक चर्चित काव्य संकलनों - हास्य कवि दरबार, हास्य कवियों की व्यंग्य बौछार, तरुण तरंग, सागर से शिखर तक, नव पल्लव, हास्यारसावतार इत्यादि में कविताएँ संकलित है । हरियाणवी फीचर फिल्मों ’गुलाबो’, ’छोटी साली’ और ’जर, जोरू और जमीन’ में प्रचार और जन-संपर्क तथा नेत्रदान पर बनी हिन्दी टेली फिल्म ’ज्योति संकल्प’ में सहायक निर्देशक हैं ।ये राष्ट्रभाषा नव-साहित्यकार परिषद् और हरियाणवी फिल्म विकास परिषद् के संस्थापकों में से एक हैं । सामयिक साहित्यकार संगठन, दिल्ली तथा साहित्य कला विकास मंच, दिल्ली में उपाध्यक्ष और केन्द्रीय सचिवालय हिन्दी परिषद् के शाखा मंत्री रहे, वर्तमान में आजीवन सदस्य हैं । सर्वोदय कन्या विद्यालय नंबर २, पूर्वी कैलाश, नई दिल्ली में अभिभावक शिक्षक संघ में सचिव व उप-प्रधान रहे हैं ।’साहित्यालंकार’ और ’साहित्य दीप’ उपाधियों से सम्मानित हैं । वर्ष २००० में ’राष्ट्रीय हिन्दी सेवी सहस्त्राब्दी सम्मान से सम्मानित हैं । इन्हें कादम्बिनी में चित्र और रचना में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है । विगत वर्ष इन्हें परिकल्पना ब्लॉग विश्लेषण के अंतर्गत वर्ष के आदर्श चिट्ठाकारों में शामिल किया जा चुका है ।



नुक्कड़ , तेताला , बगीची , झकाझक टाइम्स , पिताजी , आदि इनके चर्चित ब्लॉग है ......प्रस्तुत है हिंदी ब्लोगिंग से संवंधित विभिन्न पहलुओं पर लोकसंघर्ष पत्रिका के दिल्ली स्थित ब्यूरो चीफ श्री मुकेश चन्द्र से हुई  उनकी बातचीत के प्रमुख अंश-



(१) आपकी नज़रों में साहित्य-संस्कृति और समाज का वर्त्तमान स्वरुप क्या है?

साहित्‍य-संस्‍कृति और समाज का वर्तमान स्‍वरूप अनेक मायनों में बेहतर है और कई मायनों में बदतर है और ऐसा सदा ही होता है। कुछ चीजें सदैव अतीत की उत्‍तम प्रतीत होती हैं जबकि कुछ निरर्थक यानी कूड़ा। पर यह सब देखने उपयोग करने वाले और महसूसने वाले की नजर पर अधिक निर्भर होता है और तय होता है तत्‍कालीन स्थितियों और परिस्थितियों पर। वर्तमान में इसमें ब्‍लॉगिंग की भूमिका भी दिखलाई दे रही है। पहले जो अपनापन समाज में मौजूद रहा है, वो उस समय की साहित्‍य और संस्‍कृति में समाहित मिलता है परन्‍तु आज की स्थिति जैसी है, उसे वर्णन करने की जरूरत नहीं है। सब उसकी असलियत से परिचित हैं। फिर भी ब्‍लॉगिंग के आने से अजनबी संबंधों में गहन मधुरता आ रही है जबकि ब्‍लॉगिंग पर यह आरोप इसके आरंभ होने से ही लगने लगे हैं कि इससे साहित्‍य-संस्‍कृति और समाज में उच्‍श्रंखलता बढ़ रही है। पर मैं इसका विरोध करता हूं। सदैव तकनीक अपने साथ दोनों पक्ष लेकर चलती है। अब आप जिस तरह का चश्‍मा पहन कर देखेंगे, आपको तो वैसा ही दिखलाई देगा।


(२) हिंदी ब्लोगिंग की दिशा दशा पर आपकी क्या राय है ?


हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की दशा समाज से बेहतर को निकाल कर और अपने साथ लेकर बेहतरीन की ओर अग्रसर है जिससे समाज और ब्‍लॉगिंग की दिशा अपनेपन के प्रचार प्रसार में मुख्‍य भूमिका निभा रही है। इसका एक अहसास आप रोजाना कहीं-न-कहीं आयोजित हो रहे ब्‍लॉगर मिलन के संबंध में जारी की गई पोस्‍टो में महसूस कर सकते हैं और इसका सकारात्‍मक और स्‍वस्‍थ असर आप शीघ्र ही समाज पर महसूस करेंगे।


(३) आपकी नज़रों में हिंदी ब्लोगिंग का भविष्य कैसा है ?


जैसा कि मैंने इससे पहले बतलाया है कि और फिर से कहूंगा कि जो भी विधा या तरीका समाज में बेहतरीन और सकारात्‍मकता की अभिवृद्धि में संलग्‍न है, उसका भविष्‍य निस्‍संदेह आलोकमय है। इसके उज्‍ज्‍वल भविष्‍य को लेकर मेरे मन में तनिक सी भी शंका नहीं है। इसमें हिंदी और हिंदी ब्‍लॉगिंग दोनों का भविष्‍य अपने वर्तमान को बेहतर करते हुए नित नए पायदानों की ओर अग्रसर है।


(४) हिंदी के विकास में इंटरनेट कितना कारगर सिद्ध हो सकता है ?


अब तक जो कार्य सिर्फ हिन्‍दी फिल्‍मों और उनके गानों के भरोसे बढ़ रहा था उसमें इंटरनेट के आने से और हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग के विस्‍तार से भरपूर इजाफा हुआ है। हिन्‍दी फिल्‍मों की पहुंच तो बढ़ी ही है। हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग के आरंभ होने से हिन्‍दी में अभिव्‍यक्ति की सुविधा इंटरनेट के माध्‍यम से ही तो संभव हो पाई है। आज अगर इंटरनेट को जीवन से अलग करके देखा जाए ... वैसे ऐसा करके देखना संभव नहीं है। हिन्‍दी और आपसी संबंधों के स्‍वस्‍थ विकास में इंटरनेट पूरी तरह सक्षम है। पर फिर भी मैं जोड़ना चाहूंगा कि अपवाद प्रत्‍येक क्षेत्र में होना अवश्‍यंभावी हैं। जब तक बुराई नहीं होगी आप अच्‍छाई को महसूस नहीं कर सकते हैं।


(५) आपने ब्लॉग लिखना कब शुरू किया और उस समय की परिस्थितियाँ कैसी थी ?


मैंने नियमित रूप से ब्‍लॉग लेखन वर्ष 2007 में कादम्बिनी पत्रिका में बालेन्‍दु दाधीच के आलेख ‘ब्‍लॉग हो तो बात बने’ से, इंटरनेट पर हिन्‍दी में लिखने की सुविधा और ब्‍लॉगों की सक्रियता की जानकारी होने पर किया। उस समय मैंने अपना दूसरा ब्‍लॉग बगीची बनाया। पहला ब्‍लॉग तेताला संभवत: मैं इससे कई वर्ष पूर्व बना चुका था परंतु उस समय मुझे इसकी अधिक क्‍या थोड़ी-सी भी जानकारी नहीं हो पाई थी। सिर्फ रोमन हिन्‍दी में उसमें यह लिखा कि कोई मुझे पहचान रहा है, या कोई मुझे जान रहा है। इस तरह की दो-तीन एक दो लाईन की पोस्‍टें लगाई थीं परंतु कोई रिस्‍पांस न पाकर वो वहीं रह गया और उसे मैं भूल गया परन्‍तु जब बगीची ब्‍लॉग बनाया और आरंभ किया तो उसमें तेताला को भी डेशबोर्ड पर पाया।
जब हिन्‍दी में लिखा भी गया और उस समय के एग्रीगरेटर्स नारद और चिट्ठाजगत की जानकारी हुई और लिखे गए पर प्रतिक्रियाएं भी मिलीं तो खूब अच्‍छा लगा। फिर धीरे-धीरे मैं इसमें जुड़ता चला गया। तब भी मैं एक दिन में एक या दो पोस्‍टें अवश्‍य लगाता था और अब तो खैर गिनती ही नहीं है क्‍योंकि 6 ब्‍लॉग हैं जिनमें 3 सामूहिक कर लिए हैं और नुक्‍कड़ की वेबसाइट पर कार्य चालू है। इसमें देश-विदेश के तकरीबन 96 प्रतिष्ठित और नए लेखक भी जुड़े हुए हैं।
तब हिन्‍दी में लिखने के लिए रवि रतलामी जी के किसी रोमन से हिन्‍दी लिखने वाले औजार पर लिखकर कॉपी करके ब्‍लॉग में पेस्‍ट और प्रकाशित करता था और जब बाद में हिन्‍दी टूल किट की जानकारी हुई तो तभी से परिस्थितियों ने ऐसा मोड़ लिया जैसा कि वाहन पहले गियर में चलाया जा रहा हो और जब टॉप गियर में आ जाए तो उसकी गति तो कोई भी महसूस कर सकता है तो अब मेरा ब्‍लॉग लेखन बिल्‍कुल टॉप गियर में है और मुझे कभी इसका गियर कम करने की जरूरत महसूस नहीं होती है।
नि:संदेह आज की परिस्थितियां तब से बहुत बेहतर हैं और आने वाले कल में बेहतरीन होती जा रही हैं।

(५) आप तो स्वयं साहित्यकार हैं, एक साहित्यकार जो गंभीर लेखन करता है उसे ब्लॉग लेखन करना चाहिए या नहीं ?

साहित्‍यकार का कोई वजूद बिना पाठक के नहीं है। सिर्फ खुद ही लिखें और अपने लिखे को पढ़ें तो आप कैसे साहित्‍यकार हो सकते हैं और न ही इस प्रक्रिया का कोई लाभ है बल्कि आपके लिखे पर पाठक की प्रतिक्रिया प्राप्‍त हो तो लिखने का जैसे मजा ही दूना और लिखने की गति सौगुनी हो जाती है। पाठकों से आपस में संवाद की स्थिति गंभीर लेखन को भी जन-जन से जोड़ते हुए जनहित की ओर अग्रसर करती है, मेरा ऐसा मानना है। साहित्‍यकार को निश्चित तौर पर ब्‍लॉग लेखन करना चाहिए। इसकी पुष्टि आप प्रख्‍यात साहित्‍यकारों के ब्‍लॉग से कर सकते हैं। वे चाहे रोज अपने ब्‍लॉग पर पोस्‍ट न लगाते हों और टिप्‍पणियां तो यदा कदा ही करते हैं परंतु इस तकनीक के आकर्षण से बचे हुए नहीं हैं। उन्‍हें भी अपने लेखन पर प्राप्‍त प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहता है और इससे लेखन में निखार ही आता है।
मेरे पास भी अब तो यह स्थिति है कि शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो, जब किसी नए पाठक का फोन न आता हो या लिखचीत (चैट) न होती हो और यह संवाद इंटरनेट के जरिए ही कायम हुआ है। ई मेल और टिप्‍पणियां तो खैर मिलती ही हैं। जिनसे एक बार संवाद शुरू हो गया तो मेरी कोशिश सदा यही रहती है कि इसमें व्‍यवधान न आए और मेल अथवा फोन के जरिए संपर्क बना रहे तथा वे ब्‍लॉग लेखन से जुड़ जाएं। कितने ही पाठकों को मैंने ब्‍लॉग लेखन में प्रवृत्‍त किया है, कितने ही लेखकों को उनके ब्‍लॉग बनाने में सहायक बना हूं और अब भी चाहे किसी का भी फोन आए अथवा कहीं किसी की टिप्‍पणी नजर आए कि किसी को हिन्‍दी टाइप करने अथवा ब्‍लॉग बनाने में कठिनाई अथवा किसी भी प्रकार की कोई जिज्ञासा है तो मैं स्‍वयं आगे बढ़कर सहायता करता हूं। इसमें दूरी कोई मायने नहीं रखती। बस आपके मन में एक जज्‍बा होना चाहिए सबसे मिलकर और साथ लेकर चलने का, साहित्‍य की बेहतरी भी मुझे तो इसी में नजर आती है।

(६) विचारधारा और रूप की भिन्नता के वाबजूद साहित्य की अंतर्वस्तु को संगठित करने में आज के ब्लोगर सफल हैं या नहीं ?

अभी चाहे ब्‍लॉगिंग के शैशव काल में उतने सफल नहीं भी हैं तब भी निराश होने जैसी स्थिति भी नहीं है क्‍योंकि आप देखिए प्रिंट मीडिया ब्लॉग में प्रकाशित अच्‍छी सामग्री को अपने समाचार पत्र और पत्रिकाओं में नियमित स्‍थान दे रहे हैं। दैनिक जनसत्‍ता के संपादकीय पेज पर एक पोस्‍ट ही उनके समांतर स्‍तंभ में प्रकाशित हो रही है जो कि सप्‍ताह में कुल छह ही होती हैं परन्‍तु उसकी उत्‍कृष्‍टता में तनिक भी संदेह नहीं किया जा सकता है। इसके अतिरिक्‍त भी अब तो बहुत सारे समाचार पत्र-पत्रिकाएं अपने प्रकाशनों में ब्‍लॉग प्रकाशन को नियमित और महत्‍वपूर्ण स्‍थान दे रहे हैं।
आप साहित्‍यकार उदय प्रकाश, दिविक रमेश, प्रताप सहगल, प्रेम जनमेजय, सूरज प्रकाश, सुभाष नीरव, बलराम अग्रवाल, रूपसिंह चंदेल, पवन चंदन कुछ नाम ही ले रहा हूं, इनके ब्‍लॉग देखते ही होंगे, उन्‍हें देखकर आपको अपने प्रश्‍न का सकारात्‍मक उत्‍तर मिलेगा। साहित्‍यकारों की यही प्रवृत्ति अब ब्‍लॉगरों में भी दिखलाई दे रही है जो कि इस क्षेत्र में ब्‍लॉगरों की सफलता को दिखला रही है।

(७) आज के रचनात्मक परिदृश्य में अपनी जड़ों के प्रति काव्यात्मक विकलता क्यों नहीं दिखाई देती ?
आजकल जीवन इतना कठिन हो गया है कि जड़ों से जुड़ाव ही टूट – बिखर रहा है। अपना पेट-परिवार पालने के प्रश्‍न से निजात मिले तो रचनाकार इससे बचे इसलिए ऐसे में काव्‍यात्‍मक विकलता का अभाव तो होगा ही। यह जीवन में प्रौद्योगिकी के आने से भी हुआ है परन्‍तु परिवर्तन तो अवश्‍यंभावी हैं। बिना परिवर्तन के तो श्रेष्‍ठ साहित्‍य की रचना भी संभव नहीं है। सभी स्थिति-परिस्थिति का होना जरूरी है जैसे सिर्फ सुख से ही काम नहीं चल सकता दुख भी चाहिए ही। तो इसी तरह सब हो रहा है।


(८) आपकी नज़रों में साहित्यिक संवेदना का मुख्य आधार क्या होना चाहिए ?

साहित्यिक संवेदना का मुख्‍य आधार तो मानवता, ईमानदारी निश्चित तौर पर है परन्‍तु अगर बेईमानी, क्षुद्र स्‍वार्थ इत्‍यादि विसंगतियां नहीं होंगी तो इनका भी कोई मूल्‍य नहीं रह जाएगा। इसलिए इन्‍हीं सबको देख समझ कर भी साहित्‍य रचना की जाती है। सभी जगह यह आवश्‍यक नहीं है कि सब कुछ भोगा हुआ ही हो। वैसे भोगे हुए यथार्थ पर लिखी गई रचना का कोई मुकाबला ही नहीं है परन्‍तु कल्‍पना और देखने-समझने-महसूसने की उपयोगिता भी कम नहीं है। इन सबसे मिलकर ही संवेदनाएं परिष्‍कृत होकर साहित्‍य में रूप ग्रहण करती हैं, अब विधा चाहे कोई भी हो।


(९) आज की कविता की आधुनिकता अपनी देसी जमीन के स्पर्श से वंचित क्यों है ?

जहां-जहां देसी जमीन का स्‍पर्श दिखलाई देता है वो तन-मन को निश्चित ही आलोडि़त और झंकृत कर जाता है। पर अब देसी जमीन ही नहीं है जो है भी वो भी पूरी तरह व्‍यावसायिक हो चुकी है। जिसके पास है भी वो कैरियर के चलते उसे छोड़ने को विवश है। फिर भी देसी जमीन आज भी कविताओं में अपनी भरपूर शिद्दत से मौजूद है। इसका औसत निश्‍चय ही कम हुआ है जबकि मिसाल के लिए आप कवि दिविक रमेश के ‘गेहूं घर आया है’, सुरेश यादव के ‘चिमनी पर टंगा चांद’, लालित्‍य ललित के ‘इंतजार करता घर’, मोहन राणा के ‘धूप के अंधेरे में’ जैसी पुस्‍तकों की कविताओं में बिना तलाशे पा सकते हैं। पर यह स्थिति और 30 साल बाद नहीं होगी। तब देसी के स्‍थान पर विदेसी जमीन का स्‍पर्श ही सब जगह मौजूद मिलेगा।


(१०) क्या हिंदी ब्लोगिंग में नया सृजनात्मक आघात देने की ताक़त छिपी हुई है ?

हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की ताकत को कम करके आंकना बिल्‍कुल ठीक नहीं है। जल्‍दी ही यह मीडिया का सबसे ताकतवर माध्‍यम बनने वाला है। फिर बाकी सभी माध्‍यमों की गिनती इनके बाद ही की जाया करेगी। इसमें सीधे कहने वाला कहता है जिससे इसकी विश्‍वसनीयता बढ़ रही है। जहां विश्‍वास होता है वहां सृजन भी आह्लादकारी होता है। आप सिर्फ 15 बरस बाद हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग को सर्वोत्‍तम रूप में देख पाएंगे, ऐसा मेरा आकलन है।

(११) कुछ अपनी व्यक्तिगत सृजनशीलता से जुड़े कोई सुखद संस्मरण बताएं ?

देखिए अनुभव दुखद भी होंगे तो उनसे भी नए रचनात्‍मक आयाम ही विकसित होंगे। उन सभी स्‍मृतियों को मैं सदा सुखद पाता हूं जब भी मेरी किसी भी रचना का प्रकाशन होता है और उस पर सिर्फ प्रशंसा नहीं, आलोचना और एक नई दिशा मुझे मेरे पाठक और हितचिंतक बतलाते हैं। जबकि इसके उलट तारीफ तो सभी को अच्‍छी और सुखद लगती है परंतु वो आपके विकास के द्वारों पर ताला लगाने का काम करती है। जब भी मेरी भेजी गई रचना किसी समाचार पत्र अथवा पत्रिका विशेष में प्रकाशित नहीं होती है तो मुझे उसके अनछुए पहलुओं के बारे में ब्‍लॉग में प्रस्‍तुत करने पर मेरे पाठक दे देते हैं और वे क्षण मेरे लिए सर्वदा सुखद ही रहे हैं। जिससे मुझे कई बार यह भी अंदाजा हो जाता है कि मेरी रचना में क्‍या कमियां रही हैं ?

(१२) कुछ व्यक्तिगत जीवन से जुड़े सुखद पहलू हों तो बताएं ?

व्‍यक्तिगत जीवन में सभी पहलू सुखद ही होते हैं यदि आपकी अपेक्षाएं आपके पास मौजूद से कम होंगी और अगर उनसे अधिक की आपकी चाहना होगी तो किसी भी पहलू को दुखद होने से रोका नहीं जा सकता। जबकि मेरे जीवन के वे सभी पहलू सुखद हैं जब मैं किसी भी स्‍तर पर अपने को किसी अनजाने की मदद में भी मन से प्रवृत्‍त पाता हूं और इसी में सबको सुख की तलाश करनी चाहिए बल्कि तलाश करनी नहीं पड़ेगी। आपके पास इतना अधिक सुख हो जाएगा। जितना सुख देने में है, कभी पाने में नहीं है – यही मेरे जीवन का मूलमंत्र है।

(१३) परिकल्पना ब्लॉग उत्सव की सफलता के सन्दर्भ में कुछ सुझाव देना चाहेंगे आप ?

परिकल्‍पना ब्‍लॉग उत्‍सव की परिकल्‍पना अपने नाम के विपरीत परियों की कल्‍पना नहीं है बल्कि इसमें जो कल्‍पनाएं की गई हैं, वे सब सच्‍चाईयों और यथार्थ के रूप में सामने आएंगी और हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग के भविष्‍य को पुख्‍ता करेंगी। इससे प्रेरणा प्राप्‍त करके इसी प्रकार की और भी परियोजनाएं शुरू होंगी अभी तो यह शुरूआत है, आगे आगे देखते चलिए, हम खुद भी इसकी अद्भुत सफलताओं को देखकर अचंभित रह जाएंगे। अभी तो इसको सिर्फ एक स्‍पांसर मिला है, देखते जाइये प्रत्‍येक ब्‍लॉगर नेक हृदय और विचारों के साथ इसमें जुड़कर अपनी संपूर्ण सृजनात्‍मकता की आहुति इसमें डालेगा और यह परिकल्‍पना एक हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग के महायज्ञ का सुफल प्रदान करेगी।

(१४)नए ब्लोगर के लिए कुछ आपकी व्यक्तिगत राय ?
मेरा अभी भी यह मानना है कि ब्‍लॉगरों को सामूहिक ब्‍लॉग से जुडकर अनुभव लेना चाहिए। अपनी शक्ति को कम करने नहीं तौलना चाहिए। जैसा कि आजकल कुछ ब्‍लॉगरों के मन में यह चिंता हो रही है कि सामूहिक ब्‍लॉग से जुड़ने से आपकी अपनी व्‍यक्तिगत पहचान गायब हो रही है। ऐसा कुछ नहीं है, कुछ दिन आपको अवश्‍य ऐसा महसूस होगा परन्‍तु उसके बाद आपकी पहचान आपकी सृजनात्‍मकता के मिलकर जो उछाल मारेगी, वो सब बीते गए अनुभवों का खामियाजा भी भरेगी। बस आप नेक भावना के साथ आप सबमें अपने को महसूस करते चलिए। किसी भी नए ब्‍लॉगर को सीखने के लिए अगर ब्‍लॉग की जरूरत हो तो मैं अपने ब्‍लॉग से नि:संकोच उन्‍हें जोड़ने के लिए तैयार हूं। हम विश्‍वास देंगे तो हमें विश्‍वास ही मिलेगा।
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3 comments:

ज्योत्स्ना पाण्डेय ने कहा… 22 सितंबर 2010 को 3:18 pm बजे

सुन्दर, सार्थक विचार व सकारात्मक सलाह देता साक्षात्कार, अविनाश जी के उत्तरों से प्रभावित हूँ..

यहाँ प्रस्तुत करने के लिए लेखक व अविनाश जी , दोनों को ही आभार!
सादर- ज्योत्स्ना.

निर्मला कपिला ने कहा… 22 सितंबर 2010 को 3:55 pm बजे

अविनाश जी का साक्षात्कार बहुत अच्छा लगा कई जानकारियाँ भी मिली। सच कहूँ जब कभी उनके प्रोफाईल पर कलिक करो तो इतने ब्लाग होते हैं कि समझ नही आता किस पर जायें बस कई बार तो इसी चक्कर मे वापिस आ जाती हूँ हैरान हूँ कि वो इतने ब्लाग कैसे मेन्टेन करते हैं । उन्हें बहुत बहुत शुभकामनायें

कविता रावत ने कहा… 29 सितंबर 2010 को 3:22 pm बजे

अविनाश जी आपका साक्षात्कार बहुत ही सार्थक लगा..
...एक साथ इतने ब्लॉग को मेन्टेन करना मामूली बात नहीं... ...आपकी चर्चा और आपके लेख पढने का मौका बहुत बार मिलता है... लेकिन यह ब्लॉग का ही कमाल है की आज बहुत से हस्तियों से मुलाकात और उनके विचारों से अवगत होकर उन तक पहुँच पाना संभव हो पा रहा है.. यह देखकर सुखद अनुभूति होती है...

 
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