बचपन.........मछली मछली कित्ता पानी.......कौन खायेगा जलेबी?-हम, मैंने पहले कहा,मैंने.......
एक था राजा , राजा की 4 बेटियाँ ..........'नहीं पापा, दो बेटे भी '...........'ओह! क्यूँ बीच में बोलते हो ,
कहानी को कहानी रहने दो'............
कोई लौटा दे वह बचपन, लगभग सबकी ख्वाहिश होती है........ यादें अलग, मुस्कान अलग, कहानी अलग,पर सबके होठों पर एक ही गीत....'बचपन के दिन भी क्या दिन थे...........!'
बचपन का लम्हा- याद आते ही दिल मचल जाये ..............मासूम खेल ,मासूम झूठ,चौकलेट की चोरी ,पापा के क़दमों की आहट और हिलती पलकों के बीच गहरी नींद का नाटक !माँ की बलैयां , पापा से बचाना , एक-दूसरे की गुल्लक से पैसे निकाल अपनी गुल्लक में डालना , छोटे-छोटे स्टेज शो, अमरुद के पेड़ पर चढ़कर कच्चे अमरुद में स्वाद पाना , तपती दोपहरी में भी धमाचौकड़ी के मध्य शीतलता पाना ...............................................
उम्र बढ़ती जाती है, पर मुड़-मुड़कर देखने का सिलसिला चलता रहता है .
जाने कितनी नज़रें आगे बढ़ते क़दमों के साथ वहीँ ठहर जाती हैं.......'देवदास' में जैसे आवाज़ गूंजी है- ;ओsssssss
देवाssssssssssss .................उसी तरह कई चेहरे आँखों के परदे से चलचित्र की तरह गुजरते हैं .
चलिए उन जज्बातों को आपस में बांटते हैं.........................
शाम होते,
जब बिजली गुल होती...
तो पेट मे गुदगुदी सी होती...
न पढ़ने का सुन्दर सजीला बहाना...
और धमाचौकड़ी का मौका...!!
अँधेरे मे सर टकरा जाये,
तो चिंता नही होती थी ,
खाना खाओ, गीत गाओ,
रात बड़ी प्यारी लगती थी..............
...................................................
सुबह होते पेट का दर्द ,
स्कूल ना जाने का रोज़ का बहाना........
फिर वक़्त गुज़रते
छुप्पा-छुप्पी खेलना ,
भले पापा के गुस्से वाला थप्पड़ रुलाता था..,
पर हौसले को नहीं मिटाता था...
भरी दोपहरी मे ,
नंगे पाँव जलते नहीं थे ,
अमरुद के पेड़ पर चढ़ना ,
और बेर जितना अमरुद भी खा जाना.....................
अहा
.........................
बारिश होते....
लकडी की सफ़ेद बुनावट वाली कुर्सियाँ,
पलट दी जाती थी .......
एक तरफ से चढ़ना ,
दूसरी तरफ उतरना ,
अपना प्यारा हवाई जहाज लगता था ..........
खाने के वक़्त ,
होती थी पार्टियां ........
एक ही जगह बैठे - बैठे,
एक देता पार्टी -
बाक़ी गाड़ी पर घर्र्र्र्र्र्र घर्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र पहुँचते ....
पार्टी देने वाला ,
जब टेस्ट करने में ,
खा जाता सब की प्लेट से ,
तो बाल की खींचातानी चलती ,
किसी जानवर की तरह गूंथे होते हम........
और झल्लाती माँ कान खींच अलग करती....
पूछो तो
आज भी इक्षा होती है,
लौट आयें वो दिन ....
वही रात , वही सुबह ,
वही दोपहरी , वही बारिश ,
और चले पार्टी -
और अपने बच्चों को दिखाएँ-
हम अपना आँगन अपना बचपन....
रश्मि प्रभा
http://lifeteacheseverything.blogspot.com/
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मेरा मन लौट जाना चाहता है "गया " के दिनों में ...
जब हम , माँ , भाई, छोटी सी अंकू को हँसाने में लगे रहते थे ...
जब हमलोग अन्ताक्षरी खेला करते थे और माँ उसको रिकॉर्ड किया करती थी ...
जब हम भजन के नाम पर "माना कि कॉलेज में पढना चाहिए लिखना चाहिए " गाते थे और भाई हमको चिढ़ता था ...
जब हम और भाई भजन की तरह हाथ जोड़ कर " काश कोई लड़का /लड़की मुझे प्यार करता " गाते थे ...
जब थर्सडे को डोसा वाला घर के बाहर "टन टन " बजाता था और हम और भाई दौड़ते थे ...
जब हम और भाई "दुक्खन " के रिक्शे से स्कूल जाते थे ...
माँ जो दो रुपया देती थी वीक में एक दिन , उस 2 रूपये से लंच में "बुढ़िया का समोसा या आलू कचालू " या फिर छुट्टी में "कुश की चाट "...क्या खायेंगे ये प्लान बनाते थे ...
जब ए .पी कालोनी मिस . नाहा के यहाँ जाते हुए रिक्शे वाले को तंग करते थे ...
जब बारिश में जान बूझ के पेन रिक्शे से नीचे गिरा के रेन कोट पहन कर नीचे पानी में उतर के "छप छप " करते थे ...
जब रात में माँ के पास कौन सोयेगा इसके लिए लड़ते थे और जीत मेरी ही होती थी ...
जब अम्मा कुछ लिखने देती थी और होड़ लगती थी कि पहले कौन लिखेगा और अम्मा किसको ज्यादा अच्छा बोलेंगी ................................
No doubt मन लौटता है इन दिनों में जब भी इनको याद करते हैं पर ये भी कहता है कि "कितना अच्छा होता कि ये सब कभी ख़त्म नहीं होता ..."
खुशबू प्रियदर्शिनी
http://khushikiduniya.blogspot.com/
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जीवन अनुपम कलाकार की अद्भुत कलाकृति है और बचपन इसका प्रथम चरण --- पक्षियों के कलरव सा मधुर , भोर कि प्रथम किरण सा निश्छल , पहाड़ी झरने सा चंचल! पता ही नहीं चलता , यह कब तितलियों की तरह उड़ कर हमारी पकड़ से परे हो जाता है. पर ये मनमोहक पल मन की डायरी में हमेशा के लिए अंकित हो जाते हैं. जब भी मन उदास होता है बचपन की गलियों में भटकने लगता है. देखती हूँ - तौलिये की छतरी डाल बाबूजी की ऊँगली थामे मैं गंगाजी नहाने जा रही हूँ... देखती हूँ - खटिया पर बैठी बाबू साहेब से कहानी सुन रही हूँ - डोम जागल बा, सूप बिनत बा कैसे आई हो..........!'
रंग-बिरंगी कहानियाँ - राजा-रानी, राम सीता, कृष्ण-सुदामा, पंख लहराती परियों कि, विक्रम-बेताल कि, भूतों और राक्षसों की .... ! मेरा बचपन कहानियों की दुनिया में डूबा था और मैं चाहती थी कहानियों का संसार मेरे मन में सपने बुनता रहे कभी उसका अंत ना हो.
बचपन के वो दिन - न धूप लगती थी न धूल से बचना था. ताड़ के पत्ते की गाडी के साथ में, मुन्नी, बेबी, और बीनू खेल रहे हैं. बक्सर की वो धूल भरी सड़क कश्मीर की वादियों से भी ज्यादा प्यारी थी. अम्मा कि देह पोचते और बाल संवारते देखती हूँ. देखती हूँ सीतामढ़ी का घर जहाँ मेरा मित्र लल्लू खेलने के लिए पुकारता था. अम्मा कहती थी - 'धूप है' पर मैं कन्नी कात कर भाग जाती थी क्यूंकि इस उम्र में धूप चांदनी लगती है. हम कभी पेड़ पर चढ़ कर जामुन तोड़ते कभी क्रिकेट कभी फुटबाल खेलते.. शाम होते ही अम्मा की पाठशाला खुल जाती और पढाई का कार्यक्रम शुरू हो जाता. पढाई से जी चुराने पर डांट-फटकार मिलती.
मेरी अम्मा के पास कहानियों की एक मोहक दुनिया थी जिसमे वो हमें घुमाती थी. हम भाई-बहनों का प्रिय खेल था 'घर - घर और पार्टी'. हमारे बीच का झगडा - आज उसकी याद में आँखें नम हो जाती हैं - काश! वो दिन कभी नहीं बदलते. समय कभी उल्टा चलता और हमारा छोटा परिवार फूलों के बीच गोलंबर पर बैठा मुन्ग्फलियाँ खाता - बाबूजी कोई मनोरंजक खेल खेलते . पर ये सब अब कल्पना है. महादेवी जी ने ठीक ही लिखा है -
'मृत्यु का क्षण भंगुर उपहार
देव वीणा का टूटा तार'
समय की गति ने बचपन की सुहानी दुनिया को हमसे दूर - बहुत दूर कर दिया पर साँसों की लय हमेशा यही कहती है - 'कोई लौटा दे वो बचपन...............!
रेणु सिन्हा
पटना
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बचपन ! विस्मृत यादों का ऐसा घराना , जो हमारे भविष्य की नींव है . कुछ ऐसी यादें जो बार-बार आती रहती हैं . 'कुछ है' जो बलपूर्वक हमारे सपनों में आकर
थपेड़े दे देकर हमसे कहती है , "अरे , मुझे भूलो मत , भूले तो तुम्हें इसका हर्जाना देना होगा ; मेरे अँधेरे उजाले सब तुम्हारे हैं , इसे याद रखो - समझ सको तो
समझो - सब तुम्हारे सुनहरे भविष्य के लिए है ."
मेरा बचपन मेरी दादी की उजले साड़ी के इर्द-गिर्द घूमता रहा . मुझे याद है जब मेरे बाबूजी गीता-प्रेस , गोरखपुर की "महाभारत" श्रृंखला का पहला भाग लेकर
आए थे और दादी को देते हुए बोले थे " मैया अब हर महीना एक भाग तोहरा ला ऐतई." ३६ महीना यानि ३ साल तक लगातार आता रहा महाभारत, रंगीन फोटोयुक्त
मूल संस्कृत दोहों के साथ हिंदी अनुवाद भी . बाबूजी विश्व प्राचीन भारत एवं पुरातत्व के विश्व विख्यात विद्वान् ही नहीं बल्कि साहित्य में गंभीर रूचि रखते थे और पटना
स्थित सिन्हा लाइब्रेरी से हिंदी उपन्यास एवं धार्मिक पुस्तकें दादी के लिए लाते थे . इस प्रक्रिया में मैं भी किताबों में डूबता चला गया .
ययाति, परीक्षित, अर्जुन, कर्ण... सब मेरे साथी होते गए , क्लास में भी वही सब दिखने लगा . दादी की तबीयत ठीक नहीं रहने पर उन्हें महाभारत पढ़-पढकर सुनाता था.
इसमें मुझे जो आनंद आता था , वह मैं नहीं कह सकता . कितनी बार छटपटाहट सी होती है , फिर वैसा माहौल हो जाये. दादी (जिन्हें हम मम्मा कहते थे) लेती रहे और मैं
महाभारत या कोई और उपन्यास पढकर सुनाता रहूँ .
समय लौटता नहीं, पर पढ़ने की जो नींव पड़ी , वो आज भी जारी है. जयशंकर प्रसाद, दोस्तोवस्की ...ये सब पढ़ते हुए भी हुए भी महाभारत की कहानियाँ मन के अन्दर से बाहर
आकर उन सभी के सामने अभी भी खड़ी हो जाती हैं . वे बहसें, जो बचपन में मम्मा के साथ होतीं....कर्ण बेहतर या अर्जुन !
याद आता है राममोहन राय सेमिनरी स्कूल में मेरा पहला दिन . मेरे बगल में जो लड़का बैठा था, उसका नाम था अमरेश यादव . रंग कुछ काला, लम्बा छरहरा . और मैं काफी कम
उंचाई का. वह मेरा पहला दोस्त बना , मैं शुरू शुरू में बहुत डरा-सहमा रहता था , पर अमरेश हमेशा मेरे साथ रहता -मेरा रक्षक बनकर. मैट्रिक तक हम हमेशा साथ रहे .
जब मैं बी.एस . सी के अंतिम वर्ष का छात्रा था तो पटना के रीगल होटल में चाय पीने अक्सर जाता था. एक दिन मैंने जब चाय का आर्डर दिया तो जो बैरा आया वो मेरे बचपन का साथी
अमरेश था . मैं घबडा गया , वो भी घबडाया और धीरे से चाय का कप मेरे सामने रख चला गया, फिर वापस नहीं आया.
बहुत दिनों तक हिम्मत नहीं हुई रीगल में जाने की , पर अंततः मन नहीं माना और मैं गया , कहा- आपके यहाँ अमरेश काम करते हैं, बुलाइए. पता चला , वह चला गया. पता नहीं अब
वह कहाँ है !है भी या नहीं ! मेरे जैसे कमज़ोर लड़के में उसने एक हिम्मत दी थी...अब यह ऋण कहाँ, किसे चुकाऊँ .
क्या बचपन के वे क्षण लौट सकते हैं? नहीं... पर उन्हें यादों में मैं अक्सर जी लेता हूँ और आंसुओं से भींगकर पुराने बचपन की यादें हरी-भरी और तरोताजा हो जाती हैं , बस ! अब तो इतना ही हो सकता है .
अभय कुमार सिन्हा
पटना
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जब,जब पुरानी तस्वीरे
कुछ याँदें ताज़ा करती हैं ,
हँसते ,हँसते भी मेरी
आँखें भर आती हैं!
झिम,झिम झरती हैं..
वो गाँव निगाहोंमे बसता है
घर बचपन का मुझे बुलाता है,
जिसका पिछला दरवाज़ा
खालिहानोमें खुलता था ,
हमेशा खुलाही रहता था!
वो पेड़ नीमका आँगन मे,
जिसपे झूला पड़ता था!
सपनोंमे शहज़ादी आती थी ,
माँ जो कहानी सुनाती थी!
मै रोज़ कहानी सुनती थी..
वो घर जो अब "वो घर"नही,
अब भी ख्वाबोमे आता है
बिलकुल वैसाही दिखता है,
जैसा कि, वो अब नही!
अब वो वैसा नही..
लकड़ी का चूल्हाभी दिखता है,
दिलसे धुआँसा उठता है,
चूल्हा तो ठंडा पड़ गया
सीना धीरे धीरे सुलगता है,
सुलगताही रहता है.
बरसती बदरीको मै
बंद खिड्कीसे देखती हूँ
"भिगो मत"कहेनेवाले
कोयीभी मेरे पास नही
तो भीगनेभी मज़ाभी नही...
जब दिन अँधेरे होते हैं
मै रौशन दान जलाती हूँ
अँधेरेसे कतराती हूँ
बेहद उदास हो जाती हूँ..
बेहद डर भी जाती हूँ.
पास मेरे वो गोदी नही
जहाँ मै सिर छुपा लूँ
वो हाथभी पास नही
जो बालोंपे फिरता था
डरको दूर भगाता था...
खुशबू आती है अब भी,
जब पुराने कपड़ों मे पडी
सूखी मोलश्री मिल जाती
हर सूनीसी दोपहरमे
मेरी साँसों में भर जाती,
नन्ही लडकी सामने आती
जिसे आरज़ू थी बडे होनेके
जब दिन छोटे लगते थे,
जब परछाई लम्बी होती थी...
कितना कुछ याद दिला जाती..
बातेँ पुरानी होकेभी,
लगती हैं कलहीकी
जब होठोंपे मुस्कान खिलती है
जब आँखें रिमझिम झरती हैं
जब आँखें रिमझिम झरती हैं...
शमा
http://shama-kahanee.blogspot.com/
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'आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम गुजरा जमाना बचपन का
हाय रे अकेले छोड़ के जाना और ना आना बचपन का '
बचपन में ये बात समझ में ही नही आती थी '' बचपन का जमाना ज़ालिम कैसे हो सकता है ? बचपन गुजरा ,युवा - अवस्था में बचपन की यादें पीछे पीछे चलती रही ....जब उम्र का वो दौर भी जीवन के हाथों से रेत की तरह फिसलता गया बचपन ने 'माँ ' की तरह अपने आँचल में समेट लिया ....शायद सभी से यूँ ही लिपट जाता है ये , और अंतिम समय तक अपने से दूर नहीं जाने देता ...वो गुड़ियों का खेल , छुपा -छुप्पी ,लंगड़ी -टांग , सितौलीये ,झूले पर झुलना ,बचपन के साथियों से झगड़ना .सबकी वही कहानी ...लगभग एक से अनुभव .......पर ...बरबस ख्याल आते हैं वो बच्चे जिनका बचपन उनके ही किसी अपने ने सड़क के किनारे फैंक दिया या ...किसी कचरा के ढेर में तड़प उठती हूँ मैं . भगवन ! लौटाना है तो इन्हें इनका बचपन लौटा दो ,इनकी मुस्कान इन्हें दे दो .इन पर भी ममता लुटाने वाली कोई माँ हो ,दुलारने वाला 'पिता ' हो ,सहेजने वाला परिवार हो .
ये भी देखें ,महसूस करें कि बचपन क्या होता है ? कोई माँ कहे -''सो गया किस तरह तू अकेला ,बिन मेरे किस तरह तुझे नींद आई '' मुझे नही चाहिए अपना बचपन दोबारा .मैंने खूब जिया उसकी मीठी यादें कई जन्मों के लिए पर्याप्त है ...कोई लौटा सकता है 'इन बच्चों ' का बचपन ,जो उस गलती की सजा भुगतते हैं जीवन भर जो इन्होने की नही ...काश मैं एक एंजेल होती ...और इनको इनका बचपन दे जाती !
इंदु पुरी
http://moon-uddhv.blogspot.com/
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() प्रस्तुति : रश्मि प्रभा
आपको ब्लोगोत्सव की यह विशेष प्रस्तुति कैसी लगी अवश्य अवगत कराईयेगा ....
और अंत में इस चर्चित हिंदी गाने : बचपन के दिन भी क्या दिन थे........ के साथ शुभ विदा !
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