संक्षिप्त परिचय

नाम - डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर/ जन्मतिथि - 19-03-1974 (वास्तविक 19.09.1973) / जन्म स्थान - उरई (जालौन) उ0प्र0 / शिक्षा - पी-एच0 डी0 (हिन्दी साहित्य)/ (डा0 वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों में अभिव्यक्त सौन्दर्य का अनुशीलन) / एम0 ए0 (अर्थशास्त्र, हिन्दी साहित्य, राजनीतिशास्त्र) / बी0 एस-सी0 (गणित) / पत्रकारिता एवं जनसंचार का स्नातकोत्तर डिप्लोमा / अध्यापन अनुभव - अंशकालिक प्रवक्ता के रूप में दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उरई में अर्थशास्त्र विषय - 1 वर्ष (1995-96) / अंशकालिक प्रवक्ता के रूप में दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उरई में हिन्दी साहित्य विषय- 6 वर्ष (1999-2000 से 2004-05) / साहित्यिक-यात्रा - सन् 1983 में कविता लेखन के साथ प्रारम्भ / लेख, शोध-आलेख, कहानी, लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, नाटक आदि का लेखन एवं नियमित रूप से देश की प्रतिश्ठित पत्र/पत्रिकाओं में प्रकाशन / वर्तमान तक कुल 10 पुस्तकों का प्रकाशन / (एक कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक शोध सम्बन्धी, तीन पाठ्यक्रम सम्बन्धी, एक कन्या भ्रूण हत्या निवारण सम्बन्धी, दो पर्यावरण सम्बन्धी, एक जनपद जालौन सम्बन्धी) / हर शब्द कुछ कहता है (कविता संग्रह) / अधूरे सफर का सच (कहानी संग्रह) / शोध संग्रह (वृन्दावनलाल वर्मा के उपन्यासों में सौन्दर्य बोध) / मिड-डे मील: एक सर्वेक्षण (सर्वेक्षण रिपोर्ट) / पत्रकारिता (पाठ्यक्रम सम्बन्धी) / हिन्दी भाषा (पाठ्यक्रम सम्बन्धी) / अजन्मी की पुकार (कन्या भ्रूण हत्या निवारण सम्बन्धी) / पर्यावरण और समाज (पर्यावरण सम्बन्धी) / सम्प्रति - सम्पादक-स्पंदन (साहित्यिक पत्रिका) / प्रवक्ता-गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन) उ0प्र0 (2005-06 से वर्तमान तक) / मुख्य कार्यकारी-दीपशिखा (समाजसेवी संगठन) / साहित्यिक गतिविधियों के अतिरिक्त सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी, राश्ट्रीय, प्रादेषिक एवं स्थानीय स्तर की विविध समाजसेवी, साहित्यिक संगठनों, संस्थाओं में पदाधिकारी एवं सक्रिय सहयोग/ भारतीय रेडक्रास समिति की जिला कार्यकारिणी के सदस्य (वर्तमान में) / सी0एम0ओ0 की अध्यक्षता वाली पीपीएनडीटी की सलाहकार समिति के सदस्य (वर्ष 2004 से) / नेहरू युवा केन्द्र की राश्ट्रीय पुनर्निर्माण वाहिनी की जनपद जालौन की जिला कार्यकारिणी में पदाधिकारी रहे। पुरस्कार एवं सम्मान उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा वर्ष 2004 में हिन्दी की बहुआयामी सेवा हेतु सम्मान प्राप्त/ साहित्यिक मंच, भोपाल की ओर से वर्ष 2006 में युवा आलोचक का सम्मान / सेण्टर फार स्टडी आफ डेवलपिंग सोसायटीस (सीएसडीएस) नई दिल्ली की ओर से वर्ष 2006 में बेस्ट इन्वेस्टीगेटर (प्रथम बार प्रारम्भ) का पुरस्कार प्राप्त / अखिल भारतीय पुस्तक प्रचार समिति, इन्दौर द्वारा वर्ष 2007 में साहित्यिक सम्मान प्राप्त / नेहरू युवा केन्द्र, जालौन स्थान उरई द्वारा वर्ष 2007 में सर्वश्रेश्ठ युवा का सम्मान प्रदान / पुश्पगंधा प्रकाशन कवर्धा (छत्तीसगढ़) द्वारा वर्ष 2008 में सम्पादक श्री की सम्मानोपाधि प्रदान आदि प्रस्तुत है उनका एक आलेख-

!! समाज संचालन में सामाजिक सरोकारों की भूमिका !!

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

समाज की व्यवस्था के सुचारू रूप से संचालन के लिए इंसान ने परम्पराओं, मूल्यों, सरोकारों की स्थापना की। समय के सापेक्ष चलती व्यवस्था ने अपने संचालन की दृष्टि से समय-समय पर इनमें बदलाव भी स्वीकार किये। पारिवारिक दृष्टि से, सामाजिक दृष्टि से, आर्थिक दृष्टि से पूर्वकाल से अद्यतन सामाजिक व्यवस्थाएँ बनती बिगड़तीं रहीं।

जीवन के सुव्यवस्थित क्रम में मूल्यों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। मानव विकास का ऐतिहासिक दृश्यावलोकन करें तो ज्ञात होगा कि अकेले-अकेले रहते आ रहे मानव को किसी न किसी रूप में परिवार की, एक समूह की आवश्यकता महसूस हुई होगी। इसी आवश्यकता ने परिवार जैसी संस्था का विकास किया।

मानव की आवश्यकताएँ हमेशा से अनन्त रहीं हैं। इन आवश्यकताओं में कुछ आवश्यकताओं को मूलभूत आवश्यकताओं के रूप में देखा जा सकता है तो कुछ आवश्यकताएँ स्वयं मानव जनित हैं। मूलभूत आवश्यकताओं के रूप में इंसान ने जो कुछ पाया, जो कुछ खोजा उसी को व्यवस्थित रूप देने के लिए ही एक व्यापक व्यवस्था बनाई गई। इसी व्यवस्था को किसी ने परम्परा का नाम दिया तो किसी ने इसे सरोकारों का नाम दिया।

परिवार का गठन हुआ, रिश्तों का नामकरण हुआ, मर्यादाओं का विकास हुआ और इन्हीं सब के बीच यह भी निर्धारित करना स्वीकारा गया कि इनके निर्वाह के लिए कुछ मानदण्ड तय किये जायें। मानदण्डों का तय किया जाना किसी एक संस्था अथवा किसी एक व्यक्ति के हाथ में नहीं दिया गया। जिन नियमों, परम्पराओं के द्वारा सामाजिक व्यवस्था का संचालन सुगमता से हो सके, जिसका पालन सभी लोग आसानी से करना स्वीकार कर सकें, उन्हीं को सरोकारों से जोड़कर देखा गया।

देखा जाये तो सरोकारों का उपयोग आजकल हम किसी न किसी काम में करके देखते हैं। कभी शिक्षा के सामाजिक सरोकारों की बात होती है तो कभी मीडिया के सामाजिक सरोकारों की चर्चा होती है। किसी के द्वारा राजनीति के सामाजिक सरोकारों को खोजा जाता है तो कभी इंसान के सामाजिक सरोकारों के लिए बहस शुरू की जाती है। सवाल यह उठता है कि सामाजिक सरोकार क्या समय के साथ परिवर्तित होते रहते हैं अथवा प्रत्येक कालखण्ड में सामाजिक सरोकार अपरिवर्तित रहते हैं?

काल सापेक्ष स्थिति को देखा जाये तो आसानी से इस बात को समझा जा सकता है कि सामाजिक सरोकारों में समय-समय पर इंसान की सुविधानुसार परिवर्तन होते रहे हैं। कभी व्यक्ति ने परिवार के हिसाब से सामाजिक सरोकारों का निर्माण किया तो कभी उसने अपने कार्य की प्रकृति के अनुसार सरोकारों को देखा। सामाजिक सरोकार के नाम पर इंसान ने सदा अपनी सुविधा को ही तलाशन का प्रयास किया है।

पारिवारिक संदर्भों में यदि हम देखें तो पायेंगे कि इंसान ने जब परिवार की अवधारणा का विकास किया होगा तो उस समय उसने संयुक्त परिवार के चलन को वरीयता दी थी। कबीलाई संस्कृति कहीं न कहीं संयुक्त जीवनशैली का ही उदाहरण कही जा सकती है। इस संस्कृति के बाद ही परिवारों का एक साथ रहना सामाजिक सरोकारों में शुमार किया गया। समय बदला और समय के साथ-साथ इंसान की आवश्यकताओं ने भी अपना रूप बदल लिया। संयुक्त परिवार को प्राथमिक मानने वाला इंसान अपनी जरूरत के अनुसार एकल परिवारों में सिमट गया।

एकल परिवारों का चलन धीरे-धीरे नाभिकीय परिवारों के रूप में आज दिखाई दे रहा है। स्त्री हो या पुरुष अब वह अकेले ही रहने में विश्वास करने लगा है। परिवार को लेकर निर्धारित किये गये सरोकार आज बदलते और सहज स्वीकार्य दिखाई दे रहे हैं। परिवारों में एकल की धारणा के साथ-साथ पति-पत्नी के प्रति आपसी सम्बन्धों के ताने-बाने ने भी परिवर्तन किया है।

स्त्री-पुरुष के आपसी सम्बन्धों से इतर पति-पत्नी के आपसी सम्बन्धों में भी क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। अब पत्नी हो या पति उसे विवाहोपरान्त शारीरिक सम्बन्धोें को बनाने और उनको स्वीकारने में किसी तरह की झिझक नहीं दिखाई दे रही है। विवाहोपरान्त शारीरिक सम्बन्धों की सहज स्वीकारोक्ति और उसके बाद तलाक के रूप में अंतिम परिणति को स्त्री और पुरुष दोनों ही सहज भाव से स्वीकार रहे हैं।

इस तरह के मामले बताने और समझाने के लिए पर्याप्त हैं कि हम सामाजिक सरोकार के नाम पर अब किस तरह का समाज चाह रहे हैं। यह आवश्यक नहीं कि हम सरोकारों के नाम पर सिर्फ और सिर्फ पुरानी मान्यताओं को ढोते रहें किन्तु यह तो और भी अनावश्यक समझ में आता है कि मात्र स्वार्थपूर्ति के लिए सरोकारों में तोड़मरोड़ करने लगना। समाज की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए ही सामाजिक सरोकारों का निर्माण किया गया था। समाज के ढाँचे में व्यक्ति ने अपने आपको स्थापित करने के लिए इन सरोकारों को सहज रूप में स्वीकार भी किया था।

ऊपर दिया गया परिवार का उदाहरण तो एक बानगी भर है यह समझाने के लिए कि हम किस तरह से सरोकारों को मिटाते हुए अपनी एक गैर-आधार वाली व्यवस्था का निर्माण करते चले जा रहे हैं। किसी भी क्षेत्र में देखें तो हमें सामाजिक सरोकारों का क्षरण भली-भाँति दिखाई देता है। इस क्षरण के पीछे मनूष्य की असीमित रूप से कुछ भी पा लेने की लालसा दिखाई देती है। राजनीति हो अथवा मीडिया, शिक्षा हो अथवा व्यवसाय, धर्म हो अथवा कोई अन्य कार्य सभी में सरोकारों का विघटन आसानी से दिखाई देने लगा है।

इस विघटन को आसानी से अस्वीकारने का काम भी चल रहा है। किसी को भी मूल्यों के ध्वस्त होने के बार में समझाया जाये, सरोकारों के विघटन के बारे में बताया जाये तो वह इसे सहज रूप में नहीं ले पा रहा है। आधुनिकता, औद्योगीकरण, वैश्वीकरण आदि जैसे भारीभरकम नामों के बीच मूल बिन्दू को तिरोहित कर दिया जाता है।

हम स्वयं आकलन करें कि परिवार के, समाज के सरोकारों को तोड़कर हम किस प्रकार के समाज का निर्माण अथवा संचालन करना चाहते हैं? रिश्तों के नाम की, मर्यादा की आहुति देकर किसी के साथ भी शारीरिकता को स्वीकार करके हम किस प्रकार के खुले समाज को स्वीकार कर रहे हैं? शिक्षा के नाम पर नित नये प्रयोग हमें किस दिशा में ले जा रहे हैं? नैतिक शिक्षा को मजाक समझकर उसको हाशिये पर खड़ा करने वाले अनैतिक समाज के निर्माण से क्या चाहते हैं? मूल्य विहीन राजनीति के द्वारा हम कौन से सरोकारों का प्रदर्शन कर रहे हैं? दिन प्रति दिन लोकतन्त्र की होती समाप्ति और अघोषित रूप से निर्मित होते जा रही राजशाही के द्वारा राजनीति में किन सरोकारों की स्थापना का संकल्प ले रखा है? ये मात्र सवाल नहीं हैं, कुछ ज्वलन्त स्थितियाँ हैं जो नित हमें पतन की ओर ले जा रहीं हैं। एक छोटी सी बानगी ये है कि प्रत्येक कार्य में किसी न किसी रूप में नारी शरीर का उपयोग किया जाने लगा है। नारी तन के कपड़े कम से कमतर होते-होते समाप्ति की ओर चले जा रहे हैं। पुरुष की विकृत मानसिकता दिन प्रति दिन और विकृत होती जा रही है। कन्याओं का कोख में ही दम तोड़ते जाना अपनी अलग कहानी कह रहा है। बहुत कुछ है जो सरोकारों के नाम पर कुछ और ही परोस रहा है।

अन्त यही कि अब सँभलने का और कुछ कर दिखाने का समय है। चिन्तन का समय जा चुका है। एक कदम उठाना होगा जो समय सापेक्ष स्थिति का आकलन कर सामाजिक सरोकारों का सही-सही निर्धारण कर सके।
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1 comments:

शरद कोकास ने कहा… 21 नवंबर 2010 को 5:20 pm बजे

अच्छा लगा यह परिचय ।

 
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