श्री प्रेम जनमेजय आधुनिक हिंदी व्यंग्य की तीसरी पीढ़ी के सशक्त हस्ताक्षर हैं। पिछले तीन दशक से साहित्य रचना में सृजनरत इस साहित्यकार ने हिंदी व्यंग्य को सही दिशा देने में सार्थक भूमिका निभायी है। 
प्रेम जनमेजय व्यंग्य- लेखन के परंपरागत विषयों में स्वयं को सीमित करने में विश्वास नहीं करते है .............परंपरागत विषयों से हटकर इन्होने समाज में व्याप्त आर्थिक विसंगतियों तथा सांस्कृतिक प्रदूषण को चित्रित किया है। व्यंग्य के प्रति गंभीर एवं सृजनात्मक चिंतन के चलते इन्होने 'व्यंग्य यात्रा' का प्रकाशन आरंभ किया । बहुत कम समय में ही इस पत्रिका ने अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया । विद्वानों ने इसे हिंदी व्यंग्य साहित्य में 'राग दरवारी' के बाद दूसरी महत्वपूर्ण घटना माना है। १८ मार्च १९४९ को उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक नगरी इलाहाबाद में जन्मे प्रेम जन्मेजय की महत्वपूर्ण कृतियाँ है- राजधानी में गंवार, वेर्शममेव जयते, पुलिस!पुलिस, डूबते सूरज का इश्क,कौन कुटिल खल कामी मैं नहीं माखन खायो,आत्मा महा ठगिनी, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएँ, शर्म मुझको मगर क्यों आती,  आदि सम्मान-पुरस्कारः 'व्यंग्यश्री सम्मान' -2009 कमला गोइन्का व्यंग्यभूषण सम्मान2009 संपादक रत्न सम्मान- 2006 ;हिंदी हिंदी अकादमी साहित्यकार सम्मान -1997 अंतराष्ट्रीय बाल साहित्य दिवस पर 'इंडो रशियन लिट्रेरी क्लब 'सम्मान -1998 ....आदि.!


.....प्रस्तुत है हिंदी ब्लोगिंग की दिशा-दशा पर लोक संघर्ष पत्रिका के दिल्ली स्थित ब्यूरो चीफ मुकेश चन्द्र से हुई इनकी बातचीत के प्रमुख अंश-  

(१) आपकी नजरों में साहित्य-संस्कृति और समाज का वर्त्तमान स्वरुप क्या है? 
मैं उस पीढ़ी का हूं जिसने के स्वतंत्रता-शिशु की गोद में अपनी आंखें खोली और जो इस देश के साथ बड़ा होता हुआ आज बुजुर्ग हो गया है। ये दीगर बात है कि देश जवानी के दौर में है। मेरी पीढ़ी वो पीढ़ी हे जो लालटेन से कंप्यूटर तक की यात्रा की है। मेरी पीढ़ी ने युद्ध और शांति के अध््याय पढ़े हैं। मेरी पीढ़ी ने राशन की पंक्तियों में खड़ी गरीबी देखी है तो चमचमाते मॉलों में, विदेशी ब्रांड के लिए नौजवानों की पागल भीड़ देख रही है। मेरी पीढ़ी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण देखा है, हरित क्रांति की हरियाली देखी है तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चमचमाते सूदखोर बनिए जैसे गैरराष्ट्रीयकृत बैंक देखे हैं तथा समृद्ध, विदेशी निवेश से चढ़ते शेयर बाजार के सैंसक्स के बीच भारत में आत्महत्या करते हुए किसान भी देखे हैं। मैंनें विश्व में छायी मंदी के बावजूद देश की अर्थ-व्यवस्था की जी डी पी को बड़ते देखा है पर साथ ही ईमानदारी, नैतिकता, करुणा आदि जीवन मूल्यों की मंदी के कारण गरीब की जी डी पी को निरंतर गिरते ही देखा है।


जैसा कि मैंनें सामयिक परिस्थितयों पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि, आज नंगई की मार्केटिंग का धंधा जोरों पर चल रहा है और साहित्य में भी ऐसे धंधेबाजों का समुचित विकास हो रहा है । कुटिल -खल -कामी बनने का बाज़ार गर्म है । एक महत्वपूर्ण प्रतियोगिता चल रही है -- तेरी कमीज मेरी कमीज से इतनी काली कैसे ? इस क्षेत्र में जो जितना काला है उसका जीवन उतना ही उजला है । कुटिल - खल-कामी होना जीवन में सफलता की महत्वपूर्ण कुंजी है । इस कुंजी को प्राप्त करते ही समृद्धि के समस्त ताले खुल जाते हैे । बहुत आवश्यक है सामाजिक एवं आर्थिक विसंगतियों को पहचानने तथा उनपर दिशायुक्त प्रहार करने की । पिछले दस वर्षों में पूंजी के बढ़ते प्रभाव, बाजारवाद,उपभोक्तावाद एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ‘संस्कृति’ के भारतीय परिवेश में चमकदार प्रवेश ने हमारी मौलिकता का हनन किया है। मुझे लगता है कि जिस तरह से पिछले डेढ़ दशक में पूंजी के प्रभाव से भारतीय समाज में विसंगतियां बढ़ी हैं तथा वर्तमान व्यवस्था आपको हताश-निराश एवं अवसाद में अकेला महसूसने को विवश कर रही है, ऐसे में इन सबसे लड़ने का एक मात्र हथियार व्यंग्य ही है।

समाज वही होता है पर उसे देखने के हमारे अपने- अपने यथार्थ होते हैं । आज का सामाजिक यथार्थ यह है कि हमसे हमारा यथार्थ बहुत पीछे छूटता जा रहा है । सबसे पहला सवाल तो यही है कि आज का हमारा सामाजिक यथार्थ क्या है? जब समाज को देखने के भिन्न -भिन्न नजरिए होंगें तो सामाजिक यथार्थ भी भिन्न ही होगा । आजकल तो समाजिक परिवेश को को विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के चश्में से देखने की अपनी- अपनी दृष्टियॉं हैं । समाज देखने का मेरा नजरिया तेरे नजरिए से बेहतर सिद्ध करने में हमारे कर्णधार वैसे ही व्यस्त हैं जैसे दशहरे के समय में अपने - अपने रावणों का बेहतर कद देखकर राम के ‘धार्मिक’ भक्त प्रसन्न होते हैं

(२) हिंदी ब्लोगिंग की दिशा दशा पर आपकी क्या राय है ?

हमारा आज इतना अस्त व्यस्त और त्रस्त हो गया है कि सवंादहीनता की स्थिति पैदा हो गई है। सामाजिक संबंधों को निभाने की नहीं निपटाने की संस्कृति पेदा हो गई है। हमारे आवागमन के साधन तो उत्तम हुए हैं पर मिलना जुलना कम हो गया है। ब्लॉगिंग का सदुपयोग हमें इस संवादहीनता से बचाता है। और दूसरे, व्यस्तता के इस माहौल में न मालूम कौन मेरी बात सुने या न सुने और मैं आत्माभिव्यक्ति न कर पाने की उदासीनता में डिप्रेशन का शिकार हो जाउं। ब्लॉग सामाजिक समस्याओं पर हमें वैचारिकता को शेयर करने का सार्थक एवं तुरत मंच प्रदान करता है। आप ने अपनी बात कह दी, जिसे अच्छी लगी, चाहे वो पड़ोस में रहता हो या फिर हजारों मील विदेश में आपकी बात पहुंच जाती है।

(३) आपकी नजरों में हिंदी ब्लोगिंग का भविष्य कैसा है ?

जिस तरह से हम व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं और समाज में संवादहीनता की स्थिति बढ़ रही है उसमें भविष्य तो उज्ज्वल है। ये दीगर बात है कि तकनीक के निरंतर बढ़ते हुए कदमो के कारण हो सकता है ब्लॉगिंग का बेहतर विकल्प आए और...

(४) हिंदी के विकास में इंटरनेट कितना कारगर सिद्ध हो सकता है ?

हिंदी के विकास में इंटरनेट कारगर हो रहा है और निरंतर कारगर होता रहेगा। आज इंटरनेट ने हिंदी का राष्ट्र विकसित करने में विशेष सहयाता की है। हमारे देश की राष्ट्रभाषा हिंदी चाहे न हो, विश्व में हिंदी का राष्ट्र स्थापित हो चुका है।

(५) आपने ब्लॉग लिखना कब शुरू किया और उस समय की परिस्थितियाँ कैसी थी ?

ब्लॉग की दुनिया में मैं शिशु हूं ओर मुझे अभी घुटनों-घुटनों भी चलना नहीं आता है। वो तो भला हो अविनाश वाचस्पति जैसे मित्रों का जिन्होंनें मुझ अनाड़ी को इस क्षेत्र का नौसिखिया खिलाड़ी बना दिया। मैंनें जब लिखना आरंभ किया तो , ये मेरी अल्पज्ञता हो सकती है, ब्लॉग की दुनिया विकास की ओर उन्मुख थी। आज तो चारों ओर ब्लॉग ही ब्लॉग नजर आते हैं।

(६) आप तो स्वयं साहित्यकार हैं, एक साहित्यकार जो गंभीर लेखन करता है उसे ब्लॉग लेखन करना चाहिए या नहीं ?


जैसे पत्र पत्रिकाएं, रेडियो, दूरदर्शन आदि माध्यम हैं वेसे ही ब्लॉग भी वैचारिक अभिव्यक्ति का माध्यम है। माध्यम गंभीर या छिछला नहीं होता है आपके विचार हो सकते हैं। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो गंभीरता को ओढ़े स्वयं को महत्वपूर्ण दिखाने की नौटंकी करते हैं। एक व्यंग्यकार के रूप में तो मेरे अनेक सहयात्रियों ने इन तथाकथित साहित्य के ब्रहाम्णों की दृष्टि में स्वयं को शूद्र पाया है। हां ब्लॉग का व्यस्न की तरह प्रयोग नहीं करना चाहिए।

(७) विचारधारा और रूप की भिन्नता के वाबजूद साहित्य की अंतर्वस्तु को संगठित करने में आज के ब्लोगर सफल हैं या नहीं ?

जो ब्लॉगर बिना किसी चिंतन के अपनी बात को तुरत फुरत कहने के मोह में होते हैं, वो सतह पर ही रह जाते हैं। साहित्य एक गहरे चिंतन की मांग करता है और आप इसमें जितना डूबते हैं उतना ही इसकी गइराई तक जाते हैं, उसे समझते है। मैं यह नहीं मान सकता कि कागजों में लिखने वाले रचनाकार या ब्लॅाग में लिखने वाले ब्लॉगर की विचारधारा भिन्न होती है। यह नहीं हो सकता कि मैं कागज में लिखूं तो भिन्न विचारधारा रखूंगा, ब्लॉग में लिखूंगा तो भिन्न। मैं पुनः कहूंगा कि ये सब अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यम हैं।

(८) आज के रचनात्मक परिदृश्य में अपनी जड़ों के प्रति काव्यात्मक विकलता क्यों नहीं दिखाई देती ?

मेरा मानना है कि समस्त विधाएं आपकी अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। लेखक के अंदर संवेदनशील उबाल की अभिव्यक्ति की छटपटाहट,संप्रेषण की तीव्रता, तथा मानव समाज की बेहतरी के लिए वैचारिक संवाद की आवश्यक्ता पहला कदम है और इसके बात आपका लेखकीय व्यक्तित्व तय करता है कि आप उसे किस विधा में कहते हैं। अभिव्यक्ति के इस माध्यम में साहितियक और सामाजिक माहौल भी भूमिक निभाते हैं। जैसे आज विसंगतियुक्त वातावरण में व्ंयग्य का दायरा बढ़ा हुआ दिखाई देता है। यदि काव्यात्मक व्याकुलता कहने से आपका संकेत मनुष्य, शहरीकरण और बाजारवाद के कारण व्यक्तिवादी हो रहे मनुष्य के दिनोंदिन भोथरे हो जा रहे संवेदन से है तो मैं आपसे शत प्रतिशत सहमत हूं कि हमारी संवेदनाएं धीरेे-धीरे तथाकथित आधुनिकता की भेंट चढ़ती जा रही हैं। हम निपटाने की संस्कृति का शिकार होते जा रहे हैं।

(९) आपकी नजरों में साहित्यिक संवेदना का मुख्य आधार क्या होना चाहिए ?

साहित्यिक संवेदना का आधार आपका व्यक्तित्व और आपका माहौल होता है। मानव मूल्यों का आधार साहित्यिक संवेदना का आधार होना चाहिए। चाहे कोई भी विचारधारा हो वो वंचित मुनष्य के प्रति आपकी संवेदना की मांग करती है।

(१०) आज की कविता की आधुनिकता अपनी देसी जमीन के स्पर्श से वंचित क्यों है ?

मेरा आपसे सवाल है कि क्या केवल कविता की आधुनिकता अपनी देसी जमीन के स्पर्श से वंचित क्यों , अन्य विधाएं नहीं । सोचकर देखिए कि क्या केवल इस परिप्रेक्ष्य में आपको केवल शून्य ही दिखाई देता है। क्या आपको कोई भी लेखक देसी जमीन के स्पर्श का नहीं दिखाई देता है।हमारे संप्रेषण का माध्यम कागजी हो सकता है पर बहुत सारे ऐसे लेखक है जो अपनी जमीन से जुड़े हुए हैं। और कया आप नहीं हैं? अपने आसपास नजरें घुमाइए तो सही।

(११) क्या हिंदी ब्लोगिंग में नया सृजनात्मक आघात देने की ताकत छिपी हुई है ?

मेरे विचार से ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति की एक नई तकनीक है, इसकी शक्ति एवं सीमाएं दोनों हैं। आवश्यक्ता है इनको जानने की। इसे हम तभी जानेंगें जब इसकी गहराई में जाएंगे। किनारे रहकर हम समुद्र की छोड़िए नाले तक की गइराई नहीं जान पाते हैं।

(१२) कुछ अपनी व्यक्तिगत सृजनशीलता से जुड़े कोई सुखद संस्मरण / कुछ व्यक्तिगत जीवन से जुड़े सुखद पहलू हों तो बताएं ?

मुझे लगता है अपने व्यक्तिगत संस्मरण शेया करने का यह अवसर नहीं है। उसे फिर कभी के लिए छोड़ दें।

(१४) परिकल्पना ब्लॉग उत्सव की सफलता के सन्दर्भ में कुछ सुझाव/नए ब्लोगर के लिए कुछ आपकी व्यक्तिगत राय देना चाहेंगे आप ?

मैं अपने को इस क्षेत्र में अभी शिशु मानता हूं। ब्लॉगिंग के इस विश्व में मैं स्वयं को बौना पाता हूं। परिकल्पना ब्लॉग उत्सव जैसे आयेाजन आत्मचिंतन, आत्मविश्लेषण तथा एक दूसरे से स्वस्थ संवाद स्थापित करने में सहायक हो, इससे बड़ी और कोई भूमिका मेरी दृष्टि में नहंी हो सकती है। आपके अंतिम सवाल को भी इससे जोड़ते हुए कहना चाहूंगा कि ब्लॉगिंग को दैनिक अखबारों में प्रकाशित हो रहे स्तंभ या फिर हमारे न्यूज चैनल की तरह का न बनाएं।समय है और उस समय या स्थान में कुछ भी कहना आपकी मजबूरी है अतः आप कुछ भी, बिना चिंतन के सतही कहे जा रहे हैं। ब्लॉगिंग की दुनिया एक मायानगरी है जो आपका महत्वपूर्ण समय नष्ट करने की ताकत रखती है। अतः ब्लॉगिंग को अपनी विवशता न बनाएं अपितु अपनी चिंतनशील वैचारिक अभिव्यक्ति की तीव्रता के लिए ब्लॉगिंग को माध्यम बनाएं। इस मायानगरी में खो न जाएं अपितु यदि इसका कोई तिलिस्म है तो उसे तोड़ें।

मैं आपका आभारी हूं कि आपने इतने सार्थक प्रश्न किए जिससे मेरी चेतना को सक्रिय किया और अपनी बात को अभिव्यक्त करने का मंच दिया।
() () ()

5 comments:

बेनामी ने कहा… 4 अक्तूबर 2010 को 1:18 pm बजे

is interview ke liye bahut bahut dhanyawaad...
मेरे ब्लॉग पर इस बार ....
क्या बांटना चाहेंगे हमसे आपकी रचनायें...
अपनी टिप्पणी ज़रूर दें...
http://i555.blogspot.com/2010/10/blog-post_04.html

vandana gupta ने कहा… 4 अक्तूबर 2010 को 3:34 pm बजे

प्रेम जनमेजय जी से परिचित कराने के लिये आपके आभारी हैं।

शरद कोकास ने कहा… 4 अक्तूबर 2010 को 8:39 pm बजे

प्रेम जनमेजय जी एक गम्भीर साहित्यकार है और साहित्य के विविध क्षेत्रों की उनकी गहरी समझ है । इस साक्षात्कार के माध्यम से ब्लॉगिंग के बारे में बहुत सारे अनुत्तर्रित प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं । आपको और प्रेम जनमेजय जी दोनो को इस सार्थक एवं सोद्देश्य बातचीत के लिए बधाई ।

Shah Nawaz ने कहा… 5 अक्तूबर 2010 को 8:34 am बजे

बिलकुल सही कहा...

Akshitaa (Pakhi) ने कहा… 5 अक्तूबर 2010 को 10:59 am बजे

ब्लागिंग पर कित्ती सुन्दर पोस्ट...अच्छी जानकारी मिली.

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